Exclusive: जनता की गाढ़ी कमाई से चलता है सदन, बीपी बढ़ता है अनावश्यक बाधित होने से: रबींद्रनाथ महतो
यहां प्रजातांत्रिक व्यवस्था है. अध्यक्ष के रूप में जितना कर पाया, आज आपके सामने है. देश में कई प्रांत हैं. उनके विधानसभा के कार्यों को हमने देखा है. आपको भी जानकारी है. झारखंड में विधानसभा की उत्पादकता दूसरे राज्यों से कम नहीं है.
प्रभात खबर संवाद कार्यक्रम में झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो शामिल हुए. प्रभात खबर कार्यालय में बुधवार को आयोजित संवाद कार्यक्रम में स्पीकर श्री महतो ने संसदीय व्यवस्था से लेकर झारखंड विधानसभा के कामकाज पर अपनी बातें रखी. स्पीकर ने विधायी कार्यों की बारीकियों को समझाने का प्रयास किया़ विधायिका व कार्यपालिका के समन्वय पर बात हुई़ स्पीकर ने आजादी की लड़ाई में झारखंडियों के शहादत-संघर्ष और इतिहासकारों की उपेक्षा पर बेबाकी से बात रखी.
आप स्पीकर के रूप में तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं. क्या अनुभव रहा़ अपनी भूमिका से आप कितने संतुष्ट हैं?
यहां प्रजातांत्रिक व्यवस्था है. अध्यक्ष के रूप में जितना कर पाया, आज आपके सामने है. देश में कई प्रांत हैं. उनके विधानसभा के कार्यों को हमने देखा है. आपको भी जानकारी है. झारखंड में विधानसभा की उत्पादकता दूसरे राज्यों से कम नहीं है. विधानसभा के अंदर संचालन में कई बार व्यवधान होता है. लेकिन, उस हद तक नहीं गया है, जितना दूसरे कई राज्यों में हुआ है. हमें माननीय सदस्यों के आचरण के कारण कभी-कभी बहुत धैर्य रखना पड़ता है. मैं जानता हूं कि यहां अलग-अलग विचारधारा के लोग आते हैं. उनकी नीति, फिलॉसफी, लॉजिक अलग-अलग है. लेकिन तमाम विचारों को देखते हुए ही सदन का संचालन करना पड़ता है.
हाल के दिनों में लोक संस्थाओं का स्तर गिरा है़ क्या विधानसभा अपनी मर्यादा के अनुरूप काम कर रही है़, बतौर स्पीकर आप विधानसभा के कामकाज से संतुष्ट हैं?
बिल्कुल कामकाज से संतुष्ट हैं. सदन में कई सदस्य हैं, जिनका संसदीय जीवन काफी लंबा रहा है. अनुभवी भी हैं. अब सदन में इस तरह का कोई काम नहीं हुआ जो संसदीय परंपरा से अलग है. हमेशा कोशिश होती है कि सदन के हरेक सदस्य आसन से खुश रहे.
झारखंड विधानसभा लगातार बाधित होती रही है, पक्ष-विपक्ष के हो-हल्ला हंगामा में जनता के सवाल छूट जाते हैं, आप इसको किस रूप में लेते हैं, विधानसभा को व्यवस्थित करने में कितने सफल रहे हैं?
विधानसभा की कार्यवाही पर जनता की नजर रहती है. सदन बाधित करना अच्छी परिपाटी नहीं है. अगर सदस्यों का मुद्दा है, तो इसको रखने के कई तरीके हैं. सदस्य अगर संतुष्ट नहीं हैं, तो विरोध भी कर सकते हैं. ऐसा हो भी रहा है. ऐसा नहीं है, तो सदन का स्तर गिरा है. कई कामकाज हुए हैं. सदस्य संसदीय परंपरा को लेकर गंभीर भी रहते हैं. यहीं कारण है कि शून्य काल के सवाल के लिए सदस्य सुबह पांच बजे खुद सवाल डालने आते हैं. ऐसा कई अवसर है, जहां पक्ष-विपक्ष के सदस्य इसका भरपूर अवसर लेते हैं.
