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झारखंड के सौंदर्य से मोहित थे कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर, यहीं पर की थी ‘एकला चोलो रे…’ की रचना

Rabindranath Tagore Birthday|रवींद्रनाथ टैगोर कभी रांची नहीं आये, लेकिन गिरिडीह बार-बार आते थे. यहां वह किसी के अतिथि बनकर रहते थे. कविगुरु की अध्यक्षता में कई साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन होते थे. गिरिडीह प्रवास के दौरान आचार्य जगदीश चंद्र बोस से भी उनकी मुलाकात हुआ करती थी.

Rabindranath Tagore Birthday: कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर (Kavi Guru Rabindranath Tagore Jayanti) को झारखंड की हरी-भरी वादियां और यहां का वातावरण बहुत आकर्षित करता था. यहां की खूबसूरती के वे कायल थे. रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं में भी यह परिलक्षित होता है. कविगुरु ने कई कालजयी रचनाएं इसी इलाके में कीं. इसमें ‘एकला चलो रे…’ (Ekla Chalo Re…) की रचना भी शामिल है. ‘तोर डाक सोने यदि केओ ना आसे, तोबे एकला चोलो रे…’ की रचना उन्होंने गिरिडीह में की थी.

गिरिडीह में आचार्य जगदीश चंद्र बोस से होती थी गुरुदेव की मुलाकात

रवींद्रनाथ टैगोर कभी रांची नहीं आये, लेकिन गिरिडीह बार-बार आते थे. यहां वह किसी के अतिथि बनकर रहते थे. कविगुरु की अध्यक्षता में कई साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन होते थे. गिरिडीह प्रवास के दौरान आचार्य जगदीश चंद्र बोस से भी उनकी मुलाकात हुआ करती थी. महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस (Acharya Jagdish Chandra Bose) का गिरिडीह में अपना मकान था.

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कभी रांची नहीं आये रवींद्रनाथ टैगोर

रांची में रहने वाले बंगाली समुदाय के बुद्धिजीवी अरुणांशु बनर्जी बताते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर के परिवार का झारखंड और रांची से गहरा नाता रहा है. उनके भाई यहां लंबे अरसे तक रहे, लेकिन वह खुद यहां कभी नहीं आये. श्री बनर्जी बताते हैं कि रवींद्रनाथ कोलकाता से गिरिडीह और हजारीबाग आते थे. पुशपुश गाड़ी में बैठकर वह हजारीबाग से गिरिडीह और गिरिडीह से हजारीबाग जाया करते थे.

हजारीबाग और गिरिडीह घूमने आते थे गुरुदेव

बांग्ला अकादमी झारखंड के सचिव मृगेंद्र विश्वास बताते हैं कि कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर बार-बार झारखंड आते थे. उन्होंने बताया कि 1885 में गुरुदेव हजारीबाग घूमने आये थे. वह कहते हैं कि रवींद्रनाथ की जीवनी लिखने वाले प्रभात कुमार मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कविगुरु को घूमना-फिरना बहुत पसंद था. साल में 10 दिन वह हजारीबाग में ठहरे थे. इस दौरान सुरेंद्र नाथ, इंदिरा और एक अन्य व्यक्ति उनके साथ थे.

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झारखंड से था रवींद्रनाथ टैगोर का आत्मिक संबंध

प्रभात कुमार मुखोपाध्याय लिखते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर का झारखंड से आत्मिक संबंध था. सैलानी के रूप में उन्हें इस क्षेत्र में भ्रमण करना तो पसंद था ही, सृजनशीलता के लिए भी वह झारखंड में आते थे. ‘दान’, ‘शिवाजी उत्सव’ जैसी कई प्रसिद्ध काव्यों की रचना उन्होंने गिरिडीह शहर में की.

कविगुरु की रचना में झारखंड का सौंदर्य

झारखंड में रवींद्रनाथ टैगोर ने सिर्फ बेहतरीन रचनाएं ही नहीं की, उन्होंने झारखंड के सौंदर्य का भी वर्णन अपनी रचनाओं में किया. कवि की रचनाओं में गिरिडीह के अलावा दुमका, हजारीबाग, झरिया, जसीडीह जैसी जगहों का जिक्र मिलता है. ‘पात्रपात्री’, ‘लिपिका’, ‘अस्पष्ट’, ‘रोगीर बंधु’, ‘वातायनिकेर पत्र’ जैसी रचनाओं में भी झारखंड के प्रसंग आते हैं.

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रवींद्रनाथ टैगोर का झारखंड प्रेम

‘खापछाड़ा’ काव्य में कवि रवींद्रनाथ टैगोर लिखते हैं, ‘हजारीबागेर झापे हाजारटा हाई’, ‘गिरिडीर गिरगिटी मस्त बहर’. कवि की ‘पुनश्च’ काव्य की एक कविता ‘कैमेलिया’ में भी उनका झारखंड प्रेम दिखता है. वह लिखते हैं-

सांताल परगनाय

जायगाटा छोटो…

वायु बदलेर वायुग्रस्त ए जायगार खबर जाने ना.

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एईखाने बासा बेंधेछे

साल वनेर छायाय, काठबिड़ालीदेर पाड़ाय.

जेखाने नील पाहाड़ देखा जाय दिगंते

अदूरे जलधारा चोलेछे बालिर मध्ये दिये.

कविगुरु रवींद्रनाथ ‘कैमेलिया’ में लिखते हैं कि झारखंड की इस अरण्यभूमि पर दुर्लभ कैमेलिया के फूल मिलते हैं. ये फूल जब संताल परगना की सांवली कन्या की खूबसूरती को चार चांद लगा देते हैं.

मधुपुर के सौंदर्य का वर्णन

रवींद्रनाथ टैगोर ने मधुपुर के सौंदर्य का भी बेहद खूबसूरती से वर्णन किया है. वह लिखते हैं- टूटे-फूटे मैदान में एक-एक जगह सूखी नदी में बालू की रेत दिखती है. उसी नदी में बीच-बीच में काले-काले पत्थर दिखते हैं, मानो पृथ्वी के कंकाल हों. बीच-बीच में मुंड की तरह पहाड़ नजर आते हैं.

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घाटशिला भी आये थे रवींद्रनाथ टैगोर

पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला की धरती पर भी कवि रवींद्रनाथ टैगोर के कदम पड़े थे. बंगाब्द 1322 (वर्ष 1861) में वह यहां पहुंचे थे. कवि ने स्वयं कालिदास नाग को अपनी घाटशिला यात्रा के बारे में बताया था. रवींद्रनाथ कहते हैं कि बहुत दिन पहले उस इलाके में गया था. एक तस्वीर याद है. कई धाराओं में विभाजित होकर स्वर्णरेखा नदी बह रही है. शाम हो चुकी है. गोधुलि की बेला में बत्तखों का एक झुंड आकर बैठा है. नदी के बीच में एक बड़े शिलाखंड पर संध्या बेला की शांति का आनंद ले रहे हैं.

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