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रांची में उत्तर-पूर्वी राज्यों की संस्कृति पर संगोष्ठी का किया गया आयोजन

तेजपुर विश्वविद्यालय,असम की प्रोफेसर डॉ.मौसमी कंदाली ने “विजुअल आर्ट डिस्कोर्स ऑफ असम” विषय पे अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया.

रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान,रांची में उत्तर-पूर्व राज्यों की संस्कृति एवं सांस्कृतिक इतिहास पर चार दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है.संगोष्ठी के उद्घाटन दिवस में देश भर के विद्वान,इतिहासकार,भाषाविद और शोधार्थी शामिल हुए.इस संगोष्ठी में उत्तर-पूर्व राज्यों के वरिष्ठ इतिहासकार और प्रोफेसर अपने व्याख्यान प्रस्तुत कर रहे है. कार्यक्रम का उद्घाटन सभी विशिष्ट अतिथियों द्वारा पारंपरिक रूप से नगाड़ा बजाकर किया गया. सभी अतिथियों का स्वागत फूल और आदिवासी गमछा देकर किया गया. कार्यक्रम का स्वागत संबोधन संस्थान के निदेशक और वरिष्ठ साहित्यकार रनेंद्र जी ने दिया. उन्होंने उत्तर-पूर्व से आए विशिष्ट अतिथियों का झारखण्ड की धरती पे स्वागत करते हुए कहा कि हम शिकारियों के मुख से सिंह का इतिहास सुनते आए हैं इस संगोष्ठी के माध्यम से हम सिंह का कहानी सिंह के मुख से ही सुन पाएंगे.उन्होंने हिंदी पट्टी के लोगो के अपने इतिहास की आत्मुग्धता पर आलोचनात्मक टिप्पणी भी की.
उद्घाटन सत्र में झारखण्ड के वरिष्ठ आलोचक रविभूषण जी ने उत्तर-पूर्व राज्यों को लेकर बताया कि इन राज्यों की आपसी समन्यवता और सहभागिता के लिए ही इन्हे सात बहनों और एक भाई का राज्य कहा जाता है.संत जेवियर कॉलेज रांची के प्रोफेसर संतोष किड़ो ने झारखण्ड और उत्तर-पूर्व राज्यों के आदिवासी के बीच के समानताओं को रेखांकन किया.उन्होंने बतलाया कि मुर्गा झारखण्ड और उत्तर-पूर्व राज्यों के आदिवासियों का सांस्कृतिक प्रतीक है तथा पहाड़ दोनो ही जगह के आदिवासियों में एक पवित्र स्थान रखता है.

पहले दिन संस्कृति और इतिहास पर रहा केंद्रित

संगोष्ठी के पहले दिन का पहला सत्र असम की संस्कृति और इतिहास पर केंद्रित रहा,इसकी अध्यक्षता इंद्र कुमार चौधरी ने की. तेजपुर विश्वविद्यालय,असम के प्रोफेसर चंदन कुमार शर्मा ने असम संस्कृति की सद्भावना पर विशेष व्याख्यान दिया.उन्होंने कहा उत्तर-पूर्व राज्यों की सद्भावना पूर्वक संस्कृति में प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.उन्होंने बताया कि असम राज्य का पहला साम्राज्य जो आदिवासी बर्मन साम्राज्य था उस साम्राज्य का इतिहासकारों ने हिंदूकरण कर दिया है.
दीफू कॉलेज असम से आई व्याख्याता कादम्बिनी तेरांगपी ने कारबी समुदाय के कृषि और सांस्कृतिक जीवन पर विशेष व्याख्यान दिया.
तेजपुर विश्वविद्यालय,असम की प्रोफेसर डॉ.मौसमी कंदाली ने “विजुअल आर्ट डिस्कोर्स ऑफ असम” विषय पे अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया.उन्होंने कला के बारे में बात करते हुए कहा जो कोई नहीं बोल सकता वो बात कलाकार अपनी कला से कह देता है.उन्होंने बतलाया कि असम साहित्य में स्त्रियों को सिर्फ प्रेमिका के रूप में प्रायोजित करके नही बल्कि उन्हें समाज के मुख्य धारा में चित्रण किया गया है,खासकर काम करने वाली स्त्रियां को काफी प्रमुखता से जगह दिया गया है.
गुवाहाटी विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ.रितामणि वैश्य ने “असमिया समाज जीवन का प्रतीक- बिहू” के ऊपर विशेष व्याख्यान दिया.उन्होंने बिहू त्योहार को असम जीवनशैली का आत्मा कहा.उन्होंने बिहू के बारे में बताया असम के लोग बिहू नाचते हैं गाते हैं,बिहू खाते हैं और बिहू ही जीते हैं.
असम विश्वविद्यालय के हिंदी प्रोफेसर जय कौशल ने कार्बी जनजाति के मृत्यु-अनुष्ठान चोमांगकान के बारे में विस्तृत चर्चा की.उन्होंने बताया की कार्बी समुदाय में मृत्यु को भी एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है.इस आदिवासी समुदाय में स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना नहीं है.उन्होंने चोमांगकान परंपरा से संबंधित कार्बी जनजाति की मशहूर लोककथा भी श्रोताओं से साझा किया.
तेजपुर विश्वविद्यालय,असम के असिस्टेंट प्रोफेसर प्रमोद मीणा ने झारखण्ड के छोटानागपुर क्षेत्र से गए असम के चाय बागानों में कार्य करने वाले आदिवासी लोगो के अस्मिता संघर्ष पर अपना विशेष व्याख्यान दिया.उन्होंने चाय बगान में आदिवासी समुदाय के शोषण को भी रेखांकित किया.
दोपहर से शुरू हुआ दूसरा सत्र अरुणाचल प्रदेश के सांस्कृतिक जीवन पे केंद्रित रहा.इस सत्र की अध्यक्षता जवाहर नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ.राकेश बटबयाल ने की.
बिनियाडा शासकीय महिला विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ.मोर्जुम लोई ने अरुणाचल प्रदेश के गालो जनजाति के लोकजीवन को उनके लोकगीतों के माध्यम से चित्रण किया.उन्होंने इस दौरान कई लोकगीत भी गुनगुनाए और उनके शाब्दिक और सामाजिक महत्व भी बताए.
जोराम अन्या ताना ने अरुणाचल प्रदेश के तानी समाज के आमदगपनम परंपरा के बारे में विस्तृत चर्चा की.उन्होंने इस दौरान समुदाय में अदरक के सांस्कृतिक महत्व के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदाय की लोककथाओं में नायिका राजकुमारी नहीं हैं वहां कामगार महिलाएं ही नायिकाओं के रूप में चित्रित हैं.उन्होंने इस दौरान आदिवासी लोकनायक आबोतानी की कहानी भी सुनाई.
राजीव गांधी यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सारा हिलाली ने अरुणाचल प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत पे अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया.
इस पूरे दिन का मंच संचालन नितिशा खलखो ने किया. मंगलवार से शुरू हुआ यह सेमिनार शुक्रवार तक लगातार रामदयाल मुंडा सभागार में संचालित होगा.

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