प्रभात खबर ने गढ़े हैं जन सरोकार की पत्रकारिता के प्रतिमान
राजनीति और जनांदोलन करने वाले लोग हों या शिक्षा, संस्कृति, भाषा और आदिवासी अस्मिता को लेकर चिंता, चिंतन और संघर्ष करने वाले या फिर एक आम आदमी, सब ने सबसे पहले प्रभात खबर पर भरोसा किया, इसने ही उनकी बात सबसे पहले समाज के सामने लाया. ऐसे अनगिनत मामले हैं.
आरके नीरद
अखबारी दुनिया में अंगद के पांव की मानिंद चार दशक से पूरी मजबूती से अपनी जगह पर अडिग प्रभात खबर ने अलग किस्म की पत्रकारिता की. इसने पत्रकारीय शिल्प को एक खास शैली, चिंतन, दिशा और दृष्टि दी. इसके मूल में पांच तत्व रहे- प्रयोग, प्रयत्न, प्रत्यक्ष, प्रमाण और परिमाण. जन सरोकार, सामाजिक प्रतिबद्धता, स्पष्टता, साहस और संवाद ने इन पांचों तत्वों को परिणाम में बदला. प्रभात खबर ने अपने प्रयोगों के जरिये पत्रकारिता को नयी दिशा दी. इस प्रयोग में स्थानीयता के महत्व की समझ है, आदिवासियत है, बौद्धिक वर्ग का समायोजन है, समाज के हाशिये पर धकेले गये समुदाय का स्वर है, हक और हुकूक के लिए अंकुरित होते विचारों का पोषण है, जनभागीदारी की अहमियत की स्वीकृति है और जन सर्वेपरिता है.
इसने ग्रामीण और अंचल की पत्रकारिता को अपना मूल स्वर बनाया और पूंजीवाद की जगह जनसरोकार का रास्ता चुना. आरंभिक दौर में कठिन कार्य जरूर रहा, किंतु कालांतर में यही इसकी ताकत तो बनी ही, हिंदी पत्रकारिता की नब्ज भी बन गयी, जिसका अनुसरण स्वयं को राष्ट्रीय कहने वाले अखबारों ने किया, यहां तक कि झारखंड में पांव धरने और टिकाने के लिए उन्हें इसी पैटर्न को आत्मसात करना पड़ा, जिसे प्रभात खबर ने बुना.
इसने आदिवासी समाज, संस्कृति और चेतना से जुड़े विषयों को केवल उठाया ही नहीं, आदिवासी समाज से लेखकों और पत्रकारों की पीढ़ियां तैयार कीं. तब हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी लेखकों की उपस्थिति शून्य थी. उस समय की स्थिति की चर्चा करते हुए महादेव टोप्पो कहते हैं कि जब भी कोई पत्रिका अखबार पढ़ता था, तो यह देखा था कि कहीं किसी पत्रिका में न तो किसी आदिवासी लेखक का नाम होता है, न पाठकों के पत्रों के कॉलम में उनके द्वारा लिखे गये पत्र.
Also Read: जमीनी पत्रकारिता, निडरता और विश्वसनीयता प्रभात खबर की पूंजी
झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे कहते हैं कि प्रभात खबर की धारदार पत्रिकारिता की शक्ति इसकी इमानदारी, प्रतिबद्धता, निर्भीकता और रचनात्मक दृष्टि रही है. नौकरशाह और सरकार से लेकर न्यायपालिका से जुड़ी विसंगतियों पर भी इसने खूब सवाल खड़े किया, मगर कभी कोई उंगली नहीं उठा सका. इसकी वजह यह रही कि इसने तथ्य और तर्क के साथ बात की.
राजनीति और जनांदोलन करने वाले लोग हों या शिक्षा, संस्कृति, भाषा और आदिवासी अस्मिता को लेकर चिंता, चिंतन और संघर्ष करने वाले या फिर एक आम आदमी, सब ने सबसे पहले प्रभात खबर पर भरोसा किया, इसने ही उनकी बात सबसे पहले समाज के सामने लाया. ऐसे अनगिनत मामले हैं. प्रभात खबर ने सुदूर इलाकों में अपने ब्यूरो कार्यालय खोले. संताल परगना में किसी भी समाचार-पत्र का पहला कार्यालय प्रभात खबर ने खोला और उसका पहला कार्यालय दुमका में खुला. वह 11 जून, 1998 की बात है. तब हमारे पास संसाधन सीमित थे. दफ्तर मेरे घर में खुला और जो साहसिक प्रयोग छोटानागपुर में हो रहे थे, उसका इसने संताल परगना में विस्तार दिया.
