अमर है सन् 57 की क्रांति के नायक शहीद पांडेय गणपत राय का बलिदान
Sacrifice of Martyr Pandey Ganpat Rai: पांडेय गणपत राय झारखंड के उन वीर सपूतों में एक हैं, जिन्होंने सन् 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे.
डॉ राजेश कुमार लाल
Sacrifice of Martyr Pandey Ganpat Rai| रांची के शहीद चौक स्थित शहीद स्थल की ओर नजर जाती है, तो पांडेय गणपत राय का नाम याद आ ही जाता है. इसी स्थान पर 21 अप्रैल 1858 दिन रविवार को अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें एक कदम्ब के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी थी. पांडेय गणपत राय का जन्म 17 जनवरी 1809 को लोहरदगा जिले में स्थित भंडरा प्रखंड के भौरों गांव में एक कायस्थ जमींदार परिवार में हुआ था. उनका पारिवारिक नाम पांडेय था. इनके पिता रामकिशुन राय और माता सुमित्र देवी थीं. पांडेय गणपत राय की पत्नी का नाम सुगंध कुंवर था. इनके चाचा सदाशिव राय, नागवंशी राजा जगन्नाथ शाहदेव के दीवान थे. चाचा की मृत्यु के बाद गणपत राय के सामर्थ्य को देखकर उन्हें दीवान नियुक्त किया गया था. पांडेय गणपत राय दीवान बनने के पहले से ही पालकोट में अपने चाचा के साथ रहा करते थे, जहां उन्हें दरवारी पंडितों एवं मौलवियों से हिंदी एवं अरबी की शिक्षा मिली थी. उन्हें घुड़सवारी बहुत पसंद थी. तीर, भाला, तलवार एवं बंदूक चलाने में पारंगत थे. सरल स्वभाव एवं अपने गुणों के कारण राजा एवं प्रजा के बीच बहुत लोकप्रिय थे.
छोटानागपुर राज्य के दीवान थे पांडेय गणपत राय
चाचा की मृत्यु के बाद पांडेय गणपत राय छोटानागपुर राज्य का दीवान बने. छोटानागपुर राज्य का मुख्यालय पालकोट (गुमला) में था. उन्होंने अपनी दीवानी एवं जमींदारी का मुख्यालय पतिया ग्राम में बनाया था. पतिया ग्राम पालकोट थाना के अंतर्गत आता था. दीवान बनने के बाद उनकी ख्याति और अधिक बढ़ गयी थी. इसके कारण उनके दोस्तों एवं दुश्मनों दोनों में बढ़ोतरी हुई थी. अंग्रेजों की दलाली करने वाले बहुत से जमींदार उनकी देशभक्ति को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. इसीलिए अंग्रेजों के पिन जमींदार उन्हें समाप्त करने की योजनाएं बनाने लगे थे.
दीवान और जमींदार के रूप में लोकप्रिय थे पांडेय गणपत राय
पांडेय गणपत राय दीवान एवं जमींदार के रूप में बहुत लोकप्रिय थे. आदिवासी एवं गैर आदिवासी समाज में जनप्रिय थे. वह अस्त-व्यस्त रहना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे. छोटी-छोटी बातों का बहुत ध्यान रखते थे साथ ही अपने परिवार का भी पूरा ध्यान रखते थे.
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बारात में गए थे पांडेय गणपत राय, लौटे तो साथ में थी उनकी दुल्हन
जब पांडेय गणपत राय 15 वर्ष के थे, तभी एक अजीब घटना घटी. एक दिन वे अपने चाचा के साथ एक बाराती बनकर पलामू जिले के करार गांव गये थे, वहां पर सरातियों एवं बारातियों के बीच शास्त्रार्थ होने लगा. बारातियों ने उन्हें आगे बढ़ाकर इसमें भाग लेने को कहा. बालक गणपत राय ने सभी सरातियों के छक्के छुड़ा दिये. बालक के तर्क एवं हाजिरजवाबी से लोग इतने प्रभावित हुए कि उनकी शादी का प्रस्ताव मिल गया. चाचा ने इसे स्वीकार कर लिया. इसी मंडप में बालक गणपत राय की शादी परिवार की एक दूसरी लड़की से कर दिया गया. बालक गणपत राय गये तो थे एक बाराती बनकर, लेकिन जब लौटे, तो उनके साथ दुल्हन भी थी.
30 जुलाई 1857 को हजारीबाग में पैदल सेना ने किया विद्रोह
10 मई 1857 को स्वतंत्रता संग्राम की पहली गोली चली, तो इसका धुआं बवंडर बनकर पूरे भारत में फैल गया. इसी बीच 30 जुलाई 1857 को आठवीं पैदल सेना ने हजारीबाग में विद्रोह कर दिया. इसी समय विद्रोहियों ने एक संयुक्त सेना का गठन किया, जिसे मुक्ति वाहिनी सेना कहा गया. विद्रोहियों ने पांडेय गणपत राय को अपना सेनापति चुन लिया. एक अगस्त को डोरंडा छावनी में सेना ने विद्रोह कर दिया और दो अगस्त को पूरा रांची विद्रोहियों के अधिकार में आ गया. विद्रोहियों ने योजनाबद्ध रूप से रांची कचहरी, रांची थाना एवं रांची जेल पर धावा बोल कर कचहरी एवं थाना को लूट लिया एवं जेल के बंदियों को रिहा करा लिया. ऐसा कहा जाता है कि लगभग एक महीने तक रांची अंग्रेजी हुकूमत से स्वतंत्र था.
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देशद्रोही मित्र ने किया दगा और गणपात राय हो गये गिरफ्तार
पांडेय गणपत राय एक दिन लोहरदगा की ओर जा रहे थे. रात हो जाने के कारण वे राह भटक गये. इसी रास्ते में उनके दोस्त का गांव पड़ता था, जहां रात भर रहकर सुबह लोहरदगा जाना चाहते थे. उनके जमींदार दोस्त ने आदर-सत्कार किया, लेकिन देशद्रोही मित्र ने इसकी सूचना अंग्रेजों को दे दी. अंग्रेजी सेना ने उन्हें यहीं से गिरफ्तार कर लिया. उन्हें रांची लाया गया तथा नियम विरुद्ध उनका मामला अदालत में न ले जाकर थाने में ही अदालत लगाकर कमिश्नर डाल्टन ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी.
रांची में कदम्ब के पेड़ पर दे दी गई थी फांसी
21 अप्रैल 1858 को रांची में आनन-फानन में पांडेय गणपत राय को एक कदम्ब के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गयी. इसकी सूचना उनके परिवार के लोगों को भी नहीं दी गयी. इस तरह मातृभूमि के लिए लड़ने वाला एक वीर शहीद हो गया, लेकिन उनकी गाथा हमेशा के लिए अमर हो गयी. (लेखक रांची विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के सहायक प्राध्यापक हैं.)
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