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खरसावां गोलीकांड के बाद गांधी-पटेल को गया था टेलीग्राम, फिर क्या हुआ, जानें पूरा इतिहास

एक जनवरी, 1948 को खरसांवा में पुलिस की फायरिंग में बड़ी संख्या में आदिवासी मारे गये थे. खरसावां गोलीकांड के बाद गांधी-पटेल को टेलीग्राम गया था. उसके बाद क्या हुआ, पढ़ें पूरा इतिहास..

एक जनवरी, 1948 को खरसांवा में ओडिशा पुलिस की फायरिंग में बड़ी संख्या में आदिवासी मारे गये थे. कितने आदिवासी शहीद हुए थे, गोलीकांड के 75 साल बीत जाने के बाद यह रहस्य ही बना हुआ है. स्टेट्समैन ने 3 जनवरी, 1948 के अंक में पुलिस फायरिंग में 35 लोगों के मारे जाने की खबर छापी थी. किसी अखबार ने 40 छापा. जयपाल सिंह ने बाद में अपनी सभा में हजार आदिवासियों के शहीद होने की बात कही. किताबों में दो हजार तक की चर्चा हुई. लेकिन सच क्या है, आज तक पता नहीं चल सका. आदिवासियों पर हुई फायरिंग और बड़ी संख्या में लोगों के मारे जाने की सूचना तब महात्मा गांधी, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल, कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद, बिहार तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष महामाया प्रसाद को टेलीग्राम से देते हुए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया गया था (देखें हिंदुस्तान स्टैंडर्ड, कोलकाता, 3 जनवरी, 1948). लेकिन उस समय देश में कई बड़ी घटनाएं घट रही थीं. आजादी के ठीक बाद दंगे हो रहे थे, गांधीजी अनशन पर थे, रियासतों के भारत में विलय का समय था. इसलिए खरसांवा पुलिस फायरिंग का मामला दबता चला गया.

ऐसी बात नहीं है कि मामले की जांच नहीं गयी. भले ही इसके बहुत दस्तावेज सार्वजनिक नहीं हुए हों लेकिन उन दिनों देश के प्रमुख नेताओं के बीच जो पत्राचार हुआ था, उससे अनेक जानकारियां मिलती हैं. ऐसा ही एक पत्र सरदार पटेल ने राजेंद्र बाबू को लिखा था. 24 जनवरी, 1948 को सरदार पटेल ने लिखा-नागेंद्र सिंह, संबलपुर कमिश्नर की रिपोर्ट मैं भेज रहा हूं, जिसे मैंने खरसावां स्पॉट पर जांच के लिए भेजा था. इससे स्पष्ट है कि जांच हुई थी लेकिन वह सार्वजनिक रिपोर्ट कहां रह गयी, आज तक पता नहीं चल पाया. बाद में महाराष्ट्र के न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था.

जिन दिनों यह घटना घटी थी, संविधान निर्माण का समय था. संविधान सभा थी. 1952 के चुनाव के बाद संसद में कई बार खरसावां की घटना की चर्चा हुई, लेकिन शहीदों की संख्या स्पष्ट नहीं हो सकी. अप्रैल, 1966 में जब किसी घटना पर बहस हो रही थी तो लोकसभा में जयपाल सिंह भी थे. उन्होंने खरसावां फायरिंग का मुद्दा उठाया था. तब राममनोहर लोहिया ने कहा था-मैं जयपाल सिंह से कहूंगा कि कम से कम मैं पूरे भारत में ऐसा आदमी रहा हूं, जिसने हमेशा अपनी आवाज इसके खिलाफ उठायी है. वे जानते हैं कि खरसावां के मामले को लेकर मैं पहला हिंदुस्तानी रहा हूं, जिसने कहा है कि यह जालियांवाला बाग से भी खराब कांड था. (देखिए लोकसभा डिबेट्स, 7 अप्रैल, 1966 पृष्ठ 10104)

