रांची (प्रवीण मुंडा). इतिहास में दर्ज है कि 1918 में पहली बार झारखंड के 400 गिरमिटिया मजदूरों का पहला जत्था अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में भेजा गया था. इन परिश्रमी लोगों को वहां जंगलों को साफ करने और सड़क बनाने के काम के लिए ले जाया गया था. इन मजदूरों का छह महीने का एग्रीमेंट होता था. अवधि पूरी होने के बाद वापस भेज दिया जाता था. उनकी जगह लेने के लिए और दूसरे लोगों को भेजा जाता. कई लोग वापस नहीं लौटे और वहीं बस गये. आज अंडमान में झारखंडियों की तीसरी-चौथी पीढ़ी निवास कर रही है. वर्तमान में इनकी आबादी है लगभग एक लाख. इन्हें अंडमान में ”रांची वाला” या ”रांचीयर” कहा जाता है. डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान की डॉक्यूमेंटरी ”टापू राजी” इन्हीं ”रांचीयर” की त्रासदी को बयां करती है. राजी टापू एक घंटे की फिल्म है, जिसके निर्देशक हैं बीजू टोप्पो. मार्गदर्शन मेघनाथ का है और एडीटिंग की है युवा फिल्मकार रूपेश साहू ने.
आज भी लड़ रहे हैं अपनी पहचान की लड़ाई
फिल्म दिखाती है कि कैसे 100 वर्ष से भी पहले कैसे झारखंड के लोगों का अंडमान में गिरमिटिया मजदूरों के रूप में जाना हुआ. झारखंड के मजदूरों ने अंडमान में जंगलों को साफ किया. आवागमन के लिए सड़कें बनीं और फिर इंसानी बस्तियां बसीं. भारत के अलग-अलग राज्यों, बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, झारखंड, पंजाब से लोग वहां जाकर बसे. पर आज सिर्फ झारखंडी ही हैं, जो वहां आज भी अपनी पहचान और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. इन्हें आदिवासी का दर्जा प्राप्त नहीं है. नौकरियों में आरक्षण नहीं है. पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसना पड़ रहा है. इनके बच्चों को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य मयस्सर नहीं है. फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे एक लंबे अरसे से अंडमान के झारखंडी अपने हक-अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन इन आंदोलनों की आवाज अभी भी मुख्यभूमि तक नहीं पहुंची है. आंदोलनकारी आगापीती कुजूर के नेतृत्व में लगभग 40 वर्षों तक आंदोलन चला. अब आंदोलन की कमान सिलवेस्ट भेंगरा सहित कुछ अन्य लोगों ने संभाल ली है. यह फिल्म उन झारखंडियों के दर्द, आवाज और संघर्ष को संवेदनशीलता के साथ दिखाती है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है