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‘घर’ है प्रभात खबर और इसकी पत्रकारिता ‘संस्कार’

साल 2006 की बात है. देवघर के सारठ इलाके के खैरबनी गांव में सरिता नाम की एक बच्ची की मौत माल न्यूट्रीशन के कारण हो गयी थी. उसने कई दिनों से भरपेट खाना नहीं खाया था. इस कारण वह गंभीर तौर पर बीमार हो गयी और उम्र के पहले दशक में ही उसकी मौत हो गयी.

रवि प्रकाश

झारखंड की राज्यपाल रह चुकीं श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने की घोषणा की. झारखंड में सत्तासीन हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी उन्हें सपोर्ट किया. श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति निर्वाचित हुईं. अगले दिन के प्रभात खबर में यह खबर जैकेट लीड बनी. यही अखबार का संस्कार होता है. उसका चरित्र होता है.

साल 2006 की बात है. देवघर के सारठ इलाके के खैरबनी गांव में सरिता नाम की एक बच्ची की मौत माल न्यूट्रीशन के कारण हो गयी थी. उसने कई दिनों से भरपेट खाना नहीं खाया था. इस कारण वह गंभीर तौर पर बीमार हो गयी और उम्र के पहले दशक में ही उसकी मौत हो गयी. प्रशासन यह मानने को तैयार नहीं था और सच यह था कि उसकी मौत की वजह भूख है. तब उसके घर में खाना बनाने के लिए अन्न था ही नहीं. मैंने सारी स्थितियों की पड़ताल करायी और हमारे साथी पत्रकारों की इन्वेस्टिगेशन में साफ हुआ कि मौत की वजह भूख ही है.

हमलोगों ने यह बात तबके प्रधान संपादक हरिवंश जी (संप्रति-उपसभापति, राज्यसभा) को बतायी. उन्होंने सारी बातें सुनीं. हमारे प्रमाणों और उस बच्ची के घर और गांव वालों से हमारी बातचीत का ब्योरा जाना. हमें आजादी दी और कहा कि आपके पास जो प्रमाण हैं, खबर वही छपेगी. प्रशासन का पक्ष भी छापेंगे. अगले दिन प्रभात खबर के पहले पन्ने की लीड थी–‘भूख से मर गई खैरबनी की सरिता’. तब प्रशासनिक अधिकारी सिर्फ यह कहते रहे कि उसकी मौत की वजह भूख नहीं है लेकिन उनके पास अपने दावे का कोई प्रमाण नहीं था. उन्होंने न तो हमारी खबर का खंडन किया और न उसकी पुष्टि की.

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जिस दिन खबर छपी, मैं अपने साथी पत्रकारों के साथ उस गांव में था. मधुपुर से कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी वहां आए, लेकिन हमारे पहुंचने के बाद. सबने अपनी-अपनी पड़ताल की. हमने अपनी, उन्होंने अपनी. यह बात साफ हुई कि सरिता के घर में खाने का अनाज नहीं था. फिर उसके घरवालों को अनाज दिया गया. उन्हें कुछ योजनाओं से जोड़ा गया. गांव में हेल्थ कैंप लगा. कई और गतिविधियां चलती रहीं. हम अपनी खबर पर कायम रहे और प्रशासन अपने दावे करता रहा.

हमारे संवाददाता तब रोज उस गांव का दौरा करने लगे. एक-दो दिन बाद पता चला कि उसी टोले के बहादुर मांझी की हालत भी खराब है. उन्हें पर्याप्त खाना नहीं मिल पा रहा है. गांव के लोग उन्हें लेकर देवघर सदर अस्पताल आये. हालत बहुत खराब थी. तब वहां पदस्थापित मेरे एक दोस्त और अस्पताल के वरिष्ठतम अधिकारियों में से एक ने मुझसे कहा कि इन्हें बचा पाना मुश्किल है, इनके पास जिंदगी के बमुश्किल 10-12 घंटे बचे हैं. अगले दिन प्रभात खबर की लीड थी- ‘ये बहादुर मांझी हैं, इनकी जिंदगी की दुआ कीजिए’.

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तब अर्जुन मुंडा झारखंड के मुख्यमंत्री थे और मैं प्रभात खबर के देवघर संस्करण का स्थानीय संपादक और ऐसी रही है प्रभात खबर की पत्रकारिता. प्रभात खबर में हमारे काम के दिनों के ऐसे कई उदाहरण हैं. बाद के सालों में हरिवंश जी राज्यसभा चले गये. उन्होंने संपादकी छोड़ी. आशुतोष चतुर्वेदी अखबार के प्रधान संपादक बने. संपादकीय की ज्यादातर टीम पुरानी ही रही. फिर पिछले साल देश में राष्ट्रपति चुनाव का वक्त आया. झारखंड की राज्यपाल रह चुकीं श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने की घोषणा की.

झारखंड में सत्तासीन हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी उन्हें सपोर्ट किया. श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति निर्वाचित हुईं. अगले दिन के प्रभात खबर में यह खबर जैकेट लीड बनी. यही अखबार का संस्कार होता है. उसका चरित्र होता है. ऐसे कई अवसर निकलेंगे, ऐसी कई खबरें याद आयेंगी, ऐसे कई उदाहरणों का जिक्र होगा, जब प्रभात खबर की पत्रकारिता ने रांची जैसे क्षेत्रीय शहर से हिंदी की पत्रकारिता करते हुए भी पूरे देश की मीडिया को प्रभावित किया. दक्षिण के राज्यों की गैर हिंदी भाषी मीडिया में भी प्रभात खबर के उदाहरण दिये जाते रहे. इसी वजह से मैं और मुझ जैसे हजारों पत्रकार और पाठक प्रभात खबर की पत्रकारिता को ‘संस्कार’ मानते हैं.

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मुझे गौरव है कि मैं कभी इस अखबार का हिस्सा रहा. या यूं कहें, यहां काम करते हुए जो सीख सका, उसकी बदौलत आज भी मेरा घर चलता है. प्रभात खबर में काम करना हमारे लिए सौभाग्य और गौरव की बात रही है. मुझे नहीं पता कि हरिवंश जी ने मुझमें क्या देखकर मुझे मोतिहारी से रांची बुला लिया और अब शायद इसी शहर में मेरी अंतिम यात्रा निकलेगी. पिछले ढाई साल से कैंसर के अंतिम स्टेज से लड़ते हुए मुझे हर बार प्रभात खबर में अपना ‘घर’ दिखता है. अनुज कुमार सिन्हा, विजय पाठक, संजय मिश्र, जीवेश रंजन सिंह, विनय भूषण जैसे भाइयों से साहस मिलता है. मदन जी की चाय याद आती है. यहां शब्द सीमा के कारण जिन दोस्तों का नाम नहीं लिख सका, वे माफ करेंगे. आप सब मेरी ताकत हैं, हिम्मत हैं. श्रद्धेय हैं.

और सबसे खास बात यह कि मौजूदा दौर की खलनायकी पत्रकारिता में प्रभात खबर का नायकत्व याद आता है. प्रभात खबर के सभी साथियों और इसके पाठकों को अखबार के 40वें साल की शुभकामनाएं और अशेष बधाई. जोहार. प्रणाम. आदाब. सत श्री अकाल.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, फिलहाल बीबीसी से जुड़े हैं.)

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