Sawan 2024: शिवोपासना और सोमवार का क्या है रहस्य, जानें विस्तार से
आज से पवित्र श्रावण माह की शुरूआत हो रही है. पहले ही दिन सोमवारी होने के कारण सावन का महीना शुभ संयोग से हो रहा है.
डॉ गौतम कुमार राजहंस, शिक्षाविद
शेते तिष्ठति सर्वं जगत् यस्मिन् स: शिव: शम्भु: विकाररहित:। अर्थात् जिसमें संपूर्ण संसार शयन करता है अथवा जिनका चिंतन करता है, जो अमंगल का नाश करने वाला है वह शिव है. वस्तुत: शिव-तत्व को जानना साधारण विषय नहीं है तथापि इनके विषय में सामान्य ज्ञान भी अत्यधिक पुण्यता प्रदान करने वाला माना जाता है. भगवान शिव वर्णनातीत होते हुए भी अनुभवगम्य है. इन्हीं से समस्त विद्याओं और कलाओं का प्रादुर्भाव हुआ है. शिव वेद और प्रणव के उद्गम माने गये हैं. वेदों में शिव को ही नेति-नेति कहा गया है.
यजुर्वेद संहिता के रुद्राध्याय, श्वेताश्वतरोपनिषद्, अथर्ववेद तथा रुद्रहृदय आदि ग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सभी देवताओं में भगवान शिव अर्थात् शिव सर्वोत्तम देवता हैं. इनकी संपूर्ण निष्ठा से उपासना करने पर भक्तों को परम ऐश्वर्य एवं मोक्ष आदि की प्राप्ति निश्चय ही होती है. भगवान शिव की उपासना वैदिक काल से ही प्रचलित है. इस तथ्य का प्रतिपादन प्रसिद्ध संस्कृत साहित्य के विद्वान एवं शिवभक्त श्री अप्पयदीक्षित ने अपनी रचना “शिवार्कमणिदीपिका” में की है.
भगवान शिव को तो वेद, सृष्टि एवं सभी विद्याओं का जनक भी माना गया है-
यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्।
निर्ममे तमहं वंदे विद्यातीर्थं महेश्वरम्।।
महाभारत के अनुशासन पर्व के 14 वें एवं 15 वें अध्याय में वर्णित कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने उपमन्यु नामक परम शैव ब्राह्मण से दीक्षा प्राप्त कर शिव की आराधना की एवं उनकी कृपा से ही सांब नामक पुत्र को प्राप्त किया था. उपमन्यु के वचनानुसार जिन पर शिव की कृपा नहीं होती वह कभी भी उनकी भक्ति नहीं कर सकता है.
दिवसं दिवसार्धं वा मुहूर्त्तं वा क्षणं लवम्।
न ह्यलब्धप्रसादस्य भक्तिर्भवति शंकरे।।
उपमन्यु की शिवभक्ति ऐसी थी कि उन्होंने प्रत्येक जन्म में भगवान शंकर का परम भक्त होना चाहा.
यदि नाम जन्म भूयो भवति मदीयै: पुनर्दोषै:।
तस्मिंस्तस्मिन् जन्मनि भवे भवेन्मेक्षया भक्ति:।।
“यदि मेरे दोषों से मुझे बार-बार इस जगत में जन्म लेना पड़े तो मेरी यही इच्छा है कि उस-उस प्रत्येक जन्म में भगवान शिव में मेरी अक्षय भक्ति हो.
अतः भगवान शिव की श्रेष्ठता को देखकर महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया.
नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गति:।
नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे।।
“शिव के समान देव नहीं है. शिव के समान गति नहीं है. शिव के समान दाता नहीं है. शिव के समान वीर नहीं है. इस प्रकार परम ऐश्वर्य संपन्न देवता भगवान शिव या रुद्र की उपासना का महत्व शास्त्रों ने अत्यधिक माना है.शिवाराधन में अपनी विशिष्ट कामना की पूर्ति हेतु भक्तगण जल, दुग्ध, इक्षुरस एवं गंगाजल आदि से रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों द्वारा प्रतिदिन अभिषेक करते हैं. शिवपुराण के अनुसार, एक बार सनक आदि ऋषियों ने भगवान शिव से प्रश्न पूछा कि रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों द्वारा अभिषेक का माहात्म्य क्या है इस पर स्वयं भगवान शिव ने उत्तर दिया कि-
मनसा कर्मणा वाचा शुचि: सङ्गविवर्जित:।
कुर्यात् रुद्राभिषेकञ्च प्रीतये शूलपाणिन:।।
सर्वान् कामानवाप्नोति लभते परमां गतिम्।
नन्दते च कुलं पुंसां श्रीमच्छम्भुप्रसादत:।।
प्राप्त प्रमाण के अनुसार, श्रावण मास में जलाभिषेक का महत्व अत्यधिक माना जाता है. यद्यपि संपूर्ण श्रावण मास शिवोपासना हेतु अत्युत्तम माना जाता है तथापि प्रत्येक सोमवार का विशेष महत्त्व है.अतएव भक्तगण उत्तर वाहिनी गंगाजल को संयम और निष्ठा की परम परीक्षा देकर 105 किलोमीटर दूर से कांवर यात्रा कर बाबा वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर समर्पित करते हैं. शिवोपासना अथवा सोमवार को जलार्पण हेतु महत्व के संबंध में विविध पुराणों एवं शास्त्रों में तथ्य वर्णित हैं उसे यहां संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है.
