मकर संक्रांति का है वैज्ञानिक कारण, झारखंड में इसी दिन मनाया जाता टुसू पर्व, जानें महत्व और परंपराएं

देश में प्रचलित प्रत्येक त्योहार का एक वैज्ञानिक कारण है. मकर संक्रांति भी इनमें से एक है. मकर संक्रांति के दिन ही झारखंड में टुसू पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. झारखंड के पंच परगना क्षेत्र का यह महत्वपूर्ण पर्व है. आइए दोनों पर्वों के महत्व और परंपराओं के बारे में जानते हैं.

By Prabhat Khabar News Desk | January 14, 2024 4:39 PM
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रांची, निर्मला कर्ण : हमारे देश में प्रचलित प्रत्येक त्योहार का एक वैज्ञानिक कारण है. प्रत्येक वर्ष जनवरी माह की प्राय: 14 तारीख को दोपहर के बाद शाम या रात्रि में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश होता है, ऐसे में उदयातिथि के अनुसार अगले दिन यानी 15 जनवरी को मकर संक्रांति मनायी जाती है. इस दिन से ही मौसम में बदलाव प्रारंभ होता है. इस दिन तिल-गुड़ और अनाज दान करने का विशेष महत्व है. सूर्योदय के पूर्व स्नान करके तिल-गुड़ और अनाज का दान व खिचड़ी खाने का पौराणिक विधान है.

मिथिलांचल में मकर संक्रांति को ‘तिला संक्रांति’ के नाम से जाना जाता है. इसमें क्या बच्चे और क्या बड़े, सूर्योदय के पूर्व स्नान करके आते हैं. फिर ब्राह्मणों को तिल और अनाज का दान करते हैं. ब्राह्मणों को दान देने के बाद आसपास के पिछड़े, गरीब परिवारों को तिल-गुड़ के लड्डू, चूड़ा और मुरही के लाई, खिचड़ी के लिए अनाज एवं सब्जियां तथा गर्म कपड़े गृहस्थ जन अपनी हैसियत के अनुसार दान करते हैं.

मुझे (लेखक को) अपना बचपन याद आ रहा है जब मां प्रातः चार बजे ही जगा देती थीं, फिर हम नदी में स्नान करने के लिए जाते थे. घर से नदी की दूरी आधा किलोमीटर से भी कम थी. कड़कड़ाती ठंड में नदी में स्नान करना होता था, लेकिन स्नान कर नदी से आने के बाद आग का घूर तैयार मिलता था. आंगन में आग तापते हुए हम लाई, चुड़लाई और तिलबा (तिल-गुड़ के लड्डू) का आनंद लेते थे. उस दिन कुल देवता के सम्मुख तिल-गुड़ और अरवा चावल का भोग लगता था. मां, दादी एवं अन्य बड़ी-बुजुर्ग महिलाएं प्रसाद का तिल-गुड़ और अरवा चावल थोड़ा-थोड़ा तीन बार मुख में डालते और हर बार पूछतीं –

‘तिल बहबें! … तिल बहबें! … तिल बहबें’! (अर्थात् तिल के एक-एक दाने की तरह हमारा भार उठाओगे न?) प्रतीक रूप में हम कहते- ‘हां’!

यही प्रथा थी. संभवत: हमारे बुजुर्गों ने, पूर्वजों ने शायद समझ लिया था कि बच्चे बड़े होकर अपने माता-पिता की देखभाल करें या न करें, इसलिए उन्हें प्रत्येक वर्ष तीन वचनों में बांधते थे, ताकि उन्हें हमेशा याद रहे कि उन्हें अपने बुजुर्गों की देखभाल करनी है! सेवा करनी है! पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही रिवाज चला आ रहा है.

