रांची: प्रकृति का पर्व सरहुल आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार है. इस साल चार अप्रैल (सोमवार) काे सरहुल मना रहा है. आदिवासी इस त्योहार को बड़े धूमधाम से मनाते हैं. सुखवा वृक्ष में फूल लगते ही सरहुल तैयारी में जुट जाते हैं. आदिवासी समुदाय सरहुल पर्व को सूर्य और धरती के विवाह के रूप में मनाते हैं.
इस बीच आदिवासी नए फल- फूल कटहल, जोकी, डहु, पुटकल आदि का सेवन नहीं करते हैं. धरती को आदिवासी कुंवारी कन्या के समान मानते हैं. धरती अपनी शादी की तैयारी में नए-नए फल, फूल, पत्ते आदि से पूरा शृंगार करती है. हर साल सरहूल पर आदिवासी समुदाय के लाेग जुलूस की शक्ल में सरना स्थल पहुंचते हैं.
सरहुल के दिन गांव के युवक सखुआ फुल लाने जंगल जाते हैं एवं नदी-तालाबों में मछली, केकड़ा पकड़ते हैं. महिलाएं घर-आंगन की सफाई करती हैं. दीवारों पर चित्र बनाती हैं. पाहन सरना स्थल की सफाई कर ग्रामीणों के साथ परंपरा के अनुसार पूजा करते हैं. इस बीच ग्रामीण पाहन को कंधे पर उठाकर ढोल नगाड़े के साथ नाचते-गाते सरना स्थल जाते हैं. पाहन सखुआ पेड़ की पूजा कर मुर्गा-मुर्गी की बलि देकर एवं हड़िया का तपावन देकर गांव घर में महामारी, रोग-दु:ख न हो एवं सुख-समृद्धि की कामना करते हैं.
पाहन के सरना स्थल में पूजा करने के बाद गांव के लोग अपने-अपने घरों में पूजा-पाठ करते हैं. इसके बाद सात से नौ प्रकार की सब्जियां बनाकर अपने इष्ट देव व पूर्वजों को पकवान अर्पित करते हैं. इसके बाद वे स्वयं भी अन्न ग्रहण करते हैं. शाम को पाहन सरना स्थल में दो घड़े में पानी रखते हैं और दूसरे दिन सुबह घड़े में पानी देखकर मौसम की भविष्यवाणी करते हैं कि इस साल बारिश कैसी होगी. इस पर्व में नव विवाहित बेटी-दामाद भी ससुराल आते हैं और हर्षोल्लास सरहुल का उत्सव मनाते हैं.
Posted By: Sameer Oraon