डॉ गणेश मांझी
असिस्टेंट प्रोफेसर, सेंटर फॉर मैथेमेटिकल एंड कंप्यूटेशनल इकोनोमिक्स
आइआइटी, जोधपुर
गोमहा पूनी यानि सावन के महीने का आखिरी और पूर्णिमा का दिन. गोमहा पूनी तक रोपा-रोपने के बाद फसल खेतों में लगभग बढ़ने वाले स्थिति में होते हैं, हालांकि ये प्रक्रिया अब धीमी हो चुकी है, शायद जलवायु परिवर्तन, समय से बारिश का न होना एक वजह हो सकता है. बचपन से ही देखा है गोमहा पूनी के दिन गांव घर के चारों ओर साफ-सफाई किया जाता है. साफ-सफाई का गांव में अलग ही उत्साह होता है और अन्य दिनों की अपेक्षा इस दिन कुछ अलग ही महसूस होता है.
फसल जब लगभग लहलहाने लगते हैं, फसलों में कीड़े-मकोड़े, कीट-पतंग आक्रमण शुरू कर देते हैं. इस समस्या का आदिवासियों के बीच प्राकृतिक समाधान रहा है. गोमहा पूनी के दिन कुछ लड़के/ पुरुष सुबह ही जंगल जाकर केऊंद (केंदु) के बहुत सारे छोटे पेड़ (गांव में गहरे खेतों की संख्या अनुसार) को काट कर लाते हैं, साथ में महादेव जट्ट की लत्ता, भेलवा (सोसो) की पत्तियां, और चिरचिट्ठी का पौधा भी ले आते हैं. केऊंद के छोटे पेड़ के एक सिरा को चीड़कर इन सारे पौधों और पत्तियों को लगाया जाता है.
तत्पश्चात इन सारे पौधे को एक जगह पर रखकर पूजा किया जाता है, कहीं-कहीं पर मुर्गे की बलि देकर भोज्य पदार्थ के रूप में पूर्वजों के साथ साझा किया जाता है, ताकि वे सुख-दुःख का हिस्सा बने रहें और पौधों की रखवाली में मदद भी करते रहें. पूजा के पश्चात, केऊंद के इस छोटे पेड़ को गहरे वाले खेतों के बीच में गाड़ दिया जाता है. अगर आपके मन में सवाल है कि केऊंद के छोटे पेड़ों को ही क्यों काटना है, इसका जवाब ये है की इसके पौधे गांवों में बहुतायत में होते हैं. काफी बार खेती योग्य टांड़ के निर्माण में इन छोटे पेड़ों और पौधों को साफ किया जाता है. केऊंद के पत्ते का ही इस्तेमाल बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है. तेन्दु/केऊंद के पत्ते का व्यवसाय बहुत बड़ा है.
महादेव जट्ट की लत्ता, भेलवा (सोसो) की पत्तियां, और चिरचिट्ठी का पौधा इन सारे पौधों और लताओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लाभ अभी भी खोज का विषय है लेकिन फसलों को बचाने का एक जरिया जरूर है. एक प्रत्यक्ष फायदा ये होता है की बीच में गाड़े गए इस छोटे से पेड़ में पक्षियां उड़ कर आती हैं, खेत के बीच वाले खूंटे में बैठती हैं, धान के पौधों को हानि पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़े और कीट-पतंगों का सफाया करतीं हैं.
केऊंद के इस छोटे पेड़ को लेकर खेतों में गाड़ने तक की पूरी प्रक्रिया को ‘भाख खूंटा’ गाड़ना कहते हैं. गोमहा और भाख़ खूंटा का दर्शन और फसल से जुड़ी समस्याओं का प्राकृतिक समाधान है. आदिवासी समुदायों के ग्रामीण पृष्ठभूमि में महादेव जट्ट को रानू (हंड़िया बनाने के लिए तैयार की गयी गोली) और पेशाब के अत्यधिक पीलापन होने पर दवाई के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. चिरचिठी पौधे का इस्तेमाल भी दवाई के रूप में होता रहा है, हालाँकि इन सारे पौधों का वैज्ञानिक अनुसन्धान से सत्यता की जांच जरूरी है.