सदन को कितनी गंभीरता से अफसर लेते हैं, सत्र के दौरान कई बार पक्ष-विपक्ष दोनों के विधायकों ने मामला उठाया है कि अधिकारी सदन की कार्यवाही में नहीं पहुंचते़, यह कार्य संस्कृति कैसे सुधरेगी?
अधिकारी की बाध्यता है कि उनको गंभीर होना ही है. अगर इसको कोई हल्का करते हैं, तो सदन से और सरकार से आलोचना-समालोचना होती रही है. कई अधिकारी गंभीरता से लेते हैं. वह हमेशा मौजूद रहते हैं.
राज्य के अधिकारियोंं पर चलते सत्र के दौरान तथ्यपरक जवाब नहीं देने का आरोप लगता है. कई बार विभागों से गलत जवाब आते हैं, इसको आपने भी गंभीरता से लिया, कई बार नियमन दिया है, अब तक कितने अधिकारियों पर कार्रवाई हुई है?
जिस माननीय का सवाल आता है, उसको सदन के माध्यम से संतुष्ट करने की कोशिश होती है. अगर सदस्य संतुष्ट नहीं हो तो वे आसन के माध्यम से सवाल का सही जवाब प्राप्त कर सकते हैं. हमेशा कोशिश होती है कि आसन सदस्यों को सरकार या अधिकारी के जवाब से संतुष्ट करे. प्रथम दृष्टया यह बात सही है.
विधानसभा अध्यक्ष होने के बाद आप अपने क्षेत्र या अन्य समस्या सदन में नहीं रख पाते हैं. यह कितना खलता है ?
देखिए, आप सही बात बोल रहे हैं. जब हम एमएलए थे, उस वक्त आर्डर पेपर (सदन की कार्यवाही का रिपोर्ट) में नाम नहीं होने से काफी दुख होता था. लगता था कि बेकार आये हैं. सवाल पीछे रहने पर भी दुख होता था. सवाल अगर एक-नंबर दो नंबर में हो और सदन में हंगामा हो जाता था, तो भी काफी दुख होता था. आज अध्यक्ष होने के कारण हम सवाल नहीं रख पाते हैं. नेता प्रतिपक्ष, नेता सदन भी नहीं रख पाते हैं. हम लोगों को तकलीफ होती है. संबंधित विभाग के अधिकारियों को पत्र लिखना पड़ता है. अगर सामान्य तरह की समस्या हो, तो विधायकों से सवाल उठाने का आग्रह करते हैं.
विपक्ष कई बार तो आप पर भी आरोप लगा देता है कि आप पक्षपात करते हैं, उनकी बातें सुनी नहीं जाती ?
यह सामान्य बात है. अति सामान्य बात है. स्पीकर तो किसी दल के ही होते हैं. यह कहना आसान होता है कि, आप पक्षपात कर रहे हैं. लेकिन जब आप आसन पर रहते हैं. अगर ऐसा विषय आ जाता है, जब निर्णय लेना होता है, तो काफी सोचना पड़ता है. ऐसा कोई नहीं चाहेगा कि किसी का अपयश लगे.
विधानसभा में कई बार आपने कहा है कि मैं बीपी की दवा खाकर आया हूं, हल्ला करते रहिए, मैं कुछ नहीं बोलूंगा़ स्पीकर की कुर्सी और सदन के हो-हल्ला ने आपको बीपी का मरीज बना दिया क्या?
नहीं, ऐसा नहीं है. हां बीपी की दवा हम लेते हैं. जब अनावश्यक रूप से कोई विषय सदन में उठता है, तो बीपी बढ़ना लाजिमी है. जब किसी विशेष कारण से सदन नहीं चल पाता है, तो काफी दुख होता है. क्योंकि सदन जनता की गाढ़ी कमाई से चलता है. कई बार सदन में किसी व्यक्ति विशेष की समस्या को लेकर बाधित हो जाता है, इस वक्त काफी तकलीफ होती है. एक दल अगर बाधित करने की कोशिश करता है, तो तकलीफ होती है. कई बार सदन छोड़ कर निकलना पड़ता है. लेकिन, प्रजातांत्रिक व्यवस्था में यही सेटअप है. यह सरल नहीं है. काफी जटिल है.