एक वाकया साल 2000 का है. बिहार तब अविभाजित था. झारखंड अलग राज्य निर्माण के लिए लड़ाई चल रही थी. झारखंड मुक्ति मोर्चा इसकी अगुआई कर रहा था. बिहार में राजद की सरकार थी और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं. उसी साल के शुरू में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ. 13 राजनीतिक पार्टियों ने बिहार विधानसभा की कुल 324 में से 304 सीटें जीती थीं. 20 सीटों पर निर्दलीय निर्वाचित हुए थे. लालू प्रसाद की अगुआई वाली पार्टी राजद को सबसे अधिक 123 सीटें मिली थीं. सरकार बनाने के लिए 163 विधायकों का समर्थन चाहिए था.
Also Read: प्रभात खबर 40 वर्ष : निडरता से की जनसरोकार की पत्रकारिता
कांग्रेस, बसपा, माकपा और केएसपी के समर्थन के बाद भी राजद गठबंधन के विधायकों की संख्या 156 ही हो रही थी. सरकार बनाने के लिए और सात विधायकों का समर्थन चाहिए था. दूसरी ओर भाजपा, समता पार्टी और जनता दल यूनाईटेड के राजग गठबंधन को 122 सीटें मिली थीं. उसे सरकार बनाने के लिए 41 और विधायकों का समर्थन चाहिए था. भाकपा, माले और मासस के 12 विधायक थे, मगर इन दलों ने दोनों गठबंधन से इतर तीसरे मोर्चे के निर्माण के लिए संघर्ष जारी रखने का एलान कर दिया था. एक निर्दलीय विधायक ने भी तटस्थ रहने का फैसला सुना दिया था.
उधर, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ की यात्रा बीच में छोड़ कर दिल्ली लौट गये थे और 27 फरवरी को उनके आवास पर राजग गठबंधन के नेताओं की तीन घंटे तक बैठक चली. नीतीश कुमार को राजग का नेता चुन लिया गया. तय हुआ कि अगले दिन, 28 फरवरी को नीतीश कुमार दिल्ली से पटना पहुंचेंगे और राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय से मिल कर सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे. सरकार बनाने के लिए 41 और विधायक कहां से आयेंगे, राजग में इसे लेकर माथापच्ची करने में लगा था.
दूसरी ओर, 27 फरवरी की ही रात मुख्यमंत्री आवास, पटना में राजद गठबंधन ने राबड़ी देवी को विधायक दल का नेता चुन लिया और उसने भी अगले ही दिन, 28 फरवरी को राज्यपाल से मिल कर सरकार बनाने का दावा पेश करने का फैसला कर लिया, मगर सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा न तो राजग के पास था, न राजद के पास.
Also Read: प्रभात खबर 40 वर्ष : आपका भरोसा ही हमारी ताकत है
ऐसे में राजद और राजग, दोनों की नजर बाकी निर्दलीय और झामुमो विधायकों पर थी. उस चुनाव में झामुमो के 12 उम्मीदवार जीते थे. पार्टी के अध्यक्ष शिबू सोरेन किंग मेकर की भूमिका में थे. सब की नजर उन पर थी. इधर, शिबू सोरेन अचानक पटना से निकल पर 27 फरवरी की रात दुमका आ गये.
मैं दुमका में प्रभात खबर का ब्यूरो चीफ था. मुझे सूचना हुई और मैं उस सर्द रात में दुमका शहर के खिजुरिया मुहल्ला स्थित उनके आवास पहुंचा. बाकी पत्रकारों को उनके अचानक दुमका पहुंचने की या तो भनक नहीं थी या फिर उनसे मिलने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी. गुरुजी यानी शिबू सोरेन ने तब पहली बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने की इच्छा व्यक्त की थी. कहा, जो ‘मंझिया’ (खुद के विषय में) को मुख्यमंत्री बनायेगा, उसी को समर्थन देंगे.