खरसावां गोलीकांड आजाद भारत का पहला सबसे बड़ा गोलीकांड था और इस गाेलीकांड ने बिहार समेत कई राज्यों की राजनीति बदल दी थी. तब जयपाल सिंह की अगुवाई में आदिवासी महासभा अलग झारखंड की लड़ाई लड़ रही थी. जयपाल सिंह जानते थे कि अगर सरायकेला-खरसावां का ओड़िशा में विलय हो जायेगा तो जब कभी झारखंड बनेगा, उसमें इन दोनों को शामिल करना आसान नहीं होगा. हुआ भी वही. जब 2000 में झारखंड बना तो सिर्फ बिहार का बंटवारा हुआ. तब बिहार के नेताओं का देश की राजनीति में दबदबा था. उन्होंने साथ दिया और सरायकेला-खरसावां को बिहार (तब झारखंड नहीं बना था) में शामिल करने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी. खुद राजेंद्र बाबू भी मोरचा संभाले हुए थे. सच्चिदानंद सिन्हा दस्तावेज बनाते थे. बाद में ओड़िशा के मुख्यमंत्री हरेकृष्ण मेहताब, सेंट्र्ल प्रोविंस के आरएस शुक्ल आदि का देश के कुछ प्रमुख नेताओं पर भारी दबाव पड़ा. इसी दबाव में धीरे-धीरे बिहार कांग्रेस के नेताओं को जयपाल सिंह से दूरी बनानी पड़ी थी. ये सारी बातें दस्तावेज में है.

हुआ क्या था एक जनवरी को

सरायकेला-खरसावां को ओड़िशा में विलय करने के समझौता पर दोनों स्टेट्स के महाराजा ने हस्ताक्षर कर दिया था. एक जनवरी, 1948 से यह लागू होना था. 31 दिसंबर की रात से ही ओड़िशा पुलिस ने पूरे क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया था. जयपाल सिंह ने इस विलय का विरोध कर आदिवासियों से खरसावां मार्च कर वहां सभा करने की अपील की थी. जयपाल सिंह आदिवासी महासभा के अध्यक्ष थे और उनकी एक अपील पर 50 हजार आदिवासी अपने पारंपरिक हथियारों के साथ खरसावां पहुंच गये थे. खुद जयपाल सिंह उस दिन वहां नहीं पहुंच सके थे. आदिवासी महासभा के सदस्य-कार्यकर्ता और आंदोलनकारी खरसावां राजा से मुलाकात भी की थी जिन्होंने साफ कर दिया था कि उनके हाथ में कुछ भी अधिकार नहीं है. ओड़िशा प्रशासन के पास सारा अधिकार है. इसके बाद आदिवासी महासभा ने हाट के करीब सभा की. उसी सभा में आदिवासियों पर पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की थी. मारे गये लोगों की संख्या को कम बताने के लिए लाशों को ट्रकों पर लाद कर जंगल में फेंक दिया गया था. कुछ शवों को कुआं में भर दिया गया था. कोई गिनती नहीं थी. जिन गांवों-घरों से आदिवासी (इनमें महिलाएं और बच्चे भी थे) सभा में गये थे और मारे गये थे, उनके परिजनों को भी कोई जानकारी नहीं दी गयी थी. बाद में जयपाल सिंह ने शहीदों के परिजनों की सहायता के लिए खुद एक कमेटी बनायी थी, लेकिन इसका भी बहुत ब्योरा नहीं मिलता. अब गोलीकांड के 75 से ज्यादा वक्त गुजर चुका है और यह रहस्य ही बना हुआ है कि कितने आदिवासी शहीद हुए थे. कुछ प्रयास भी सरकार की ओर से किये गये लेकिन तथ्यों के अभाव में काम आगे बढ़ नहीं पाया. जो भी हो, झारखंड में नववर्ष की शुरुआत खरसावां पुलिस फायरिंग में शहीद आदिवासियों को नमन कर होती है. उनकी शहादत का झारखंड राज्य बनने में बहुत बड़ा योगदान है.

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