दल-बदल के कई मामले में आपके न्यायाधिकरण में चल रहे हैं. आप लगातार सुनवाई कर रहे हैं, तीन वर्ष गुजर गये, कब तक फैसला आयेगा?
आपने देखा होगा कि मेरा शुरू से प्रयास है कि मामला जल्द निबटे. इससे पहले भी 10वीं सूची का मामला आया है. आप बेहतर जानते हैं कि पहले क्या हुआ था. मैं जब आया तो भी दलबदल का मामला आया. वह चल रहा है. मेरा प्रयास ही केवल असरदार नहीं हो सकता है. मैं चाहता हूं कि जल्दी निबटे. सबकुछ कानूनी प्रक्रिया के तहत होती है. इसका पालन करने से देर होती है.
बाबूलाल मरांडी को आपने प्रतिपक्ष के नेता के रूप में मान्यता नहीं दी है, विपक्ष का आरोप है कि सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं?
इस आरोप में कितनी सत्यता है, आप ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं. मेरी कोई आपत्ति नहीं है. नियम है कि जो संख्या में ज्यादा है वह सदन का नेता बनते हैं. जिनकी संख्या कम होती है, तो वह नेता प्रतिपक्ष बनते हैं. यही परंपरा है. जब व्यवस्था इतर हो जाती है, कानून के दायरे में आ जाती है, तो विचार करना पड़ता है. इस दौरान जिनको जो बोलना होता है. बोलते हैं. इसे सुनना पड़ता है.
बाबूलाल मरांडी के मामले में आपने फैसला सुरक्षित रखा है. कब तक फैसला आ जायेगा? क्या चालू सदन में वह नेता प्रतिपक्ष बन पायेंगे?
इसकी भविष्यवाणी तो मैं नहीं कर सकता हूं. यह बता सकता हूं जो नियम संगत और कानून संगत होगा, वह होकर रहेगा.
रबींद्रनाथ महतो जी, स्पीकर के रूप में ही संतुष्ट हैं या मंत्री होते तो ज्यादा काम करने का मौका मिलता ?
देखिए, हम लोगों के अंदर में काम करने का क्या दक्षता है, यह विषय संबंधित दल के नेता बेहतर समझते हैं. उनको पता है कि कौन खिलाड़ी कहां खेल सकता है. हम लोग तो आदेश वाहक हैं. हम तो चाहते हैं कि बेहतर सेवा दे. बस यही इच्छा होती है कि एक व्यक्ति के कारण दल का अपयश नहीं हो.
विधानसभा की समितियां कितना कारगर काम कर रही हैं, इन कमेटियों की अनुशंसा पर कार्रवाई नहीं होती, आप क्या कहेंगे
विधानसभा की समिति को दूसरे शब्दों में कहें तो यह मिनी कैबिनेट होती है. समिति के पास जो भी विषय आते हैं, उस पर काम करते हैं और अपनी अनुशंसा सरकार के पास भेजते हैं. अब इस पर सरकार को निर्णय लेना होता है. सरकार अपने हिसाब व ढंग से चलती है. यह भी देखा जाता है कि विधानसभा समिति की अनुशंसा मानना कितना नियमानुकूल है. हालांकि विधानसभा समिति की अधिकांश अनुशंसा सरकार की ओर मान ली जाती है.
विधानसभा को पूरी तरह डिजिटलाइजेशन करने की बात कही गयी थी, सवाल और विभागों से आनेवाले जवाबों को ऑनलाइन करना था, कितना पेपरलेस हो पाया है विधानसभा का कामकाज
यह सिर्फ झारखंड विधानसभा का प्रयास नहीं है. देश की सभी विधानसभा को डिजिटलाइज करने का निर्णय लिया गया है. कुछ विधानसभा में काम पूरा भी हो चुका है. कई विधानसभा में काम जारी है. मुझे पूरा विश्वास है कि हम भी सफल होंगे. डिजिटलाइजेशन के इस दौर में हमें तैयार रहने की जरूरत है, नहीं तो हम कितना पीछे छूट जायेंगे. इसका अंदेशा भी नहीं लगाया जा सकता है.
