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मांय माटी: ग्रामसभा के सशक्त होने से बदल रही है असुर आदिवासी समुदाय की स्थिति

आदिवासी इलाकों में ग्रामसभा के माध्यम से सरकारी योजनाएं लाने के लिए सर्वसम्मति से निर्णय लिया जा रहा है, जिससे गांवों में स्थितियां बदल रही हैं. इसमें स्त्रियों की मजबूत भागीदारी भी नजर आती है.

मांय माटी: झारखंड के एक गांव में डुगडुगी बज रही है. लोग धीरे-धीरे निकल रहे हैं और पेड़ के नीचे जुट रहे हैं. स्त्रियां काफी संख्या में चली आ रही हैं. डुगडुगी की आवाज सुन कर बुजुर्ग भी पेड़ के नीचे जुट रहे हैं. यह जुटान ग्रामसभा की है. लोग गोल घेरे बना कर पेड़ की छांव में बैठ गये हैं. स्त्रियां छोटे बच्चों के साथ बैठी हैं. इसके साथ ही वे खजूर के पत्तों की चटाई बनाने के लिए पत्तों को तेजी से आपस में गूंथ रही हैं. कुछ स्त्रियां चौड़े पत्तों से गुंगू बना रही हैं, वहीं दूसरी तरफ वे ग्रामसभा में हो रहे संवाद को भी ध्यान से सुन रही हैं. गांधी जी अपनी बैठकों में चरखा चलाते रहते थे और दूसरों को सुनते भी रहते थे. वे जिस जीवन मूल्य का अपने जीवन में अभ्यास किया करते थे, उसे आदिवासी जीवन शैली में लोगों को सहज तरीके से जीते हुए देखा जा सकता है.

यह झारखंड के गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड में स्थित लुपुंगपाठ गांव है, जो पहाड़ों के ऊपर पाठ में बसा हुआ है. यहां विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समुदाय ‘असुर’ रहते हैं. गांव में करीब 90 परिवार हैं. आज असुर समुदाय को विलुप्त होने की कगार पर खड़े समुदायों में गिना जाता है. गांव की ग्रामसभा के सशक्त होने से असुर आदिम समुदाय किस तरह सशक्त हुआ है और गांव की दिशा-दशा किस तरह बदल रही है, लुपुंगपाठ गांव इसका एक उदाहरण है.

लुपुंगपाठ गांव में बहुत पहले ग्रामसभा की बैठक नहीं होती थी, लेकिन इधर कुछ सालों से गांव में लोग ग्रामसभा की बैठक कर रहे हैं. ग्रामसभा आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था का ही हिस्सा है. 1996 में पेसा एक्ट के द्वारा इसे सशक्त किया गया है. ग्रामसभा की सहमति और अनुमति के बिना गांव में कोई भी सरकारी योजना शुरू नहीं हो सकती, इसलिए ग्रामसभा की भूमिका बढ़ गयी है, लेकिन इसका दुष्परिणाम यह भी है कि जल, जंगल, जमीन पर कब्जा करने के लिए कंपनियां फर्जी ग्रामसभा भी तैयार करती हैं. ग्रामसभा में गांव की स्त्रियां काफी संख्या में हिस्सा लेती हैं. वे मुखर और सशक्त हुई हैं और निर्णय प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाती हैं.

गांव के युवा संचित असुर, जिन्होंने गुमला शहर में रह कर पढ़ाई की है और फुटबॉल के खिलाड़ी भी रहे हैं, कहते हैं, ‘शुरू में गांव के पुरुष समझते थे कि स्त्रियां सिर्फ खाना बनाने और पानी भरने के काम के लिए होती हैं. इसलिए वे पारंपरिक बैठकों में हिस्सा नहीं लेती थीं. उनमें सिर्फ पुरुष ही बैठते थे और लड़ाई-झगड़े के मामले ही सुलझाते थे. लिखित रूप से कोई काम नहीं होता था. पंच बोल कर ही सारा निर्णय देते थे. स्त्रियां किसी भी नये व्यक्ति को देखते ही छिप जाती थीं, लेकिन जब से ग्रामसभा में स्त्री और पुरुष दोनों मिल कर बैठने लगे, निर्णय प्रक्रिया में दोनों अपनी भूमिका निभाने लगे हैं, तब से गांव में सकारात्मक बदलाव भी नजर आ रहा है.’

निर्मला असुर बताती हैं, ‘गांव में ग्रामसभा की वजह से महिलाएं घरों से निकल बैठकों में जाने लगी है़ं उनका आत्मवश्विास बढ़ा है. उन्होंने गांव के आसपास बॉक्साइट खनन के लिए आये लोगों को भी भगाया है़ इसके लिए गांव की स्त्रियों ने मिल कर संघर्ष किया था.’

