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सरहुल पर्व में सखुआ के पेड़ को ही क्यों पूजा जाता है, महाभारत के काल से जुड़ी है कहानी

सरहुल में आदिवासी समुदाय के लोग सखुआ के पेड़ को खास तौर से पूजते हैं, इसके कहानी महाभारत का काल से जुड़ी है और इसी के बाद से जनजातीय समुदाय के लोगों की आस्था इस पेड़ से जुड़ी है

रांची: सरहुल आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति, रहन-सहन से जुड़ा हुआ पर्व है और इस समाज के लोग हर शुभ काम इसके बाद ही शुरू करते हैं. चाहे वो खेती बारी का काम हो या फिर कोई अन्य काम. यहां तक कि किसी भी काम में नये पत्ते का उपयोग भी इस पर्व के बाद ही किया जाता है.

वैसे भी आदिवासी समाज हमेशा से ही प्रकृति का पूजक रहा है, ये पर्व न सिर्फ पर्यावरण को बचाने का त्योहार है. बल्कि संस्कृति, सभ्यता, एकता और अखंडता को भी बनाये रखने का प्रेरणा देता है. इस दिन सरई यानी कि सखुआ पेड़ की खास तौर से पूजा की जाती है.

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महाभारत के युद्ध से जुड़ी है कहानी

बहुत लोगों को ये नहीं पता है कि सखुआ पेड़ को पूजने के पीछे क्या कहानी है, दरअसल इसकी कहानी महाभारत युद्ध से जुड़ी हुई है. ऐसा माना जाता है कि जब महाभारत युद्ध चल रहा था तो मुंडा जनजातीय लोगों ने कौरव सेना की तरफ से लड़ाई में हिस्सा लिया था

जिसमें कई जनजातीय योद्धाओं ने अपनी जान गंवाई थी. इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को ‘साल के वृक्षों के पत्तों और शाखाओं’ से ढका गया था. लेकिन अश्चर्याजनक बात ये रही कि जो शव सखुआ के पत्ते से ढका था वो शव सड़ने से बच गये जबकि बाकी पत्तों से ढका शव सड़ गये थे. इसके बाद से ही आदिवासियों का विश्वास इस पेड़ के प्रति गहरी हो गयी.

सरहुल में खिचड़ी खाने और आग जलाने की भी है मान्यता

पूजा के दिन बैगा पुजार द्वारा घड़े में खिचड़ी पकाया जाता है. इसकी मान्यता है कि घड़े के जिस ओर से खिचड़ी उबलना शुरू करता है. उसी ओर से बरसात का आगमन होता है. इसके बाद जब बैगा पुजार लोग खिचड़ी खाते हैं, तो उनके पीछे की ओर आग जला दिया जाता है. इसका मतलब यह होता है कि अगर बैगा पुजार आग की गर्मी को बर्दाश्त करते हुए शांतिपूर्ण ढंग से खिचड़ी खाते हैं, तो गांव में सुख-शांति रहती है और जहां आग या गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं, तो गांव में मच्छर, बीमारी सहित अन्य प्रकार का कहर बढ़ जाता है. इसलिए सरहुल सरना पूजा आदिवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.

Posted By: Sameer Oraon

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