हाल के दिनों में यह देखने को मिल रहा है कि विधानसभा से विधेयक पारित होने के बाद छोटी-छोटी गलतियां रह जा रही हैं. इसकी वजह से राजभवन इसे बार-बार लौटा रहा है. इसको आप कैसे देखते हैं
इसको हमने काफी गंभीरता से लिया है. पिछली बार रघुनाथ मुर्मू विश्वविद्यालय का विधेयक विधानसभा से पास कर राजभवन के पास भेजा. इसमें अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करने के क्रम में कुछ त्रुटि थी. इस वजह से राजभवन से इस विधेयक को लौटा दिया गया. ऐसा होने पर फिर से पुरानी प्रक्रिया का पालन कर इसे विधानसभा के पटल पर लाना पड़ा. इसको लेकर मैंने संबंधित विभाग के अधिकारियों की बैठक बुलायी थी. इसमें स्पष्ट कहा गया कि यह गलती फिर से नहीं दोहरायी जाये.
इन तीन वर्षों में आपने विधानसभा की कार्यवाही के दौरान कब खुद को सबसे असहज माना, ऐसा कोई वाक्या, जब आप विधायकों के आचरण से दुखी हुए.
इसको हमलोगों ने आत्मसात कर लिया है. जब आसन में बैठते हैं, तो देखने को मिलता है कि कई विधायक बोलने के क्रम में आक्रामक हो जाते हैं. इस क्रम में कुछ बोल बैठते हैं. हमलोगों ने इसको सहने की आदत बना रखी है. हां कई बार हिदायत दी जाती है. विधानसभा की कार्यवाही से असंसदीय शब्द को हटा दिया जाता है. हमने इसको आत्मसात करने की आदत बना रखी है, ताकि काम बाधित नहीं हो.
एक दर्जन से ज्यादा नये जनप्रतिनिधि वर्तमान सदन में पहुंचे हैं, इनके प्रदर्शन का आप किस तरह आकलन करते हैं.
देखिए, कई विधायक विधायी परंपरा को सोचने समझने का प्रयास करते हैं. वह चाहते हैं कि जैसे पुराने सदस्य तथ्य रखते हैं, वैसे ही वह भी अपनी बात रखें. मेरी नजर में कई महिला व पुरुष विधायक वर्तमान विधानसभा में मौजूद हैं.
आपकी नजर में सबसे अनुशासित, स्तरीय बहस और तथ्यों को रखने वाले कोई एक विधायक, जिसको आप सबसे अधिक मार्क्स देंगे.
अभी झारखंड विधानसभा का स्थापना दिवस होनेवाला है. इसमें हमलोग इस वर्ष का एक सर्वश्रेष्ठ विधायक चुनेंगे. हालांकि यह भी सच्चाई है कि सारे विधायक विधायी कार्यों में रूचि रखते हैं और जानकारी हासिल करने का प्रयास करते हैं.
विधायकों को विधायी कार्योें के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता आप महसूस करते हैं क्या ?
बिल्कुल विधायकों को विधायी कार्यों के लिए प्रशिक्षण देने की जरूरत है. नये विधायकों को संसदीय व्यवहार को जानने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है. ऐसा कर ही वह जान पायेंगे कि कैसे विषयों को प्लेटफॉर्म पर रखना है.
सरकार ने 1932 के खतियान को स्थानीयता की पहचान का आधार माना है. इस फैसले को आप किस रूप में लेते हैं. झारखंडियों को कितना हक मिल पायेगा.
काहे हमको उस ओर ले जा रहे हैं. यह सरकार का विषय है. हम विधानसभा के अध्यक्ष हैं. यह सरकार का पार्ट है, मेरा नहीं. सरकार को राज्यहित में निर्णय लेना है.
कुड़मी जाति के लोग एसटी का दर्जा मांग रहे है़ं कई राज्यों में आंदोलन भी चल रहा है. इस विषय पर आपकी क्या राय है.
इसमें भी मेरा जवाब नहीं देना बेहतर होगा. आंदोलन करना सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है. लोग आंदोलन के माध्यम से अपनी बातों को रखते हैं. निर्णय तो कुर्सी पर बैठे लोगों को लेना है.