सरिता असुर हॉकी की खिलाड़ी रही हैं. देश के कई हिस्सों में उन्होंने हॉकी प्रतियोगिता में भाग लिया है. वह मेजर ध्यानचंद प्रतियोगिता में भी खेल चुकी हैं. विवाह के बाद अब लुपुंगपाठ गांव में रहती हैं. वह कहती हैं, ‘लुपुंगपाठ में पानी की काफी कमी थी. नहाने, पीने, बर्तन धोने के लिए भी पानी झरनों से ढो कर लाना पड़ता था. जब ग्रामसभा में स्त्रियां बैठने लगीं, तो उन्होंने पानी की समस्या का मुद्दा उठाया़ फिर गांव में जलमीनार बनाने के लिए पंचायत कार्यकारिणी समिति को आवेदन दिया गया. जब प्रखंड स्तर तक आवेदन पहुंचा, तब गांव में जलमीनार बन गया है. आज गांव में दो जलमीनार हैं.’

फिलोमीना असुर बताती हैं, ‘पहले राशन के लिए एक घंटे की दूर पर पहाड़ के नीचे स्थित कटकाही गांव जाना पड़ता था. बरसात के मौसम में चावल लाने के समय खुद से ज्यादा चावल को बचाने की जद्दोजहद रहती थी. ग्रामसभा में बैठक होने पर लोगों की सर्वसहमति से नया लुपुंगपाठ टोली में राशन की सुविधा लायी गयी. यहां गांव का ही एक आदमी राशन वितरण का काम करता है. यह एक बड़ी सुविधा हो गयी है.’

गांव के बेनेडिक्ट असुर कहते हैं, ‘साल 1908 में गांव में हैजा फैला था. तब कुछ लोगों ने अलग होकर नया टोला बनाया. यही नया लुपुंगपाठ टोला है. पहले लोगों को चैनपुर प्रखंड के कटकाही गांव जा कर राशन लेना पड़ता था. वहां राशन देने में बेईमानी भी की जाती थी. तब लोगों ने ग्रामसभा के माध्यम से अपने गांव क्षेत्र में राशन वितरण की सुविधा की मांग की. ग्रामसभा में लोगों के जुटने की वजह से कोई भी फैसला लेना आसान होता है.’

ग्रामसभा में लोगों ने आठ समितियां बनायी हैं. इसमें ग्राम विकास समिति, सार्वजनिक संपदा समिति, कृषि समिति, स्वास्थ्य समिति, ग्राम रक्षा समिति, आधारभूत संरचना समिति, शिक्षा व सामाजिक न्याय समिति और निगरानी समिति बनायी गयी हैं. इन समितियों के माध्यम से गांव के लोग को ही अलग-अलग जिम्मेदारियां दी गयी हैं.

शिक्षा और सामाजिक न्याय समिति के माध्यम से गांव के बच्चों की शिक्षा को लेकर लोगों ने चिंता व्यक्त की, क्योंकि कोरोना के समय स्कूल बंद होने पर बच्चों की पढ़ाई बाधित हो गयी थी. ऐसे में ग्रामसभा में लोगों ने रात्रि पाठशाला शुरू करने का निर्णय लिया. गांव के ही एक शिक्षित व्यक्ति को इसकी जिम्मेदारियां सौंपी गयीं. इस रात्रि पाठशाला में पढ़ने के लिए गांव के करीब पचास बच्चे जुटने लगे. शिक्षक के रूप में पढ़ाने वाले जॉन असुर कहते हैं, ‘गांव के लोगों ने मिल कर ग्रामसभा में यह निर्णय लिया है. इसलिए वह रोजाना शाम को बच्चों को समय देते हैं. इसके लिए गांव के लोग प्रति बच्चा एक दिन का एक-एक रुपया के हिसाब से भुगतान करते हैं.’

इस गांव के लोगों ने ग्रामकोष का भी निर्माण किया है. इसमें लोग चावल या फिर रुपये जमा करते हैं. इसका उपयोग गांव के लोग अकास्मिक जरूरतों, गांव की सार्वजनिक आवश्कयता या व्यक्तिगत परेशानियों के समय भी कर्ज लेकर करते हैं.

गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड के प्रखंड विकास पदाधिकारी डॉ शिशिर कुमार सिंह कहते हैं, ‘ग्रामसभा के माध्यम से ही सरकार की विकास योजनाएं गांवों तक पहुंचती हैं. गांव सजग हो रहे हैं. ग्रामसभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. पुरुष से अधिक सक्रिय महिलाएं हैं. गांवों में लोगों को ठगने के लिए आने वालों पर कानूनी कार्रवाई भी होती है. अब तक करीब 118 ऐसे मामले दर्ज किये गये हैं. ग्रामसभा की सहमति के बिना कोई काम करना एक तरह से अपराध है.’

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