अफ्रीका तक अपनी पहचान बनाने वाला सिल्ली का आगर उद्योग, अस्तित्व बचाने के लिए कर रहा संघर्ष

देश और दुनिया में लौह उद्योग के माध्यम से सिल्ली ने अपनी विशेष पहचान बनाई है. लेकिन अब यह सिल्ली का यह उद्योग विलुप्त होने की कगार पर खड़ा है.

By Kunal Kishore | September 19, 2024 5:59 PM
an image

सिल्ली, विष्णु गिरि : मुरी सिल्ली का इलाका, वैसे तो मुरी एल्युमिनियम कारखाने के लिये पूरे देश में प्रसिद्ध है. लेकिन इससे ठीक सटा हुआ इलाका है सिल्ली, जहां एक की एक लोहार बस्ती की आजीविका लोहे के उद्योग पर ही निर्भर है. इस टोला के लोग पुराने जमाने से आगर का उत्पादन करते है. यह औजार लकड़ी अथवा लोहे में छेद करने के उपयोग में लाया जाता है.

दरवाजों में लगने वाले सामानों का भी करते हैं निर्माण

इसके अलावे ये लोग लोग दरवाजा में लगने वाला लोहे का क्लेम्पू, हसकल, लकड़ी का औजार बटाली और कचक, हंसुआ, दावली, कुल्हाड़ी जैसे कई औजार भी तैयार करते है. लेकिन इनका मुख्य काम आगर बनाने का ही है.
कभी अफ्रीका तक अपनी पहचान बना चुका सिल्ली का है लौह उद्योग आज विलुप्त होने के कगार पर आ गया है. जो कुछ चल रहा है तो भगवान भरोसे. एक ओर सरकार लोकल फोर वोकल के लिये नयी पीढ़ी को जागरूक कर रही है. तो दूसरी ओर सिल्ली का लौह उद्योग अपना अस्तित्व बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है.

सिल्ली के बनाए आगर की मांग पूरे देश में

यहां के उत्पादित औजार स्थानीय दुकानों के अलावा, बुंडू, पतराहातु, राहे, तमाड़, किता, जोन्हा आदि के बाजारो में भेजे जाते है. वहां यह काफी ऊंचे कीमत पर बिकती है. सिल्ली के आगर की गुणवत्ता इतनी प्रसिद्ध है कि सिल्ली के बनाये आगर की पूरे देश भर में मांग है.

अफ्रीका भेजे जाते थे सिल्ली के आगर

एक कारीगर ने बताया कि पहले सिल्ली के आगर को पहले देश के दक्षिण भारत से अफ्रीका तक भेजा जाता था. आज भी सिल्ली के कारीगर उत्पादित आगर को पश्चिम बंगाल के व्यापारियों को बेच देते है. अलावे पश्चिम बंगाल के झालदा व पुरुलिया से इसकी ब्रांडिंग करके देश के दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, लखनऊ, राउरकेला, दक्षिण भारत के भी शहरों समेत देश के अन्य हिस्सों में भेजा जाता हैं. वहां ऊंचे कीमतों पर बेची जाती है. लेकिन इसके मूल कारीगरों को किसी तरह पेट भर मजदूरी ही मिल पाती है.

कारीगरों ने बताई अपनी आपबीती

कारीगरों ने बताया कि पहले काफी संख्या में लोग इस उद्योग में लगे थे. लेकिन अब सिल्ली में करीब 40 से पचास भठ्ठी ही बचे है जहां आगर व अन्य औजारों का निर्माण किया जाता है. एक कारीगर राधा रमण विश्वकर्मा आगर में घाटा होने लगा तो वे अब दावली, कुल्हाड़ी, टांगा समेत अन्य औजार बनाकर पेट पाल रहे है. नीरू विश्वकर्मा ने बताया कि आगर उद्योग के लिये जरूरी लोहा ही समय पर नहीं मिल पाता, अगर मिलता भी है तो काफी ऊंचे कीमत पर. इसके अलावे अन्य खर्च काट कर एक कारीगर को करीब तीन सौ रुपये ही बचते है इसलिये आने वाली पीढ़ी के लोग भी इस काम मे रुचि नहीं ले रहे है.

कोयले की कमी के कारण हो रही परेशानी

विश्वकर्मा एवं मनभुला विश्वकर्मा बताते है कि सिल्ली के लोहार टोला समेत अन्य कारीगरों को मिलाकर लोहार की भांति की संख्या करीब तीस से चालीस ही बचे हैं. कोयला की कमी से काम में परेशानी हो रही है. कोयला 10 केजी में 100 रुपये का खर्च है. इस पर रोज दिन लेबर और मिस्त्री में छह सौ का खर्च आता है. कुल मिलाकर एक भांति पर सात सौ का खर्च है. यहां के कारीगर को मात्र पेट भरने भर ही रुपये मिलते है.

नयी तकनीक से नई पीढ़ी जुड़ेगी

सिल्ली के कारीगरों ने बताया कि पुराने पद्धति से आगर के निर्माण एवं इससे होने वाली कम आय के कारण नयी पीढ़ी के युवा रुचि नहीं ले रहे हैं. अगर राज्य सरकार सिल्ली के आगर उद्योग को प्रोत्साहन दे, नई तकनीक आये, इस आगर उद्योग में मशीनीकरण हो तो, आय बढ़ेगी. फिर नयी पीढ़ी भी जुड़ेगी तो उद्योग बचेगा, सिल्ली का नाम फिर से देश दुनिया में होगा नहीं तो पुराने कारीगरों मरने के साथ ही सिल्ली का लौह उद्योग का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा.

पीएम विश्वकर्मा योजना का नहीं मिला अबतक लाभ

लुपुंग पंचायत में इचाक के निवासी विक्की लोहार ने बताया कि पीएम विश्वकर्मा योजना में फार्म भी भरे है करीब दो महीना हो गया लेकिन भी तक कोई लाभ नहीं मिला है.

Also Read: PM Modi Gift: आदिवासियों के उत्थान पर मोदी सरकार करेगी 79 हजार करोड़ खर्च, झारखंड को भी होगा फायदा

Exit mobile version