Prabhat Khabar special : पढ़ना, लिखना व बोलना होगा आदिवासियों को
ऐसे में यह प्रश्न आदिवासी समाज के समक्ष हमेशा से है कि क्यों नहीं कोई सुनता आदिवासियों को? इस कथन का खंडन अनेक करेंगे कि आदिवासियों के लिए बहुत कुछ किया गया है
डॉ अभय सागर मिंज
यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट ऑफ एंथ्रोपोलोजी
श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची
नॉर्वे विश्वविद्यालय के मित्र सह ‘द पोलिटिकल लाइफ ऑफ मेमोरी’ के लेखक राहुल रंजन ने अपनी पुस्तक के भूमिका में लिखा है कि आदिवासियों ने हमेशा स्पष्ट स्वर में अपनी बात/विरोध दर्ज किया है, किंतु हमारे ही पास उन्हें न सुनने की ‘कला’ उपस्थित है. ऐसा नहीं है कि उनकी आवाज की तीव्रता या अभिव्यक्ति में कमी है. अनेक बार हम आदिवासियों को जबरन अनसुना कर देते हैं. आदिवासियों की संघर्ष, दर्द, उत्पीड़न को समझने वाले कम हैं.
ऐसे में यह प्रश्न आदिवासी समाज के समक्ष हमेशा से है कि क्यों नहीं कोई सुनता आदिवासियों को? इस कथन का खंडन अनेक करेंगे कि आदिवासियों के लिए बहुत कुछ किया गया है, अब ‘जंगल’ में तो नहीं हो. किंतु प्रश्न अभी भी यही है कि अनेक दशकों के प्रयास, नीतियां और प्रावधानों के बावजूद जो अपेक्षित परिवर्तन होने थे, वे निश्चित ही नहीं हुए हैं.
अनेक आंतरिक और बाह्य कारण हैं, जिसके कारण हमारी आवाज ‘उनके’ कान को भेद नहीं पाती. सबसे प्रमुख है कि राजनीति में हमारे पास ‘बार्गेनिंग पॉवर’ शून्य है. जब तक हम राजनैतिक पार्टियों को एक सशक्त और संगठित वोट बैंक नजर नहीं आयेंगे, हमें हमेशा आसानी से ‘मैनेज’ किया जायेगा. आप अन्य संगठित समाज को देखिए जहां ‘राजनैतिक दिग्गज’, सामाजिक और धार्मिक अगुवा के द्वार पर हाजिरी देते हैं.
बदले में सामाजिक-धार्मिक अगुवा राजनैतिक दबाव बनाते हैं. अपने समाज के हित की रक्षा और आर्थिक उत्थान के लिए सहमति बनाते हैं. रक्षात्मक और विकासात्मक आश्वासन वचनबद्ध होते हैं. लेकिन जब हमारी बारी आती है तो तीन बंदरों का समावेश एक साथ देखने को मिलता है. ना आदिवासियों को सुनो, ना देखो और ना ही बोलो.
बाह्य कारण असंख्य हैं. आंतरिक कारणों में सबसे बड़ा कारक सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक और राजनैतिक संघर्ष का ‘क्षेत्र और बौद्धिक रूप से सीमित’ होना है. ये संघर्ष प्रभावित क्षेत्र तक सीमित रह जाते हैं और अपने ही अन्य आदिवासी समुदाय से उन्हें सहयोग नहीं मिलता है. लेकिन इसका भी एक कारण है. जब कभी एक सामाजिक आंदोलन कहीं तैयार होता है, तो ‘सुदूर अवस्थित’ आदिवासी के लिए उसके राजनैतिक प्रभाव को समझना आसान नहीं होता है.
