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Tusu Festival: जीवन संगीत और लोक संस्कार की अभिव्यक्ति है टुसू परब

Tusu Festival: ‘टुसू’ विसर्जन के गीत करुणा भाव से ओत–प्रोत और बड़े मार्मिक होते है. टुसू गीतों में नारी जीवन के सुख दुख, हर्ष-विषाद, आशा-आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है. वस्तुत: टुसू पर्व एक संगीत प्रधान उत्सव है. टुसू त्योहार मनुष्य को पीड़ा से मुक्ति दिलाने वाला पर्व है.

My Mati: झारखंड के किसान मकर संक्रांति को एक उत्सव के रूप में मनाते हैं. टुसू शस्योत्सव है. मकर संक्रांति के दूसरे दिन ही कृषक अपने कृषिकर्म का उद्घाटन करते हैं जिसे ‘हारपुनहा’ कहा जाता है. इस दिन को लोग ‘आखाइन जतरा’ के नाम से भी जानते हैं. यह संयोग की ही बात कही जा सकती है कि मकर संक्रांति के दिन ही झारखंड में ‘टुसू‘ मनाया जाता है. ‘टुसू‘ का शुभारंभ अगहन संक्रांति के दिन से होता है. बांस की एक नयी टोकरी में ‘टुसू‘ की मूर्ति रखकर दीप, नैवेद्य जलाते हुए कुंवारी लड़कियां टुसू गीतों के साथ इसका उद्घाटन करती है. ‘टुसू‘ पर्व को ‘पूस परब’ के नाम से भी जाना जाता है. अगहन संक्रांति के दिन टुसू की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पौष संक्रांति को विसर्जन. ‘टुसू’ की स्थापना मुहल्ले या गांव के किसी निश्चित घर में की जाती है.

प्रत्येक शाम को मुहल्ले एवं गांव के लड़कियां उस निश्चित स्थल पर एकत्रित होती हैं और ‘टूसू’ गीत गाती हैं. ‘टुसू‘ की स्थापना में किसी मंत्रोच्चारण का विधान नहीं है. गीत गाकर पूजा की जाती है. यह प्रक्रिया महीने भर चलती रहती है. विसर्जन की पहली रात को ‘जागरण’ कहा जाता है. ‘टुसू’ को प्रतिदिन फूलों से सजाया जाता है. यह पर्व लोक संस्कार की एक अत्यंत मूल्यवान संपदा है. कई स्थानों पर टुसू के प्रतीक के रूप में ‘चौड़ल’ बनाया जाता है. वस्तुत: यह टुसू की पालकी है, जिसे विभिन्न रंगों के कागज द्वारा पतली लकड़ियों की सहायता से भव्य महल का आकार प्रदान किया जाता है. पौष संक्रांति के दिन लड़कियां चौड़ल को लेकर गाजे-बाजे के साथ गांव का भ्रमण करती हैं. फिर विसर्जन के लिए सभी धर्म, जाति, संस्कृति एवं भाषा के लोग बड़े प्रेम, एकता और आत्मीयता के साथ सदल–बल टुसू गीत गाते हुए ढोल, नगाड़ा, शहनाई आदि बजाते हुए किसी नदी के किनारे निर्दिष्ट स्थान पर जाते हैं. उस निर्दिष्ट स्थान पर विभिन्न गांवों के लोग अपने चौड़लों के साथ आते हैं जिससे मेला-सा लग जाता है.

