वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला बोले- देश के अंदर पत्रकारिता जिंदा है, तो वह क्षेत्रीय अखबारों की वजह से
प्रभु चावला का आज तक में इनकी ‘सीधी बात’ से इंटरव्यू की लंबी कड़ी आज भी लोगों के जेहन में है. उनका साफ मानना है कि मीडिया ने जिस दिन विश्वसनीयता से समझौता किया, उसका पतन तय है.
न्यू इंडियन एक्सप्रेस के एडिटोरियल डायरेक्टर प्रभु चावला शनिवार को प्रभात खबर संवाद में पहुंचे. देश की पत्रकारिता में पांच दशकों तक योगदान देनेवाले दिग्गज पत्रकार पद्यभूषण प्रभु चावला को भारतीय पत्रकारिता जगत में प्रभु के नाम से जाना जाता है. इनका प्रिंट और टीवी जर्नलिज्म में महती योगदान रहा है. ये इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस, फाइनेंसियल एक्सप्रेस के संपादक रह चुके हैं.
आज तक में इनकी ‘सीधी बात’ से इंटरव्यू की लंबी कड़ी आज भी लोगों के जेहन में है. प्रभु चावला का साफ मानना है कि मीडिया ने जिस दिन विश्वसनीयता से समझौता किया, उसका पतन तय है. वह अखबारों के भविष्य को लेकर थोड़ा भी निराशा का भाव नहीं रखते, क्षेत्रीय अखबारों को भारतीय लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ मानते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला ने प्रभात खबर संवाद में कहा कि क्षेत्रीय अखबारों में जाने और उनको देखने के बाद पता चलता है कि पत्रकारिता की वास्तविक स्थिति क्या है. क्षेत्रीय अखबारों में जायें, तो पता चलता है कि कुछ न कुछ नयी बातें हो रही है, जो दिल्ली में बैठकर नहीं देखा जा सकता है. इस देश के अंदर आज अगर पत्रकारिता जिंदा है, तो वह क्षेत्रीय अखबारों की वजह से.
यहां खबरों में विज्ञापन नहीं हाेता है. विज्ञापन में विज्ञापन होता है, लेकिन बाकी जगह लगता है कि विज्ञापन में खबर छाप रहे हैं. प्रभु ने दो टूक कहा : कंटेंट के लेबल पर भी खबर विज्ञापन बन गया और विज्ञापन खबर बनी गयी. इसका चलन आया है. इसी दौड़ में अखबार सस्ता बेचूंगा, सस्ता बिकना शुरू हो गया. आज एक लाख 57 हजार पब्लिकेशन हिंदुस्तान में रजिस्टर्ड हैं. 2001 में 90 हजार के करीब थे. आज छोटे-छोटे अखबार निकल रहे हैं.
सरकार भी विज्ञापन देती है, आपने दोस्तों-यारों को. उन्होंने कहा कि अखबार की लागत छह रुपये है, आप बेच रहे हैं दो रुपये में. अखबारों की इकोनॉमी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने कहा : आज इसके लिए वह पाठक-दर्शक को भी दोषी मानते हैं. आज का पाठक, आज का दर्शक पान पर 100 रुपये खर्च कर देगा, सिगरेट पर दो सौ रुपये खर्च कर देगा, लेकिन सुबह की अखबार को लिए पांच के बजाय 10 रुपये देने के लिए तैयार नहीं है.
प्रभु ने कहा :
हर कोई कहता है कि अखबार मिशन है, मैं कहता हूं कि अखबार मिशन नहीं है. यह एक बिजनेस है, लेकिन दूसरे बिजनेस से अलग है. हमारे लिए बॉटम लाइन जरूरी नहीं है. बाइ-लाइन जरूरी है. पाठकों को विज्ञापनों में लुभाया जाता है. पाठकों को इनफॉरमेशन चाहिए. जब पाठकों को लगा कि न्यूज भी सस्ती मिल सकती है.
