देवेंद्रराज सुथार, टिप्पणीकार
चित्रकला की पट्टचित्र शैली सबसे पुराने और सबसे लोकप्रिय कला रूपों में से एक है. दरअसल पट्टचित्र पश्चिम बंगाल और ओडिशा के पूर्वी भारतीय राज्यों में स्थित पारंपरिक कपड़ा आधारित स्क्रॉल पेंटिंग के लिए एक सामान्य शब्द है. ओडिशा की प्राचीन कलाकृतियों में से एक पट्टचित्र कलाकृति अपने जटिल विवरणों के साथ-साथ पौराणिक कथाओं और इसमें वर्णित लोककथाओं के लिए जानी जाती है. इसके चित्रकार सब्जियों और खनिज रंगों का उपयोग कर स्वयं अपने रंग तैयार करते हैं. पुरी के बाहरी इलाके में स्थित गांवों में व्यापक रूप से प्रचलित यह पट्टचित्र कला इस स्थान का पर्याय बन गया है. बंगाल पट्टचित्र को दुर्गा पट्ट, चलचित्र, आदिवासी पट्टचित्र, मेदिनीपुर पट्टचित्र, कालीघाट पट्टचित्र जैसे कुछ अलग-अलग पहलुओं में बांटा गया है. बंगाल पट्टचित्र के विषय ज्यादातर पौराणिक, धार्मिक, लोक कथाओं पर आधारित होते हैं.
पट्टचित्र क्या होती है
पट्टचित्र किसी कथा पर आधारित चित्र-शृंखला होती है. आमतौर पर रामायण, महाभारत, कृष्ण गाथा इसके विषय होते हैं. पट्टचित्र निर्मिति आजकल बहुत ही कम हो गयी है, लेकिन इसकी प्रस्तुति आज भी अनेक गांवों में होती है. किसी एक रात में गांव की स्त्रियां, बच्चे, पुरुष इकट्ठा होते हैं. घर या मंदिर का बड़ा-सा आंगन लोगों से भर जाता है. कलाकार पट्टचित्र लेकर आता है. दिये के उजाले में कलाकार एक-एक चित्र प्रस्तुत कर गाने लगता है. गाना रुकते ही कथा शुरू हो जाती है. आज के सिनेमा या एनिमेशन फिल्म का यह शुरुआती रूप है. संथाल परगना में उसे ‘जादूपटुआ’ कहते हैं. बंगाल में ‘पट्टदेखाबा’, राजस्थान में ‘पट्ट’, तो महाराष्ट्र में यह ‘चित्रकथी’ के नाम से जाना जाता है. उड़ीसा, गुजरात, आंध्र प्रदेश में भी यह पट्टचित्र परंपरा है. इन सभी शैलियों में थोड़ा बहुत फर्क है. महाराष्ट्र की चित्रकथी कागज पर बनायी जाती है. भारत के बाकी जगह पर पट्टचित्र कपड़े पर बनाये जाते हैं. कपड़े पर बनाये इस चित्र को गोलाकार लपेटकर रखते हैं. कागज पर बने चित्र को एक के ऊपर एक रखते हैं. पट्टचित्र के लिए पूरे भारत में प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता है. भारतीय चित्रकला की यह दृश्य-श्रव्य कला-परंपरा बड़ी ही आकर्षक है.
हर घर कहता है एक नयी कहानी
ओडिशा के पुरी जिले में स्थित छोटा से गांव रघुराजपुर का हर घर एक नयी कहानी कहता है. घरों की दीवारों पर चित्र बने होते हैं. अन्य शिल्पों में प्रस्तर कला, कागज से बने खिलौने, टसरचित्र, काष्ठ कला, ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी भी शामिल हैं. इन्हें कलाकार तैयार करते हैं और यही गांव वालों की आजीविका का मुख्य साधन है. इस गांव के चारों तरफ ताड़, आम, नारियल और गर्म जलवायु के अन्य पेड़ों के साथ-साथ पान के पत्तों का बाग भी है. लेकिन रघुराजपुर की अपनी पहचान है और वह ओडिशा की कला और शिल्प की समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है. यहां का हर परिवार किसी न किसी प्रकार की दस्तकारी से जुड़ा हुआ है.
छोटे-छोटे बच्चे भी करते हैं पट्टचित्रकारी
यहां तक कि सात-आठ साल की छोटी आयु के बच्चे भी पट्टचित्रकारी करते हैं. शिल्पी अपना उत्पाद विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के जरिये बाजार में बेचते हैं. ऐसे कई संगठन दस्तकारी उत्पादों के प्रोत्साहन, प्रशिक्षण और विपणन के काम में गांव की सहायता करते हैं. इस गांव के कलाकार ओडिशा और दूसरे राज्यों में आयोजित विभिन्न मेलों और प्रदर्शनियों में भी हिस्सा लेते हैं.