आपकी लिखने-पढ़ने में काफी रुचि रही है. कई पुस्तक भी आपने लिखी. अब आगे की क्या योजना है.
यह सही है कि मेरी लिखने-पढ़ने की रूचि है. मैं इकोनॉमी ऑफ झारखंड के विषय पर लिखना चाहता हूं, लेकिन अभी समय नहीं मिल पा रहा है. खास कर गृहस्थी व गृहस्थली. ग्रामीण परिवेश में क्या होता है, हम लोग इसे समझ नहीं पाते हैं. अगर हम गृहस्थी व गृहस्थली को बेहतर बना ले, तो मैं नहीं समझता हूं कि एक साधारण व्यक्ति को बाहर जाने जरूरत पड़ेगी.
आमतौर पर देखने को मिल रहा है कि विधानसभा का सत्र काफी छोटा हो रहा है. क्या इसे बढ़ाने का कोई प्रयास हो रहा है ?
सत्र की अवधि तय करने का अधिकार विधानसभा अध्यक्ष के पास नहीं होता है. सदन कितने दिन का होगा यह कैबिनेट तय करता है. इसके बाद यह राजभवन जाता है. विधानसभा अध्यक्ष सिर्फ मुद्दे पर अपनी सलाह ही दे सकते हैं. लेकिन एक बात बता देना चाहता हूं कि पहली पाली में भले ही सत्र बाधित हुआ, लेकिन द्वितीय पाली की चर्चा में पक्ष-विपक्ष ने खुल कर भाग लिया. कई बार तो सदन की कार्यवाही को दो से तीन घंटों तक बढ़ायी गयी. अगर आप देखेंगे तो झारखंड विधानसभा की उत्पादकता किसी भी दूसरे विधानसभा से कम नहीं हुई है.
आपने अपने राजनीतिक जीवन में पार्टी के भीतर शिबू सोरेन व हेमंत सोरेन के युग को देखा है. दोनों में क्या अंतर पाते हैं.
देखिए, अभी इसे दो युग में बांटने की जरूरत नहीं है. अभी भी शिबू सोरेन का ही युग चल रहा है. यह ठीक है कि गुरुजी पहले जैसा घूम-फिर नहीं पा रहे हैं, वह अलग बात है. लेकिन मूल ज्ञान, समझ व आदेश वहीं से आता है. गुरुजी के मार्गदर्शन से झारखंड चल रहा है.
विधानसभा में दूसरी बार युवा छात्र संसद का आयोजन किया जा रहा है. आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे
हमने प्रयास किया है कि जो छात्र विधानसभा की कार्यवाही देखना व सुनना चाहते हैं, उन्हें मौका मिले. हां, कोरोना काल में जरूर इस पर प्रतिबंध लगा. इसके बाद जब भी किसी छात्र की ओर से आग्रह आया, तो उन्हें दर्शक दीर्घा या अध्यक्षीय दीर्घा में स्थान दिलाया गया.
क्या अब 10वीं अनुसूची के प्रावधानों में भी संशोधन की जरूरत है ? आपको क्या लगता है.
इस पर मैं अपनी निजी बात रखना चाहता हूं. विधानसभा अध्यक्ष के तौर नहीं. जहां तक मेरा मानना है कि 10वीं अनुसूची विधानसभा अध्यक्ष के न्यायाधिकरण में रहना ही नहीं चाहिए. इसके लिए अलग से न्यायालय की जरूरत है, जो इन विषयों को देखे. पिछली बार मैंने विधानसभा अध्यक्ष के स्वत: संज्ञान लेने के अधिकार को हटा दिया. देखिए विधानसभा अध्यक्ष को स्वत: संज्ञान लेने के अधिकार को लेकर पूरे देश के लोगों में मर्मरिंग थी.