काफी सारे आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के खेतों में भाख खूंटा देखने को मिलेगा. झारखंड के काफी सारे समुदायों में लगभग यही प्रक्रिया ‘करम’ त्यौहार के दूसरे दिन भी किया जाता है. करम त्यौहार भाद्रपद महीने की एकादशी को मनाई जाती है.
दिन में, मवेशियों को खेतों, जंगलों में चराने, घुमाने के बाद जब वापस लाया जाता है तो सोहराई में जिस प्रक्रिया से दाना (कोंहड़ा, उड़द और कुछ अन्य अनाजों को पकाकर तैयार किया हुआ) खिलाया जाता है उसी प्रक्रिया से गोमहा पूनी के दिन भी महुआ के साथ अन्य अनाजों को मिलाकर खिलाया जाता है. खिलाने से पहले मवेशियों के पैर और सींग धोये जाते हैं और तेल भी लगाए जाते हैं. पालतू पशुओं के साथ सौहार्दता और सहजीवन का ये अलग ही नमूना है जो अन्य मानव जातियों में विरले ही देखने को मिलेगा.
संयोग से गोमहा पूनी के दिन ही हिंदू धर्मावलंबी रक्षा बंधन मनाता है. गोमहा पूनी के दिन ही दूसरी बेला में गोसाईं/ पंडित आता था अपने साथ लाल-धागा लेकर और घर-घर घूमकर सबको तथाकथित रक्षा-सूत्र (लाल धागा) बांधता था और अपने साथ ढेर सारा धान बटोर के ले जाता था. फिर धीरे-धीरे लोग बाजार से प्रभावित होकर राखी खरीद कर लाने लगे और अपने भाइयों को बांधने लगे. दुर्भाग्य, अब आदिवासी लोग भी बहुतायत में गोमहा पूनी कम और रक्षा बंधन ज्यादा मनाने लगे हैं.
गोमहा पूनी सावन महीने के अंतिम दिन में मनाये जाने का ये भी मतलब नहीं है कि आदिवासी समुदाय बहंगी में या लोटे में या घड़े में पानी लेकर शिवलिंग पर जल चढाने जाते हैं. प्रभाववश कुछ आदिवासियों को करते हुए आप जरूर देख सकते हैं लेकिन वो बृहत् आदिवासी समाज की सोच और मान्यता नहीं है. बाजार का अतिक्रमण, आदिवासी त्योहारों, मान्यताओं का संस्कृतिकरण और आदिवासी समाज के इतिहास का मिटान का स्वरूप गोमहा पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.
बाजार और हिंदुकरण का प्रभाव के बाद दूसरा प्रभाव भी आपको यत्र-तत्र देखने को मिल जायेगा. जैसे: ईसाई धर्म अपनाने के बाद कुछ आदिवासी लोगों ने भाख खूंटा की जगह क्रॉस लगाते हैं. भाख खूंटा गाड़ने की मान्यता प्रत्यक्ष रूप से क्रॉस द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है. लेकिन इस विस्थापन का दर्द कहीं नहीं होता है क्योंकि विस्थापन के पहले दिमाग में विस्थापन की महिमा बैठा दी गयी है.
ईश्वर से प्रार्थना या पूर्वजों से आग्रह, आराधना जैसी भी हो उद्देश्य वही है लेकिन प्रतीकों को छोड़ना और बदल देना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है क्योंकि इससे त्योहारों, इनकी मान्यताओं और परंपराओं का क्षय होता है जो धीरे-धीरे आपके आदिवासी और आदिवासियत को लीलने का काम कर रहा है. आदिवासी समाज में नये ईश्वर और धर्म के आगमन से सामुदायिक जीवन, इनके ऐतिहासिक चिह्नों, मान्यताओं और तथ्यों पर भी अतिक्रमण और मिटान स्पष्ट देखा जा सकता है. संस्कृतिकरण अब काफी पुराना हो चुका है, अब इसकी जगह धीरे-धीरे धार्मिक साम्राज्यवाद ने ले लिया है.
दिन में, मवेशियों को खेतों, जंगलों में चराने, घुमाने के बाद जब वापस लाया जाता है तो सोहराई में जिस प्रक्रिया से दाना (कोंहड़ा, उड़द और कुछ अन्य अनाजों को पकाकर तैयार किया हुआ) खिलाया जाता है उसी प्रक्रिया से गोमहा पूनी के दिन भी महुआ के साथ अन्य अनाजों को मिलाकर खिलाया जाता है.