संघर्ष को दूर से समझना और निकट से महसूस करना दोनों भिन्न है. एक आदिवासी को उसके गांव हर के जीवन सेके बा बहुत अधिक सरोकार नहीं होता है. एक राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से इसलिए वे जान-बूझकर तटस्थ रहते हैं.अनेक बार आपको धर्म, आदिवासी-गैर आदिवासी, आरक्षण इत्यादि के नाम पर विभाजित करने का प्रयास होता है और लोग इसमें सफल भी हुए हैं और होते आ रहे हैं.
“जब वो रोते हैं, तो आप चुप रहते हैं,
इसलिए जब आप रोते हैं, तो वो चुप रहते हैं”
पूरे भारत वर्ष में जितने भी आदिवासी समूह हैं उनका संघर्ष भिन्न है. उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में पिरोना असंभव है. और शायद ऐसा होना भी नहीं चाहिए. भारत विविधताओं में भी एकता की पहचान रखता है. सामाजिक और सांस्कृतिक समरूपता कठिन है लेकिन अस्तित्व की लड़ाई में ‘राजनैतिक’ समरूपता अनिवार्य हो जाता है. हम संगठित वोट बैंक नहीं हैं, इसलिए खंडित समाज को राजनैतिक दलों को ‘मैनेज’ करना आसान होता है.
एक बड़ी प्रचलित कथन हम सब पर थोपी गयीहै-‘राजनीति बहुत गंदी है’. यह सही भी हो सकता है, किंतु यह वही कारक है जो आपके और आपके आने वाली पीढ़ी का भविष्य तय करेगी. आप इसे ऐसे समझें कि जिस गाड़ी में आप सवार हैं उसकी चालक सीट पर कोई और बैठा है. जब तक आप ‘बार्गेनिंग पॉवर’ में नहीं आयेंगे, आपका भविष्य और गंतव्य, चालक पर निर्भर करेगी. राजनीति में आवश्यक नहीं कि आप अनिवार्य रूप से सक्रिय राजनीति में रहें, किंतु राजनीति से आप पूरी तरह से मुंह नहीं मोड़ सकते. आपको आपके समाज के लिए निर्माणाधीन नीतियां, प्रस्तावित कानून, योजनाएं इत्यादि के विषय में सजग रहना होगा.
बाहरी दुनिया की समझ के लिए शैक्षिक और बौद्धिक विकास आवश्यक है. अब तो यह और भी आवश्यक हो गया है कि यह शैक्षिक और बौद्धिक विकास के प्रयास आंतरिक हों. अंग्रेजी में एक कहावत है – इट मैटर्ज हू स्पीक्स फोर यू? यह महत्वपूर्ण है कि आपकी ‘आवाज’ कौन बनता है. हाल के दशकों में एक अवधारणा बहुत तेजी से विकसित हुई है और मानवशास्त्र में इसे हम ‘नेटिव राइटर्स’ या देशज लेखक कहते हैं. एक आदिवासी या अनुसूचित जनजाति की परिभाषा सदियों से कोई और बता रहा है. इसलिए यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि भारतीय संविधान में भी आदिवासी की कोई परिभाषा नहीं है और हमारे लिये जो संवैधानिक प्रावधान हैं, वह अनेक जगह अस्पष्ट हैं.
एक बहुत प्रचलित अफ्रीकी कहावत है- “जब तक बाघ लिखना नहीं सीखेगा तब तक हर कहानी शिकारी की ही महिमा गाएगी”. इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक आप लिखेंगे नहीं, तो आपका इतिहास या आपके बारे में कोई भी अन्य एकतरफा चित्रण कर सकता है, लिख सकता है. और आप उस गाथा में मात्र मूकदर्शक बने रहेंगे. जैसा कि इस कहानी में एक मारे गये बाघ की चर्चा है जिसने शायद एक जबरदस्त प्रतिरोध किया हो, किंतु उसका उल्लेख आपको कहीं नहीं मिलेगा. मरे हुए बाघ की प्रतिरोध गाथा कोई नहीं लिखता.