क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष किसी दल से संबद्ध होते हैं, संज्ञान लेने के क्रम में कही वे दलीय हिंसा की परिधि में तो नहीं आ जा रहे हैं. इस तरह का विचार पक्ष-विपक्ष में मन में आता है. ऐसे में मैंने विचार कर विधानसभा अध्यक्ष के स्वत: संज्ञान लेने के अधिकार को समाप्त कर दिया. आसन इस जोखिम को क्यों स्वीकार करेगा. अगर कोई लिखित शिकायत करता है, तो उस पर विचार किया जायेगा.
आप भी झारखंड आंदोलन की उपज रहे हैं. कोई ऐसी घटना जो आज भी रोमांचित करती हो.
जब अलग झारखंड राज्य का आंदोलन शुरू हुआ तो इसका नेतृत्व गुरु जी (शिबू सोरेन) ने किया. वे यहां के लोगों को लेकर आगे बढ़े. इनका स्पष्ट मानना था कि जब तक बिहार की अर्थव्यवस्था से यहां की अर्थव्यवस्था अलग नहीं होगी. तब तक हम छोटानागपुर की तंगहाली व बदहाली को नहीं दूर कर पायेंगे. इनके भाषण से हमलोग प्रभावित हुए. यही हमलोगों के जीवन का टर्निंग प्लाइंट था.
क्या आप महसूस करते हैं कि झारखंड के इतिहास को संग्रहित करने के लिए एक आर्काइव होना चाहिए. अगर हां तो क्या इसे लेकर विधानसभा कोई पहल करेगी?
हां, मैं भी मानता हूं कि इसको लेकर एक आर्काइव होना चाहिए. संताल परगना में सिदो-कान्हू का आंदोलन हुआ था. इसे संताल विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है. जब हम लोग अपने क्षेत्र से एकीकृत बिहार में राजधानी पटना जाते थे, तो दूर-दूर तक सिदो-कान्हू, चांद भैरव का इतिहास देखने को नहीं मिलता था. हिंदी की किताब में भी इसकी जानकारी नहीं मिलती थी. लेकिन हम जैसे ही राइटर्स बिल्डिंग की ओर आगे बढ़ेंगे, तो वहां पर हमें सिदो-कान्हू व चांद भैरव का इतिहास देखने को मिलता है.
राइटर्स बिल्डिंग में इनके आंदोलन की बहुत सारी कथा अंकित है. बहुत सारे बांग्ला साहित्यकारों ने भी इस विषय पर नाटक व यात्रा का मंचन किया है. इतिहास में स्थान देने का काम किया है. आपने देखा होगा कि पिछले दिनों विधानसभा में स्वतंत्रता आंदोलन के भूले-बिसरे इतिहासकार को लेकर लिखने का कार्यक्रम शुरू किया गया. मैं इस बात से सहमत हूं कि हमारे इतिहास की जानकारी अगर देश के कहीं कोने में हो, यहां तक की ब्रिटिश की लाइब्रेरी में हो तो उस पर आकलन करने की जरूरत है.
क्या बोले स्पीकर
कई बार सदन किसी व्यक्ति विशेष की समस्या को लेकर बाधित हो जाता है, उस वक्त मुझे काफी तकलीफ होती है.
विधानसभा के अंदर संचालन में कई बार व्यवधान होता है. लेकिन, उस हद तक नहीं गया है, जितना दूसरे कई राज्यों में हुआ है.
हमेशा कोशिश होती है कि सदन का हर सदस्य आसन से खुश रहे.
नये विधायकों को संसदीय व्यवहार जानने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है
विधानसभा में नियुक्ति व प्रोन्नति घोटाले हुए, जिस विधानसभा को भ्रष्टाचार रोकने, पारदर्शी शासन व्यवस्था बनाने, शासन को उत्तरदायी बनाने के लिए काम करना था, वह खुद दागदार हो गयी, क्या कहेंगे.
यह विषय सबके सामने है. पिछले दिनों में विधानसभा में इस प्रकार की घटना हुई. इसको लेकर दो न्यायिक कमेटी का गठन भी हुआ था. इसकी रिपोर्ट भी आ चुकी है. फिर से एक न्यायिक आयोग की अनुशंसा कर भेजा गया है. इसमें अगर सच्चाई है, तो सच सामने आयेगा. अगर गलत हुआ तो उस पर कार्रवाई होगी.