रांची : एम्स व रिम्स (उस समय आरएमसीएच) की बिल्डिंग को एक ही आर्किटेक्ट ने तैयार किया है. एम्स की स्थापना वर्ष 1956 और रिम्स की स्थापना वर्ष 1960 में की गयी थी. दोनों संस्थान की स्थापना में मात्र चार साल का अंतर है, लेेकिन रिम्स आज एम्स से 40 साल पीछे है. वर्ष 2002 में रिम्स को स्वायत्त संस्था का दर्जा देते समय झारखंड के लोगों के सपने साकार करने की कोशिश की गयी.
सोच थी एम्स दिल्ली की तरह बनाना. झारखंड की वर्तमान सरकार ने रिम्स को एम्स तक पहुंचाने की मंशा बनायी है. फिलहाल एम्स के न्यूरो फिजिशियन डॉ कामेश्वर प्रसाद काे रिम्स के स्थायी निदेशक की जिम्मेदारी दी गयी है. बातचीत में डॉ कामेश्वर प्रसाद ने कहा कि बेहतर संस्थान को खड़ा करने के लिए ‘थ्री एम’ की जरूरत होती है. पहला एम-मैनपावर, दूसरा एम-मनी यानी फंड व तीसरा एम- मैटेरियल. प्रस्तुत है डॉ कामेश्वर प्रसाद की राजीव पांडेय से हुई बातचीत के प्रमुख अंश.
मुझे यह पता है कि एम्स व रिम्स में बड़ा फासला है. इसे एक साथ नहीं भरा जा सकता है. यह चुनौतीपूर्ण है, लेकिन हमारा प्रयास होगा कि ‘इंच बाई इंच’ फासले को कम करें. योगदान देने के बाद ही फासला का पूर्ण अहसास होगा, लेकिन यहां बैठे भी हम देखते व अनुभव करते हैं. देश के कई संस्थानों से सैकड़ों रिसर्च पेपर आते हैं, लेकिन रिम्स से नहीं मिलता. मरीज वहां से इलाज कराने एम्स आते हैं, जिससे पता चलता है कि रिम्स में सुविधा नहीं है. मरीज के ट्रीटमेंट व मेडिकल एजुकेशन में बड़ा फासला है. इसे ठीक करना होगा. इस दिशा में हम आगे बढ़ेंगे.
एम्स व रिम्स में यह भी एक फासला है. एम्स के एक विभाग में आपको कई पद्मश्री अवार्डी मिल जायेंगे. न्यूरोलॉजी विभाग में दो और काॅर्डियोलाॅजी में तीन पद्मश्री अवार्डी हैं. यह तभी संभव है, जब आप समर्पण व अपने हित से ऊपर उठ कर काम करेंगे. एम्स में आपको यह दिखता है. मुझे 20 साल पहले निजी हॉस्पिटल से 25 गुना ज्यादा सैलरी का ऑफर आया था, लेकिन कभी उधर जाने की भावना ही नहीं बनायी. मुझे याद है कि बिहार के पूर्व सीएम बिंदेश्वरी दुबे जी एम्स में भर्ती थे. उनके घर से पारिवारिक संबंध था. वह दिल्ली में हमारे अभिभावक थे, इसलिए मैंने उनसे पूछा था कि निजी संस्थान में सेवा देना चाहिए?
इस पर उन्होंने कहा था कि भगवान कुछ ही लोगों को मानव सेवा करने के लिए बना कर भेजता है. आपको इस लायक भगवान ने बनाया है, इसलिए सेवा भाव से जुड़े रहें. निजी संस्थानों में पैसे की लालच नहीं करनी चाहिए.
निजी प्रैक्टिस कार्य संस्कृति और संस्कार की कमी के कारण नहीं रुक पा रही है. मुझे भी पता चला है कि रिम्स के डॉक्टर हर माह लिख कर देते हैं कि वह निजी प्रैक्टिस नहीं करते हैं, तब एनपीए का पैसा मिलता है. लिख कर देने के बाद भी अगर कोई ऐसा काम करता है, तो यह उसके आचरण और चरित्र को दर्शाता है. ऐसे लोगों को स्वयं विचार करना होगा. प्रसिद्ध न्यूरो फिजिशियन स्वर्गीय डॉ केके सिन्हा को जब लगा कि निजी प्रैक्टिस करनी है, तो उन्होंने लिख कर दे दिया था कि आरएमसीएच छोड़ रहे हैं. सेवा भाव से काम रिम्स में रह कर या रिम्स छोड़ कर दोनों परिस्थिति में की जा सकती है. रिम्स में सेवा देते हुए निजी प्रैक्टिस करना, यह संभव नहीं है. यह खुद तय करना होगा कि रिम्स में रहना है या छोड़ना है. रिम्स के विकास में यह भी एक अवरोध है.
बेहतर संस्थान को खड़ा करने के लिए ‘थ्री एम’ की जरूरत होती है. पहला एम-मैनपावर, दूसरा एम-मनी यानी फंड व तीसरा एम- मैटेरियल. मैन पावर व फंड सरकार देती है. इसके अलावा सर्वश्रेष्ठ संस्थान का सपना सबको देखना होगा. मेडिकल स्टूडेेंट को भी. एक अकेला आदमी कुछ नहीं कर सकता है. हम रिम्स आकर अपना विजन दे सकते हैं, लेकिन धरातल पर लाने के लिए शासन, प्रशासन और समाज सबको मिल कर काम करना होगा. न्यायपालिका रिम्स की मॉनिटरिंग करती है, यह खुशी की बात है. तकनीक व मशीन लाकर बेहतर संस्थान नहीं बना सकते हैं, इसके लिए बेहतर लोगों को जोड़ना हाेगा. एम्स में हमेशा अच्छे लोगों को जोड़ा जाता है, चाहे वह कहीं भी हों. एम्स की नियमावली में है, अगर कोई नया विभाग खोलना है, तो दुनिया के कोने से बेहतर आदमी को लाने की जरूरत हुई, तो लाया जाये. उसको हाथ जोड़ कर या पैर पकड़ कर ही क्यों नहीं लाना पड़े. झारखंड और पड़ोसी राज्यों के डॉक्टर, जो देश के बेहतर संस्थान में सेवा दे रहे हैं, अगर वह आना चाहते है, तो उनको लाना चाहिए.
रिम्स में न्यूरो फिजिशियन विभाग नहीं है, लेकिन दो डॉक्टर सेवा दे रहे हैं. इसे विभाग का रूप देना है. बेहतर फैकल्टी लाना होगा, तभी हम इसमें डीएम का कोर्स शुरू कर पायेंगे. न्यूरो सर्जरी व न्यूरो मेडिसिन, दोनों विभाग एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं. स्वर्गीय डॉ केके सिन्हा के इस्तीफा देने के बाद रिम्स में इस विभाग को उतना महत्व नहीं दिया गया, लेकिन इस विभाग को जीवंत बनाना है.
posted by : sameer oraon