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अखरा संस्कृति में थियेटर को शामिल कर कहें अपनी बात : अजय मलकानी

रांची के रंगकर्मी अजय मलकानी का भी चयन किया गया है. अजय मलकानी पिछले 42 सालों से झारखंड में रंगमंच को जीवित रखने का काम कर रहें हैं. कइ नाटकों के माध्यम से कला को जीवंत करने के बाद अजय मलकानी को यह सम्मान प्राप्त हो रहा है

केंद्र सरकार ने झारखंड के 6 लोगों का चयन संगीत नाटक आकादमी पुरस्कार के लिए किया है. इस पुरस्कार के लिये रांची के रंगकर्मी अजय मलकानी का भी चयन किया गया है. अजय मलकानी पिछले 42 सालों से झारखंड में रंगमंच को जीवित रखने का काम कर रहें हैं. कइ नाटकों के माध्यम से कला को जीवंत करने के बाद अजय मलकानी को यह सम्मान प्राप्त हो रहा है. प्रभात खबर डिजीटल ने इस उपलब्धि के बाद अजय मलकानी से जुडे कुछ अनछुए पहलुओं पर बातचीत की. आप भी पढिये इस साक्षात्कार के कुछ प्रमुख अंश.

सवालः पहले एमकॉम, फिर एलएलबी, फिर अर्थशास्त्र से एमए के बाद एनएसडी में दाखिला. क्या यह युवा मन का भटकाव था या फिर सही प्रोफेशन की तलाश?

जवाबः बनारस मेरी जन्मभूमी है. बचपन से ही रंगमंच मेरे डीएनए में रहा था. लेकिन इसपर मेरी मां ने मुझसे कहा था कि अगर तुम हिंदी रंगमंच की दुनिया में रहना चाहते हो तो पहले तुम्हें किसी अच्छे पेशे से जुडना होगा. तक ही तुम अपने रंगमंच के शौक को जिंदा रखना चाहते हो तो पहले तुम्हें अच्छी नौकरी देखनी होगी. चूंकि उस वक्त रंगमंच को आजिविका के लिये बेहतर साधन नहीं माना जाता था. ऐसे में किसी अच्छे पेशे के साथ जुडना मेरी सबसे बडी जरूरत थी. इसके लिये मैंने पहले एमकॉम किया फिर एलएलबी की. लेकिन ये करने के बाद समझ आया कि मेरा पूरा समय इसी काम में चले जाएगा फिर मैं कभी भी थियेटर को अपना समय नहीं दे सकूंगा. इसलिये फिर अर्थशास्त्र से एमकॉम किया. तब जाकर मुझे रांची के मारवाडी कॉलेज में अस्सिटेंट प्रोफेसर का पद मिला. यहीं मैंने पांच साल तक अपनी सेवा दी. इसके बाद 1981 में रांची के बीआइटी मेसरा में ही ढाई महीने के नाटय कार्यशाला आ आयोजन किया गया. मैंने भी कॉलेज से छुटृी लेकर यह कार्यशाला अटेंड की. कार्यशाला में मेरे सभी आइडीयल रंगमंच के हिस्सा थे. वहीं पर राष्ट्रीय नाटक शास्त्र के डाइरेक्टर बीएम शाह ने मुझसे कहा था कि तुम जब झारखंड में इतना अच्छा रंगमच कर रहे हो तो एनएसडी के लिये अप्लाई करो. लेकिन मेरी उम्र अधिक बची नहीं थी. आखिरी का एक साल था. मैंने परीक्षा दी और मेरा सलेक्शन हो गया. ऐसे मैंने एमकॉम से एनएसडी तक का सफर तय किया.

सवालः परिवार के दबाव के कारण आपको दूसरा प्रोफेशन भी चुनना पडा, ऐसे में आज के युवाओं के पास रंगमंच को अपने पेशे के तौर पर अपनाने के लिये कितना प्रयास करना पड़ता है?

जवाब: हमारे समय में तब दुरर्दशन और आकशवाणी ही था. यानी की हमारे पास इस क्षेत्र में कुछ बेहतर करने के लिये कुछ नहीं था. न ही सिखने के लिये कोइ अच्छा कॉलेज था. लेकिन अब युवाओं के पास खुद को आगे बढ़ाने के लिये न जाने कितने ओटीटी प्लेटफार्म है. जहां रंगमंच के कर्मियों को बहुत अवसर भी मिलता है. ऑनलाइन ने कलाकारों के लिये कइ मंच तैयार कर दिया है. हमारे फोन पर दिनभर में दसो सीरियल के नोटीफिकेशन आते रहते है. इन सबमें काम करने वाले यही रंगकर्मी ही हैं. बस युवाओं को साधना करने की जरूरत है. क्योंकि सफलता का कोइ शॉटकर्ट नहीं होता है. पहले युवा अच्छे से रंगमंच को सीख ले तभी वो सफलता की राह पर चल पायेंगे. इस क्षेत्र में आपका कोइ गॉड फादर भी काम नहीं आता है. आपका टैलेंट ही आपको आगे लेकर जायेगी. मुझे खुद 42 साल तक काम करने के बाद अब जाकर सरकार से सम्मान मिल रहा है.

सवाल: झारखंड में रंगमंच का भविष्य क्या है?