उनका यह बयान बिल्कुल अप्रत्याशित था. उनसे इस पर मेरी लंबी बातचीत हुई. प्रदेश के सियासी हालात को लेकर उस रात गुरुजी बेहद सख्त थे. उन्होंने कहा, ‘सीएम कुर्सी के अलावा कोई भी मुद्दा मेरे लिए मतलब नहीं रखता है. हमें न तो ‘जैक’ (झारखंड एरिया ऑटॉनमस काउंसिल) चाहिए, न ही सड़क, हमें बस अलग राज्य चाहिए और जब तक अलग राज्य नहीं बनता है, तब तक के लिए मुझे मुख्यमंत्री (बिहार के मुख्यमंत्री) की कुर्सी मिलनी चाहिए. ’
Also Read: बदलते दौर की पत्रकारिता
बिहार विधानसभा की 12 सीटों पर सफलता और त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में झामुमो की अत्यधिक राजनीतिक भूमिका के कारण गुरुजी काफी आत्मविश्वास में नजर आ रहे थे. उन्होंने बार-बार यही दोहराया, ‘दूध का जला मट्ठा फूंक-फूंक कर पीता है. हमें सभी दलों ने लगातार छला है. हमारे साथ हर बार विश्वासघात किया गया. अब हमें किसी पर भरोसा नहीं रहा. अब अगर कोई दूसरा आदमी मुख्यमंत्री बनता है, तो अलग राज्य की प्रक्रिया लटका दी जायेगी. इसलिए हम खुद ही मुख्यमंत्री बनकर अलग राज्य की प्रक्रिया को आसान बनाना चाहते हैं. सब हमको मांझी (आदिवासी) समझ कर ठगना चाहते हैं. हम और ठगे जाने के लिए तैयार नहीं हैं. सभी जाति के लोग मुख्यमंत्री की कुर्सी पा चुके हैं, तो फिर एक आदिवासी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर क्यों नहीं बैठ सकता? हम बिहार को 70 प्रतिशत रॉयल्टी देते हैं. लालू प्रसाद बताएं कि वह कितनी रॉयल्टी देते हैं? जब 30 प्रतिशत रॉयल्टी देकर दूसरे लोग और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो 70 फीसदी रॉयल्टी देने वाले को क्यों मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता? अगर राजग हमारा प्रस्ताव मान ले, तो उसे भी समर्थन देने में हमें कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि झारखंड में सांप्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं है. भाजपा वाले भी आदमी हैं और हम किसी को अछूत नहीं मानते हैं.’
बातचीत खत्म हुई और मैंने तुरंत फोन कर रांची ऑफिस को बताया. बड़ी खबर थी. गुरुजी ने पहले कभी सीधे तौर बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की मांग रखी नहीं थी. खबर लिखते और भेजते काफी रात हो गयी. अगले दिन जब सारे अखबार बाजार में आये, तो प्रभात खबर इस खबर को लेकर सबसे अलग था.
समाज ने भी प्रभात खबर पर खूब भरोसा किया. जून 2003 का एक प्रसंग है. दुमका के सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय के संताली भाषा-साहित्य के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के आठवें पत्र में एक पुस्तक पढ़ाई जा रही थी- ‘छोटराय देशमाँझी रियाक् कथा’. इसमें सिदो-कान्हू की निंदा है. यह बात विश्वविद्यालय प्रशासन के संज्ञान में थी, फिर भी यह पुस्तक पढ़ाई जा रही थी. तब प्रभात खबर ने झारखंड के सभी संस्करणों के पहले पेज पर आठ कॉलम में लीड खबर छापी थी- ‘कारनामा एक विश्वविद्यालय का : सिदो-कान्हू लुच्चा और लंपट थे!’ खबर छपी, तो विश्वविद्यालय से लेकर सरकार तक में खलबली मची. अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री और अमित खरे शिक्षा सचिव थे. तुरंत जांच का आदेश हुआ और अंत: यह पुस्तक हटायी गयी.
प्रभात खबर ने संयम और सामाजिक दायित्वों को भी निभाया. अगस्त 2005 में दुमका में आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच हिंसा भड़की. इसी दौरान शहर के पोखरा चौक पर वीर सिदो-कान्हू की आदमकद प्रतिमाओं के टूटने की खबर आयी. प्रशासन के हाथ-पांव फूल गये. अगले दिन दुमका का साप्ताहिक हाट था, जिसमें सैकड़ों ग्रामीण आदिवासी शहर आते हैं. प्रशासन ने तय किया कि पोखरा चौक पर रातभर के लिए लोगों की आवाजाही रोक दी जाए और भोर होने से पहले सिदो-कान्हू की प्रतिमाओं को फिर से पहले की तरह खड़ा कर दिया जाए, मगर समस्या थी अखबारों को लेकर.
