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झारखंड: आदिवासी महिलाओं ने डायन-बिसाही, विस्थापन व साहित्य पर सेमिनार में किया मंथन, एकजुटता का लिया संकल्प

झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि भले ही महिलाएं देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं, लेकिन महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों में 33 फीसदी के साथ उनका प्रतिनिधित्व कम है.

रांची: आदिवासी महिलाओं के मुद्दों और उसके समाधानों को लेकर रांची के एचआरडीसी में दो दिवसीय सेमिनार का रविवार को समापन हो गया. यह कार्यक्रम संस्था सखुआ द्वारा आयोजित किया गया था. कार्यक्रम के पहले दिन शनिवार को उन मुद्दों पर चर्चा की गई, जिनके खिलाफ आदिवासी महिलाएं अपने समुदायों के भीतर संघर्ष कर रही हैं. जैसे घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, कार्यस्थल और शैक्षणिक संस्थानों में भेदभाव और मानव तस्करी समेत अन्य मुद्दे शामिल थे. रविवार को इन मुद्दों के समाधान पर चर्चा की गयी और साथ मिलकर भविष्य की योजना पर चर्चा की गयी.

डायन-बिसाही के मामलों पर देना होगा ध्यान

झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि भले ही महिलाएं देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं, लेकिन महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों में 33 फीसदी के साथ उनका प्रतिनिधित्व कम है. राजनीति में आदिवासी महिलाओं पर उन्होंने कहा कि वे पंचायत स्तर पर आदिवासी महिलाओं की उपस्थिति देखती हैं. हालांकि उच्च सदनों में ज्यादा नहीं. आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक क्षेत्र में अपनी आवाज उठाने के लिए एक-दूसरे का समर्थन करना होगा. उन्होंने कहा कि झारखंड में डायन-बिसाही के मामलों पर भी ध्यान देना होगा, जहां आदिवासी महिलाओं को प्रमुख रूप से निशाना बनाया जाता है.

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विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासी

डॉ वासवी किड़ो ने वन विभाग के दावों को चुनौती दी कि हाल के वर्षों में झारखंड में वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है. उन्होंने आदिवासियों के लिए विस्थापन को एक प्रमुख मुद्दा बताया, जिसने विशेष रूप से आदिवासी महिलाओं को घरेलू नौकरानी के रूप में दिल्ली जैसे बड़े शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर किया है. उन्होंने कहा कि दिल्ली एक नई तरह की गुलामी की जगह है क्योंकि झारखंड की लाखों आदिवासी महिलाएं वहां अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रही हैं. महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए आगे आने की जरूरत है. विकास ने हमें कुछ नहीं दिया, इसने केवल हमसे लिया.

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संविधान का अध्ययन करना है महत्वपूर्ण

सामाजिक कार्यकर्ता अगस्टिना सोरेंग ने बताया कि आदिवासी महिलाओं के लिए भारत के संविधान का अध्ययन करना कितना महत्वपूर्ण है. एक कार्यकर्ता के रूप में सोरेंग स्कूलों, गांवों, यहां तक ​​कि शादियों में भी भारतीय संविधान की पुस्तिकाएं बांटती रही हैं, ताकि सभी आदिवासी महिलाओं को पता चले कि वे इस पितृसत्तात्मक समाज में बराबर खड़ी हैं और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज उठा सकती हैं.

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आदिवासी रीति-रिवाजों को बदलने की जरूरत

उत्तरी बंगाल से आई एक आदिवासी कार्यकर्ता क्रिस्टी नाग ने कहा कि आदिवासी रीति-रिवाजों को बदलने की जरूरत है और हमें यह पहचानने की जरूरत है कि सभी लिंगों को सम्मानजनक जीवन का अधिकार है. उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिम बंगाल में चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों को अभी भी ज़मीन पर कोई अधिकार नहीं है.

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आदिवासी साहित्य पर जोर

आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल और कुसुम ताई आलम ने आदिवासी साहित्य के महत्व पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि आदिवासी महिलाओं के लिए साहित्य में भाग लेना महत्वपूर्ण है ताकि वे अपनी कहानियां बता सकें. अपनी राय व्यक्त कर सकें और दूसरों को समझने के लिए अपने इतिहास और संस्कृति को संरक्षित कर सकें.

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एकजुट होने की जरूरत

सखुआ की संस्थापक मोनिका मरांडी ने कहा कि आदिवासी महिलाओं को विकास की राह पर आगे बढ़ना है, तो उन्हें एकजुट होने की जरूरत है. आदिवासी महिलाओं का एक नेटवर्क बनाने की कोशिश की जा रही है. मौके पर कुंद्रासी मुंडा, अलोका कुजूर, लक्ष्मी गोप, बसंती सरदार, आयव्स से एकता, मालाक्रा व सुनीता लकड़ा मौजूद थीं.

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