नव-विवाहिताओं का भतराइस पर्व

तिल संक्रांति के अतिरिक्त मिथिलांचल में इसी दिन नव-विवाहिताओं के लिए एक पर्व मनाया जाता है, जिसे ‘भतराइस’ कहते हैं. यह पर्व विवाह के प्रथम वर्ष से लेकर पांच वर्ष तक मनाया जाता है. नव- विवाहिताओं के प्रथम वर्ष में इसकी शुरुआत होती है. वह मायके में हों या ससुराल में, उसे एक दिन पहले स्नान-पूजा करके सात्विक भोजन करना होता है. भगवती गीत गाकर पूजा के लिए गौड़ी-नैवेद्य (प्रसाद) बनाया जाता है, हल्दी का गौड़ गढ़ा जाता है. यह प्रसाद मायके में रहने से मां, भाभी या बड़ी बहन बनाती हैं और ससुराल में सासू मां, जेठानी या विवाहिता ननद. संजीत वाले दिन वधू ससुराल का अनाज ही खाती है, इसलिए ससुराल से आने वाला संदेश जिसमें वधू के लिए पूजा के वस्त्र, उसके संयत के दिन खाने के लिए सामग्री, उसके परिवार की सभी महिलाओं के लिए वस्त्र, पूजन सामग्री एवं संदेश के रूप में अनेक तरह के पकवान, फल एवं मिठाइयां होती हैं.

पूजा के दिन वधू निराहार रहती है. संध्या समय भतराइस पर्व होता है. गौरी महादेव की पूजा की जाती है. 25 प्रकार के अनाज की डेरी लगायी जाती है. पकवान से थाल सजा रहता है, जिसमें भोजन के रूप में 25 तरह की सब्जियां होती हैं. इस थाल को करोतरि कहा जाता है. पूजा के पास अनाथ पूजा के बाद अनाज की ढेरियों और करोतरि को चांदी के सिक्के से देवर अथवा भाई द्वारा काटा जाता है. पूजा में मिट्टी और बांस के बर्तन जो 25-25 की संख्या में होते हैं, उनका उत्सर्ग किया जाता है.

वधू अगले दिन से प्रातः एवं संध्या पूजन करती है. पूजन गोबर से बनायी गयी अल्पना पर अरवा चावल के पीले और सफेद चूर्ण से किया जाता है. शाम के पूजन को ‘संध्या-पूजन’ और प्रातः पूजन को ‘तुषारी-पूजन’ कहते हैं. तुषारी-पूजन सवा माह तक होता है और संध्या-पूजन पूरे एक वर्ष होता है. अगले वर्ष पुनः भतराइस पर्व करके तब संध्या-पूजन समाप्त होता है.

इस पर्व का निस्तार या समापन तीसरे अथवा पांचवें वर्ष में होता है. कुछ परिवार तीसरे वर्ष में ही निस्तार करवा देते हैं और कुछ पांच वर्ष तक पूजा करवा कर. लोगों की व्यस्त होती जिंदगी और अब लड़कियों के भी नौकरी में आने के कारण धीरे-धीरे यह पर्व समापन की ओर बढ़ रहा है. सवा माह तुषारी-पूजन और एक वर्ष के संध्या-पूजन के कारण अधिकतर विवाहिताएं इस पर्व को करने में अपने को असमर्थ पाती हैं. कुछ परिवार जो अभी भी इसे करना चाहते हैं, वे वधू की सहूलियत के लिए प्रथम वर्ष में ही निस्तार करवा देते हैं. समय के साथ हर पूजा का स्वरूप भी बदलता दिख रहा है.

झारखंड में टुसू पर्व

मकर संक्रांति के दिन ही झारखंड में टुसू पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. झारखंड के पंच परगना क्षेत्र का यह महत्वपूर्ण पर्व है. राजा के अन्याय के विरुद्ध किसानों के साथ खड़ी हुई कुंवारी बाला टुसू को श्रद्धांजलि देने के लिए यह पर्व मनाया जाता है. उस युद्ध में राजा द्वारा पकड़ लेने की आशंका से ग्रसित होकर टुसू ने नदी में कूद कर जल समाधि ले ली थी. अगहन संक्रांति को टुसू की मूर्ति बनायी जाती है. मूर्ति की पूजा कुमारी कन्याएं करती हैं. एक माह बाद मकर संक्रांति के दिन मुख्य उत्सव मनाया जाता है. उस दिन मेला लगता है. रात्रि जागरण कर लोग नाचते-गाते हैं और अगले दिन टुसू देवी की प्रतिमा का विसर्जन कर देते हैं. इस पर्व से जुड़ी दिलचस्प बात है कि मेरे पोते का जन्म इसी समय हुआ था, अत: हम उसे ‘टुसू’ ही बुलाते हैं. तब रांची में अस्पताल के पीछे टुसू मेला लगा हुआ था, अत: हमने बच्चे का नाम ‘टुसू’ रख दिया.

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