जाहिर था कि अगले दिन के अखबारों में घटना की खबर के साथ सिदो-कान्हू की टूटी प्रतिमाओं की तस्वीर भी छपेगी और उसके बाद जो प्रतिक्रिया होगी, उसका सहज कल्पना की जा सकती थी. टूटी प्रतिमाओं की तस्वीर हमारे पास भी थी. उपायुक्त अजय कुमार सिन्हा और एसपी रामकुमार मल्लिक ने एक रात की मोहलत मांगी और प्रभात खबर ने वह तस्वीर नहीं छापी. अगर वह तस्वीर छपती, तो तय था कि अखबार की हजार-पांच सौ प्रतियां ज्यादा बिकतीं. असम तक भेजी जातीं. सभाओं में लहरायी जातीं, जिसकी कीमत दुमका को चुकानी होती.
एक प्रसंग 2009 है, जब दुमका जिले में पहले चरण का विधानसभा चुनाव अंतिम चरण में हुआ. जिले के अंतर्गत आने वाली चार विधानसभा सीटों के लिए नामांकन-पत्र दाखिल करने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी और अब उनकी जांच चल रही थी. जांच के दौरान प्रशासन को अपनी भूल का एहसास हुआ. हुआ यूं कि हिंदी में जो फॉर्म उम्मीदवारों को भरने के लिए दिये गये थे, उनमें एक पन्ना छूट गया था. दोबारा नामांकन कराया नहीं जा सकता था. ऐसे में अपनी इस भूल को सुधारने के लिए प्रशासन ने सभी उम्मीदवारों को बुला कर उस पन्ने को भरवाना शुरू किया. यह गलत था. प्रभात खबर ने इस विषय को प्रमुखता से उठाया और आयोग ने दुमका जिले का चुनाव, जो पहले चरण में होने वाला था, उसे रद्द कर दिया. उस बार अंतिम चरण में दुमका में विधानसभा चुनाव हुआ था.
प्रभात खबर के हस्तक्षेप के बाद ‘बासुकिनाथ’ और ‘रानीश्वर’ की वर्तमान में प्रचालित वर्तनी स्वीकार हुई. दरअसल, 2005 तक ‘बासुकिनाथ’ में ‘की’ बड़ी मात्रा के साथ लिखा जाता था- ‘बासुकीनाथ’. बासुकिनाथ के रहने वाले संस्कृत और धर्मशास्त्र गहरे जानकार कन्हैयालाल ‘रसेस’ ने इस विषय प्रभात खबर के संज्ञान में लाया. प्रभात खबर ने इसे लेकर शब्द-अभियान चलाया. उन्हीं दिनों बासुकिनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार हो रहा था. मुख्य मंदिर मार्ग पर, जहां अभी नंदी चौक है, तोरणद्वार का निर्माण कराया जाना था और नंदीजी की बड़ी-सी मूर्ति स्थापित की जानी थी.
दुमका जिला प्रशासन इस अभियान से सहमत हुआ और मंदिर के मुख्य द्वार, तोरणद्वार और अन्य स्थानों पर ‘की’ की छोटी मात्रा के साथ ‘बासुकिनाथ’ लिखा गया और इस तरह बासुकिनाथ की यह वर्तनी स्थापित हो गयी. उसी प्रकार दुमका जिले का एक प्रखंड है रानीश्वर. दशकों से रानीश्वर को ‘रानेश्वर’ लिखा जा रहा था. अखबारों, सामान्य प्रशासनिक व लोक पत्राचार में यही वर्तनी प्रचलित थी. बंग भाषा रक्षा समिति के गौतम चटर्जी ने बांग्ला में लिखे कई सरकारी दस्तावेज के साथ प्रभात खबर के संज्ञान में इसे लाया. प्रभात खबर ने एक बार फिर शब्द अभियान चलाया और इस प्रखंड की वर्तनी ‘रानीश्वर’ हुई, जो अब प्रचलन में है.
(लेखक प्रभात खबर के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी हैं.)