प्रथम चंद्र की कथा :
शिवपुराण के अनुसार, दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा (सोम) के साथ हुआ था, चंद्रमा का उन 27 कन्याओं में रोहिणी नामक कन्या से विशेष लगाव था. अपनी अन्य कन्याओं के साथ चंद्रमा का दुर्व्यवहार देखकर दक्ष कुपित हो गये और चंद्रमा को क्षय-रोग से ग्रस्त हो जाने का शाप दे डाला. शाप के प्रभाव से चंद्रमा निस्तेज हो गये और संपूर्ण जगत अंधकारमय हो गया. अपनी ऐसी दुर्दशा पर पश्चात्ताप करते हुए ब्रह्माजी के कहने पर देवाधिदेव महादेव की आराधना आरंभ की. उनकी आराधना से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें अमरता प्रदान करते हुए मास-मास पर पूर्ण और क्षीण होने का वरदान दिया एवं सोमवार को जो उनकी आराधना करेगा उसे विशेष पुण्य प्राप्त होगा ऐसा वरदान भी दिया. द्वादश ज्योतिर्लिंगों में सौराष्ट्र स्थित सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संबंध में यही कथा प्रचलित है. अत: भक्तगण सोमनाथ की सोमवार को विशेष उपासना करते हैं.
द्वितीय पार्वती की कथा :
पुराणों से प्राप्त आख्यानों के अनुसार, हिमाचल की पुत्री देवी पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तप किया. पार्वती ने तप के लिए जिस स्थान का चयन किया वह स्थान भी बड़ा दुर्गम और भयावह था. वहां घोर अंधकार और भयानक सिंह, व्याघ्र एवं सर्पादि प्राणी रहते थे. दिन-रात बर्फादि की बारिश होती थी. पार्वती ऋतु और अपनी शारीरिक क्षमता के प्रतिकूल जाकर भी तपस्या करती थी ऐसा स्पष्ट वर्णन कालिदास ने अपनी रचना कुमारसंभव के पंचम सर्ग में भी किया है. पार्वती को यह समझने में देर नहीं लगी कि शिव को सौंदर्य से प्राप्त नही किया जा सकता अपितु भक्ति पूर्वक शिवाराधन ही प्राप्ति का एकमात्र उपाय है. पार्वती की सहनशीलता चरम सीमा पर पहुंच जाती है. पत्तों का भोजन भी त्याग देने के कारण वह अपर्णा कहलाती हैं. ग्रीष्मकाल में पंचाग्नि का सेवन, शरत्काल में आकण्ठ जल में समाधि एवं श्रावण मास की घोर वर्षा में खुले आकाश में तप करना उनकी शारीरिक क्षमता एवं मानसिक एकाग्रता का चरमोत्कर्ष था. श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को भगवती पार्वती मृत्तिका निर्मित शिवलिंग की विधिवत पूजा-अर्चना करती थी. अंतत:हस्त नक्षत्र से युक्त भाद्रशुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को आशुतोष भगवान शंकर दृढव्रता पार्वती पर परम प्रसन्न होकर अभीष्ट फल का वरदान देकर हस्त नक्षत्र से युक्त भाद्रशुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को जो भी स्त्री भक्तिपूर्वक शिव-पार्वती की मूर्ति बनाकर आराधना करेगी उसकी मनोवाञ्छित कामना सिद्ध होगी. अत: यह मान्यता है कि श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार एवं भाद्रशुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के अवसर पर मृत्तिका निर्मित शिवलिंग अथवा अन्य शिवलिंग के जलाभिषेक से चंद्रमौलीश्वर शिव विशेष प्रसन्न होते हैं.
इस प्रकार भगवान शिव के एक अनन्य भक्त की सार्वकालिक अभिलाषा निम्न श्लोक में निहित है-
अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा
मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसा:
सदा पुण्येऽरण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपत:।।
सर्प अथवा माला में ,बलवान शत्रु अथवा मित्र में, मणि अथवा मिट्टी के ढेले में ,फूलों से युक्त शय्या पर या पत्थर की शय्या पर तृण हो अथवा तरुणी हो मैं जहां रहूं, जिस अवस्था में रहूं और जो मिले अथवा न मिले किंतु मेरा दिन समान रूप से व्यतीत हो और सदा शिव शिव शिव नाम रटता रहूं.