जवाब: झारखंड में काम करने का बहुत स्कोप है. यहां एक तो जनजातीय भाषाएं है. उन भाषाओं के रंगमंच को विकसित किया जा सकता है. बोलियों को विकसित किया जा सकता है. चूंकि यह रंगमंच से काफी अछूता राज्य है. रंगमंच का इतिहास काफी पुराना है. लेकिन झारखंड के जनजातीय सभ्यता में कहीं भी रंगमंच नहीं था. इसलिये प्रवासियों के साथ चलकर रंगमंच आया. खासकर झारखंड में रंगमंच की देन बंगाली समाज की है. झारखंड में अखरा की संस्कृति है. इस अखरा संस्कृति को ही विकसित करते हुये ही रंगमंच का हिस्सा बनाया जा सकता है. आज हम आधुनिक युग में रह रहें है. इयलिये रंगमंच को अखरा से जोड़ते हुये काफी बदलाव किया जा सकता है. रंगकर्मी कोई आग का गोला नहीं है जो कुछ बड़ा कर दे लेकिन समाज के प्रति उनका एक गिलहरी योगदान जरूर हो सकता है. रंगकर्मी समाज को आइना जरूर दिखा सकता है.

सवाल: आपने झारखंड की लोकसंस्कृति को किस हद तक रंगमंच पर उकेरा है?

जवाब: अभी पिछले कई वर्षों से उलगुलान नामक मेरा एक नाटक चल रहा है. इसमें मेरा प्रयास रहा है कि मैं झारखंड के स्वतंत्रता सेनानी के योगदान को रंगमंच के माध्यम से बता सकूं. बिरसा मुंडा का योगदान तो सभी को पता है. हम उससे पहले के शहीदों के बारे में मंचन कर रहें हैं. इसके अलावा हम छोटे-छोटे नुक्कड़ नाटक के माध्यम से झारखंड की जनता को जोड़ने का प्रयास किया. हमने पेड़ बचाओ पर अबतक करीब 100 नाटक का मंचन किया. तक झारखंड बिहार का हिस्सा हुआ करता था. इसके अलावा हमने बेटी बचाओ पर नुक्कड़ नाटक किया. बेटी बचाओ का नारा अभी 10 सालों से दिया जा रहा है. लेकिन हमने उससे पहले ही अपने नाटक के माध्यम से लोगों तक ये संदेश पहुंचाया. तक सभी जिलों में हमने ये नाटक किया था. हर जिले में वहां की भाषा में हिंदी का मेल करते हुये हमने ये किया ताकि लोगों को हमारी बात समझ आये. झारखंड में कभी थियेटर कल्चर नहीं रहा है. अब भी राजधानी रांची तक में रंगमंच के लिये एक भी मंच नहीं है. भारत सरकार ने ऑडरे हाउस बना दिया है. लेकिन वहां कोइ सुविधा नहीं है. इसकी किमत भी 12 हजार रुपये है. जमशेदपुर के अलावा पूरे झारखंड में रंगमंच के लिये कोइ स्टेज नहीं है. इसलिये भी हमने नुक्कड़ नाटक के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुंचाई.

सवाल: प्रकाश झा सहित कई बड़े डाइरेक्टर के साथ काम किया है. कई और फिल्ममेकर के साथ भी काम किया है. लोकल आर्टिस्ट को बॉलीवुड काम और दाम दोनों देते हैं, लेकिन उन्हें ऐसा कोई रोल ऑफर नहीं करते, जिससे उनको एक्सपोजर मिल सके. आपको क्या लगता है. इसे छोटे शहरों के कलाकारों का शोषण कहा जाना चाहिए?

जवाब: ऐसा नहीं है यहां है कि यहां के रंगकर्मी काम नहीं कर रहें हें लेकिन मेरे हिसाब से लोगों को और अधिक स्किल डेवलप करने की जरूरत है. इसपर काम भी हो रहा है. कई बड़े और अच्छे डाइरेक्टर फिल्म बना रहे हैं. और दूसरी बात जो मै मानता हूं वह है सरकार की उदासीनता. कुछ समय पहले तक पतरातू के आस-पास फिल्म सिटी बनायी जा रही थी. उसका क्या हुआ अब नहीं पता. दूसरा झारखंड फिल्म डेवलपमेंट कॉपरेशन बनाया गया. जिसमें झारखंड में फिल्म बनाने के लिये प्रोत्साहित करने के लिये 2 करोड़ तक सब्सिडी देने के लिये एक टेक्नीकल कमिटी बनी. मैं भी इसका हिस्सा था. अनुपम खेर इसके चेयरमैन थे. कुछ बड़े चेहरों को सब्सिडी मिल भी गइ लेकिन सरकार जाते ही टीम बदल दी गइ. अब तक भोजपुरी, संताली या किसी छोटे बैनर के तले बनी टीम को पैसा मिला या नहीं कोइ नहीं जानता. इस प्रकिया में पारदर्शिता ही नहीं बची है. सरकार आज युवाओं को हर क्षेत्र में आगे आने का मौका दे रही है. ऐसे में सरकार का ध्यान रंगमंच के कलाकार की ओर भी जाना चाहिये. ताकि झारखंड में रंगमंच के क्षेत्र में जो उदासिनता बनी हुइ है उसे खत्म किया जा सके.

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