आदिवासी समाज का अध्ययन अंग्रेजों के लिए प्रशासनिक आवश्यकता थी. भारत के मूल निवासियों के विषय में अनेक ने अपनी कृतियों की रचना की. वर्ष 1820 में कैंपबेल, फिर हेमिल्टन, एडवर्ड डाल्टन, हरबर्ट रिसले, फरदीनंद हान, हॉफमैन, क्लेमेंट, एस सी रॉय इत्यादि की रचनाएं आयीं. आज आदिवासियों की मौखिक परंपरा को इन कृतियों ने बैसाखी प्रदान की है.
वृहद् समाज अपने लिखित साक्ष्यों और ग्रंथों के आधार पर हमें अपने अंदर समाहित करने के लिए लालायित है. ऐसा दिखाया जाता है कि यदि वृहद् समाज नहीं होता तो आदिवासियों का क्या होता. हमारी पहचान और अस्तित्व को हमेशा वृहद् संस्कृति का एक अदना सा भाग दिखाया जाता है. पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब हमारे ही आदिवासी समुदाय इस सानिध्य को बड़े गौरव के साथ आत्मसात करती हैं.
और हम साढ़े दस करोड़ मूक बने रहते हैं. ऐसे में यह आवश्यक है कि आपको लिखना चाहिए. बोलना चाहिए. पढ़ना चाहिए. ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज में चिंतक या लेखक नहीं हैं. जो हैं वे उम्दा हैं. किंतु ये गिने चुने हुए ही हैं. निरंतर परिवर्तन के कारण नयी चुनौतियां भी आयीं हैं. और ये हमारा ही दायित्व है कि नवीन दृष्टिकोण से इन चुनौतियों पर लिखा जाए.
राजनीति, सामाजिक उत्थान और धर्म का गहरा संबंध है. अनेक प्रार्थना सभा को निकट से देखने का प्रयास किया है. यह विशिष्ट धार्मिक पहचान के लिये आवश्यक है. किंतु मात्र धार्मिक अनुष्ठान और क्रियाकलाप से सामाजिक उत्थान संभव नहीं है. इसमें कोई संशय नहीं है कि आदिवासी धर्म ने समाज को एकजुटता प्रदान की है और समाज सुधारक प्रयास भी हुए हैं.
किंतु मेरा व्यक्तिगत मानना है कि वर्तमान परिवेश में धर्म के अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी हैं. प्रो अल्पा शाह अपने बहुचर्चित कृति ‘इन द शैडो ऑफ द स्टेट’ में लिखतीं हैं कि धर्म और त्योहार अब आपके ‘राजनैतिक पहुंच’ के परिचायक हैं. यह आपके समाज की उपस्थिति को दर्शाते है. किंतु आदिवासियों में धर्म के आगे क्या?
अन्य समाज में प्रत्यक्ष रूप में जो विशाल धार्मिक अनुष्ठान और गतिविधियां दिखाई पड़ती हैं, वह परोक्ष में एक प्रकार से ‘शक्ति प्रदर्शन’ है. इस शक्ति प्रदर्शन का उद्देश्य राजनैतिक दबाव एवं सामाजिक एकता को बनाये रखना है. उस से भी महत्वपूर्ण उद्देश्य, सामाजिक-आर्थिक उत्थान होता है. हमें यह आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि ‘आदिवासी धार्मिक सम्मेलन’ के आगे हमने सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए क्या कदम उठाये हैं.
धार्मिक सम्मेलन के द्वारा क्या हमने शिक्षा, सामाजिक भागीदारी, आर्थिक अनुदान, रोजगार, समानाधिकारवाद, नैतिक जिम्मेदारी का प्रयास किया है? आदिवासी समाज के भीतर जो अप्रत्यक्ष सामंतवाद है उसे मिटाने का प्रयास किया है? शायद नहीं. यहां तो हम दो आदिवासी मिल कर तीन संगठन बना रहे हैं !