Prabhat Khabar Special: किसी भी सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही होता है. नदियों को धरती की धमनी कहा जाता है. धरती की धमनियों में बहने वाले पानी का प्रवाह रुक जाये, तो नदियां मर जाती हैं. पानी न मिले, तो इंसान का भी जीवन दूभर हो जायेगा. आज झारखंड समेत देश के बड़े हिस्से में लोग प्रदूषित पानी पी रहे हैं. इसकी वजह से कई तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं. इसलिए जरूरी है कि नदियों को संरक्षित किया जाये. जल संसाधनों को संपदा मानकर उसका संरक्षण किया जाये.
ये कहना है पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ देबू मुखर्जी का. उनका कहना है कि नगर से निकलने वाले कूड़े के अलावा कृषि अपशिष्ट से भी प्रदूषण फैलता है. अधिक उपज की लालच में खेती-बाड़ी में कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल होने लगा है. बीएचसी, डीडीटी, मैलाथियोन एल्ड्रिन न केवल जहरीला है, बल्कि प्रतिबंधित भी है. फिर भी किसान इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि ज्याद उत्पादन हो और उससे उनकी कमाई कुछ बढ़ जाये. अगर जल्द ही इस पर रोक नहीं लगी, तो मानव जाति को बड़े पैमाने पर नुकसान होगा, इसमें कोई शक नहीं.
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डॉ मुखर्जी कहते हैं कि अत्यधिक आबादी और तेजी से हो रहे शहरीकरण की वजह से भी नदियों को काफी नुकसान पहुंच रहा है. नदी के आसपास बस्तियां बस रही हैं. नदी किनारे लोग मल-मूत्र का त्याग करते हैं. अगर घर में शौचालय बन गया है, तो उसके पाइप को सीधे नदी से जोड़ दिया जाता है, जिससे मल-मूत्र नदियों में पहुंचते हैं और नदी के पवित्र जल को दूषित कर देते हैं.
उन्होंने कहा कि प्लास्टिक का धड़ल्ले से इन दिनों इस्तेमाल हो रहा है. कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक भी किसी न किसी रूप में बहकर नदियों में पहुंच जाते हैं. ये प्लास्टिक नदी की तलहटी में बैठ जाते हैं. इसकी वजह से नदी के डीकम्पोजर का गुण नष्ट हो जाता है. उन्होंने कहा कि नदियों में मौजूद केंचुआ, घोंघा, जोंक व अन्य जीव-जंतु पानी में मौजूद नुकसानदायक तत्वों का शोधन करके जल को स्वच्छ बनाते हैं. लेकिन, प्लास्टिक की वजह से पानी का ऑक्सीजेनेशन बंद हो जाता है. फलस्वरूप नदी के नीचे मिट्टी में बसने वाले जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाता है.
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डॉ देबू मुखर्जी कहते हैं कि डी-ऑक्सीजेनेशन (ऑक्सीजन बनना बंद होने लगता है) की वजह से पानी का रंग नीला की जगह भूरा हो जाता है. ऐसे पानी में मछली के उत्पादन में कमी आने लगती है. प्लास्टिक और कीटनाशकों के इस्तेमाल की वजह से पानी में मौजूद जीव-जंतु मर जाते हैं, क्योंकि मिट्टी से इनका संपर्क खत्म हो जाता है. खेतों में डाले गये कीटाणुनाशक नालों के जरिये नदी में पहुंचते हैं और पानी में घुल जाते हैं. यही पानी इंसान के घरों तक पहुंचता है, जो बेहद खतरनाक होता है.
नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर धोबीघाट बना लिये जाते हैं. कपड़ों को धोने के लिए साबुन और सर्फ का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है. साबुन में मौजूद फॉस्फेट की वजह से पानी में कई तरह के हानिकारक जीव उत्पन्न होते हैं और इसकी वजह से यूट्रोफिकेशन (Eutrophication) होता है, जिसकी वजह से पानी प्रदूषित हो जाता है. इन सब चीजों से नदियों को बचाना होगा. जलस्रोतों के पास ऐसी कोई भी गतिविधि नहीं होनी चाहिए.
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डॉ देबू मुखर्जी ने कहते हैं कि राजीव गांधी के कार्यकाल में गंगा एक्शन प्लान और यमुना एक्शन प्लान तैयार हुआ था. वर्तमान केंद्र सरकार नदी संरक्षण पर काम कर रही है. लेकिन, राज्यों की सरकारें इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठा रहीं. अगर नदियों का उचित संरक्षण नहीं किया गया, तो जैव विविधता पर विपरीत असर पड़ेगा. इसलिए सरकारों को नदियों और उसकी शाखा-प्रशाखाओं को बचाने के लिए काम करना होगा.
उन्होंने कहा कि अगर नदियों पर बढ़ रहे दबाव को समय रहते कम नहीं किया गया, तो न तो पीने का पानी मिल पायेगा, न ही सिंचाई की सुविधा मिलेगी. इसलिए राज्य के साथ-साथ जिला और प्रखंड स्तर पर भी नदियों के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करना होगा. सरकारों को रणनीति बनानी होगी. सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ आम लोगों को भी जागरूक करना होगा.
डॉ देबू मुखर्जी ने कहा कि सड़क निर्माण की वजह से झारखंड के सबसे बड़े तिलैया डैम की स्थिति आज नाजुक हो गयी है. इसके आसपास के हजारों पेड़ काट दिये गये. पतरातू डैम की तरह तिलैया डैम को भी पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता था. यहां बड़े पैमाने पर मछली का पालन होता है. लेकिन, सरकारी उदासीनता की वजह से राज्य की बड़ी जल संपदा को बहुत ज्यादा नुकसान हो चुका है.
डॉ मुखर्जी ने कहा कि नदी किनारे लोग गाड़ियां धोने लगे हैं. परमाणु कचरा, रेडियो एक्टिव वेस्ट, यूरेनियम, एटॉमिक कचरा और थोरियम कचरा जैसे हानिकारक तत्वों की वजह से भी जलस्रोत को नुकसान हो रहा है. ये ऐसे तत्व हैं, जिनको नष्ट होने में 40 से 50 साल लग जाते हैं. प्लास्टिक कचरा तो 1,000 साल तक नष्ट नहीं होता. ऐसे हानिकारक तत्वों को पानी में डालने से बचना होगा. अगर हम अभी सावधान नहीं हुए, तो आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी. हमें जलसंसाधन को बचाने का संकल्प लेना ही होगा.