रांची : दिशोम गुरु यानी कि शिबू सोरेन 11 दिसंबर को 81 साल के हो जाएंगे. उनका जन्मदिन हर साल झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्ता धूमधाम से मनाते हैं. उनका जन्म रामगढ़ के नेमरा गांव में सोबरन मांझी के घर हुआ था. उनके पिता सोबरन मांझी की गिनती उस इलाके में सबसे पढ़े लिखे आदिवासी शख्सियत के रूप में होती थी. वह पेशे से एक शिक्षक थे. यूं तो वे बेहद सौम्य स्वाभाव के माने जाते थे. लेकिन सूदखोरों और महजनों से उनकी बिल्कुल नहीं बनती थी. इसकी सबसे बड़ी वजह सूदखोरों और महाजनों का उस वक्त आदिवासियों के प्रति बर्ताव था.
पिता सोबरन मांझी ने महाजनों के खिलाफ छेड़ा आंदोलन
कहा जाता है कि उस वक्त महाजन आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर उनका डेढ़ गुणा अधिक वसूल लेते थे. सूद न चुकाने के एवज में कई बार उनकी जमीन भी छीन लेते थे. इसी का विरोध सोबरन सोरेन कर रहे थे. कई बार ग्रामीणों को अपने ही खेत में धान उपजाने के बाद उसका हक नहीं मिल पाता था. क्योंकि आधा आधे से ज्यादा हिस्सा महाजन जबरन ले जाते थे. इसी का विरोध उनका पिता सोबरन मांझी करते थे. वे हमेशा आदिवासियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करते थे. उनकी इस हरकत से वे महाजनों और सूदखोरों के आंखों की किरकिरी हो गयी. शिबू सोरेन उस वक्त हॉस्टेल में रहकर पढ़ाई कर रहे थे.
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27 नवंबर 1957 को हुई शिबू के पिता सोबरन सोरेन की हत्या
27 नवंबर 1957 की सुबह शिबू सोरेन को पता चला कि उसके पिता की हत्या कर दी गयी है. झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार अनुज सिन्हा की किताब में शिबू सोरेन के बायोग्राफी में विस्तार से इसका जिक्र है. वे लिखते हैं कि पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन को पढ़ाई में मन नहीं लगा और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. उसी वक्त से उन्होंने महजनों के खिलाफ आवाज उठाने की सोची. तब उन्होंने आदिवासी समाज के एकजुट किया और महाजनों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. उन्होंने धनकटनी आंदोलन शुरू किया. जिसमें वे और उनके साथी जबरन महजनों की धान काटकर ले जाया करते थे. जिस खेत में धान काटना होता था उसके चारों ओर आदिवासी युवा तीर धनुष लेकर खड़े हो जाते थे. धीरे धीरे उनका प्रभाव बढ़ने लगा था. आदिवासी समाज के लोगों में इस नवयुवक के चेहरे पर अपना नेता दिखाई देने लगा था, जो उन्हें सूदखोरों से आजादी दिला सकते थे. जिसके बाद से उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि मिली. संताली में दिशोम गुरु का मतलब होता है देश का गुरु. बाद में बिनोद बिहारी महतो और एके राय भी आंदोलन से जुड़ गये. धीरे धीरे उन्हें अपनी राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस हुई.
4 फरवरी 1972 को हुआ झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन
4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन और उनके साथियों ने बिनोद बिहारी महतो के घर पर बैठक की. बैठक में नये संगठन बनाने का फैसला लिया गया. अंत में सर्व सम्मति से इसका नाम झारखंड मुक्त मोर्चा रखने का फैसला लिया गया. जिसमें बिनोद बिहारी महतो को अध्यक्ष और शिबू सोरेन को महासचिव चुना गया था. उस वक्त सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन करने की वजह से शिबू सोरेन पर कई केस दर्ज हो चुके थे. पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए छापेमारी तेज कर दी. लेकिन शिबू सोरेन हर बार पुलिस को चकमा देकर फरार हो जाते थे. नये संगठन बनने के बाद से शिबू सोरेन की लोकप्रियता बढ़ चली थी. पहली चुनाव वे 1980 में लड़े लेकिन हार गये. लेकिन 3 साल बाद हुए मध्यवधि चुनाव में उन्हें जीत हासिल हुई. साल 1991 में उनकी पार्टी का बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस का गठबंधन हुआ जिसमें झामुमो का प्रदर्शन शानदार रहा. तब से लेकर आज तक झामुमो की ताकत लगातार बढ़ती चली गयी. वह तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे. लेकिन वह लंबे समय तक मुख्यमंत्री कुर्सी पर काबिज नहीं रह सके. भले ही वे लंबे वक्त तक सीएम नहीं रह सके. लेकिन आज उनके बेटे और राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत ने उसे आगे बढ़ाया और वर्तमान में झामुमो झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है.
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