‘टुसू’ विसर्जन के गीत करुणा भाव से ओत–प्रोत और बड़े मार्मिक होते है. टुसू गीतों में नारी जीवन के सुख दु:ख, हर्ष-विषाद, आशा-आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है. वस्तुत: टुसू पर्व एक संगीत प्रधान उत्सव है. टुसू त्योहार मनुष्य को पीड़ा से मुक्ति दिलाने वाला पर्व है. आपस की शत्रुता को मिटाकर आपसी सद्भाव लानेवाला त्योहार है. टुसू पर्व के दिन सभी लोग अपने को उन्मुक्त समझते हैं. यद्यपि यह जातीय उत्सव है, डॉ सुहृद कुमार भौमिक इसे सीमांत बंगाल का जातीय उत्सव मानते हैं. उनका मानना है कि टुसू एक कुरमी (महतो) की अत्यंत रूपवती कन्या थी. डॉ सुधीर करण ने अपने एक लेख ‘टुसू पुराण’ में असली नाम ‘रुक्मनी‘ था. टुसू पर्व अब अपनी जातीय सीमा को लांघकर सार्वजनिक हो गया है. वस्तुत: यह पर्व आर्य-अनार्य संस्कृति की द्विमुखी धारा बंगाल के पश्चिमी सीमांत और छोटानागपुर के पूर्वी-दक्षिणी क्षेत्र के जनमानस की लोक संस्कृति का उत्सव है.

यह पर्व कृषिजीवी समाज के शस्य की प्रचुरता की कामना का त्योहार है. जमीन की उर्वराशक्ति की इच्छा का पर्व है, हिंसक पशुओं से आत्मरक्षा एवं शस्य–रक्षा तथा संतानोत्पति की आकांक्षा इत्यादि का त्योहार है. इस पर्व को धूमधाम से मनाने के पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां/लोकोक्तियां–कुरमाली के समृद्ध साहित्य में उल्लिखित है. कुरमाली के विशाल समृद्ध साहित्य में इसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सजीव वर्णन है. वास्तव में ‘टुसू’ एक गरीब कुरमी कृषक की अत्यन्त सुंदर कन्या थी उसकी सुंदरता की तुलना स्वर्ग के ‘परी’ से की जाती थी. धीरे-धीरे संपूर्ण राज्य में उसकी सुंदरता का बखान होने लगा. इस क्रम में तत्कालीन क्रूर राजा के राज दरबार में भी खबर फैल गयी तथा राजा के कानों तक जा पहुंची.

‘टुसू’ की सुंदरता का बखान सुनकर राजा को लोभ हो गया तथा कन्या को प्राप्त करने के लिए षडयंत्र रचना प्रारंभ किया. उस वर्ष राज्य में भीषण अकाल पड़ा था. किसान लगान देने की स्थिति में नहीं थे. इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए राजा ने कृषि कर दोगुना कर दिया. जबरन कर वसूलने के लिए अपने सेनापति को राज्यादेश दे दिया. कृषक समुदाय में राजा के आदेश से हाहाकार मच गया. इस स्थिति के निबटने के लिए ‘टुसू’ ने कृषक समुदाय से एक संगठन खड़ा कर राजा के आदेश का विरोध करने का आह्वान किया. राजा के सैनिकों और कृषक सेना में (टुसू के नेतृत्व में) भीषण युद्ध हुआ. गरीब कृषक सेना राजा के सैनिक के समक्ष नतमस्तक हो गयी. हजारों किसान मारे गये.

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‘टुसू’ भी सैनिकों के गिरफ्त में आने वाली ही थी. अचानक, उन्होंने कृषक वर्ग के राज्य को बचाये रखने के लिए राजा के आगे घुटने टेकने के बजाय जलसमाधि लेकर शहीद हो जाने का फैसला किया. वह उफनती नदी में कूदकर शहीद हो गयी. पूरे राज्य में यह खबर आग की तरह फैल गयी. ‘टुसू’ की इसी कुर्बानी की याद में प्रतिवर्ष जनवरी माह के मास में पूस संक्रांति से लेकर पूरे माह भर कृषक वर्ग हर्षोल्लास के साथ ‘टुसू’ पर्व मनाते हैं तथा टुसू की प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.

डॉ राजाराम महतो

-राष्ट्रीय अध्यक्ष, कुरमाली भाषा परिषद्, रांची

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