यह सब प्रतिद्वंद्वता से शुरू हुई. उसकी वजह से इकोनॉमी बिगड़ गयी. हिंदुस्तान के अंदर जर्नलिज्म क्यों चीप होता जा रहा है? प्रतिष्ठा क्यों गिर रही है? 1993 से न्यूज पेपर का व्यवसायीकरण शुरू हुआ. प्रोडेक्ट बना कर बेचना शुरू किया. विज्ञापनदाता के साथ डील करने लगे.
अखबार कभी खत्म नहीं हो सकते : प्रभु ने कहा : चैलेंज था कि अखबार की इकोनॉमी को कैसे ठीक किया जाये. अब जिंदा रखने की चुनौती है. चैलेंज हमारे अंदर है, पत्रकारिता को सबसे बड़ा दुश्मन पत्रकारिता ही है. न्यूज पेपर का दुश्मन न्यूज पेपर है. आज हम फैसला कर लेंगे कि अखबार 12 रुपये का बेचेंगे, जिसको लेना है ले, नहीं लेना है नहीं ले. विज्ञापनदाता को अखबार चाहिए, जो भी मर्जी है, कर लीजिए, कुछ भी कर लीजिए हिंदुस्तान के अंदर अखबार कभी खत्म नहीं हो सकता. अखबार पढ़ने की आदत है.
बैलेंस बनाने की जरूरत :
उन्होंने कहा : टीवी में होता क्या है, बहस होती है, गाली होती है. इंटरटेंमेंट है. अखबार पढ़ने की आदत अखबार को जिंदा रखना है, तो इकोनॉमी देखनी होगी. जब तक आप अपना आर्थिक स्वास्थ्य नहीं सुधारेंगे, तब तक संभव नहीं है. अपनी एकाउंटिबिलिटी बढ़ाइये, व्यवसायीकरण ज्यादा नहीं हो. व्यवसायीकरण और संपादकीय विश्वसनीयता में एक बैलेंस बनाने की जरूरत है.
प्रभु ने कहा : एडिटोरियली समझौता करेंगे, व्यवसायीकरण को आगे बढ़ायेंगे, तो लोग कभी गोदी मीडिया कहेंगे, कभी पेड मीडिया कह देंगे. आपके आगे एडजेक्टिव लगने लगेंगे. रेवन्यू ओरिएंटेड मीडिया बनेंगे, तो आपके क्रेडिबिलिटी कम होगी. आपको औरों से अलग होना होगा. लोकल मीडिया बनना होगा. सेलिब्रेट योर ओन स्टेट. अपने राज्य को बड़ा बनाइये. आप निगेटिव से बाहर निकलना चाहते हैं, तो अच्छी-अच्छी खबरें हैं.
जनता से जुड़िए़, जनता की तकलीफ, उनकी अच्छी चीजें लिखिए़. स्थायी मॉडल वही है, जिसके अंदर वैल्यू, न्यूज और रेवन्यू हो, उसका बैलेंस हो, टीवी से मीडिया को जज नहीं कीजिए़़. आज तीन प्रतिशत लोग टीवी देखते हैं. टीवी के दर्शकों की संख्या पिछले तीन साल में 70 प्रतिशत गिरी है. ये इंटरटेंमेंट चैनल बन गये हैं. अब समय आ गया है, पत्रकारिता का नया दौर आया है, जिसमें सही पत्रकारिता ही जिंदा रहेगी. आप अपने पाठक और श्रोता की सुनिए़़, वो सड़कों पर गाली दे रहे हैं. उनकी आवाज सुनिए, आपके माई-बाप वही हैं. वह क्या चाहते हैं? वह चाहते हैं कि आपने मिर्च ज्यादा डाल रखी है, मसाला डाल रखा है. सादा खाना दीजिए. आप चटपटा न्यूज, पैकेजिंग कर के नहीं चलेगा.