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World Lung Cancer Day: कैंसर से देश में हो रही लाखों मौत, अभी नहीं चेते, तो आने वाला वक्त होने वाला है भयावह

हर साल एक अगस्त को विश्व कैंसर दिवस (World Lung Cancer Day) मनाया जाता है. आज यानी मंगलवार को विश्व कैंसर डे मनाया जा रहा है. हमारे देश में पिछले 22 सालों के दौरान डेढ़ करोड़ से भी अधिक लोग सिर्फ कैंसर की वजह से मर गये.

रवि प्रकाश

World Lung Cancer Day 2023: अमेरिकन कैंसर सोसायटी के प्रतिष्ठित जर्नल ग्लोबल आंकोलाजी में प्रकाशित एक आंकड़े के मुताबिक साल 2000 से 2019 के बीच भारत में कैंसर से 1 करोड़ 28 लाख से भी अधिक लोगों की मौत हुई है. वहीं, भारत सरकार के नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम (एनसीआरपी) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2020 से 2022 के बीच देश में कुल 23 लाख 67 हजार 990 लोगों की मौत की वजह कैंसर बनी. मतलब, हमारे देश में पिछले 22 सालों के दौरान डेढ़ करोड़ से भी अधिक लोग सिर्फ कैंसर की वजह से मर गये. यह वह आंकड़ा है, जो या तो सरकार ने खुद जारी किया या फिर इसका आधार सरकार द्वारा जारी रिपोर्टें बनी.

इसके बावजूद भारत की सरकार के पास कैंसर को अधिसूचित बीमारी घोषित करने की संसदीय समिति की सिफारिशों वाली फाइल पिछले 10 महीने से पेंडिंग पड़ी है. आखिर क्यों, इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है और न किसी की इसमें दिलचस्पी दिखायी देती है. हमारे देश के राजनेता जाति-धर्म की सियासत में व्यस्त हैं. ब्यूरोक्रेसी का बहुमत उनकी चाटुकारिता कर रिटायरमेंट के बाद के रेवड़ियां फिक्स करने की कोशिशें कर रहा है और अपना मीडिया किसी सीमा या अंजू के नाचने-खांसने की रिपोर्टें कर व्यूज, लाइक्स और टीआरपी बटोरने में लगा है.

लेकिन, मौत के ये आंकड़े डरा रहे हैं. चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि अगर अभी नहीं चेते, तो आने वाला वक्त भयावह होने वाला है. एक अगस्त को पूरी दुनिया विश्व लंग कैंसर दिवस मनाती है. ताकि फेफड़ों के कैंसर के प्रति लोगों को जागरूक किया जा सके. मुझे अंतिम स्टेज का लंग कैंसर है और मैं नान स्मोकर हूं. भारत में उपलब्ध दवाईयां और चिकित्सीय सुविधाएं बहुत जतन के बाद भी मुझे 5-6 साल से ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रख पाएंगी. अगर परिस्थितियां खराब रहीं और मेरी थेरेपी ने बेहतर रेस्पांस नहीं किया, तो मेरी मौत कभी भी हो जाएगी. फिर वे 5-6 साल वाले जीवन के अनुमान बेमानी साबित हो जाएंगे, जो मुझ जैसे मरीजों के इलाज और उनकी कैंसर के साथ की जिंदगी की सांख्यिकी के आधार पर बनाये गये हैं. वैसे भी कैंसर के साथ मैंने करीब ढाई साल का सफर तय कर लिया है. मतलब, मुझे जिंदगी के इतने दिन तो मिले, लेकिन इतने ही दिन कम भी हो चुके हैं. मेरे पास जिंदगी के कम दिन या साल बचे हैं.

मैं उस रास्ते का राही हूं, जो एक ही तरफ जाता है. वह मंजिल है मौत. मेरी मौत. मुझे इसका डर नहीं कि मैं कैंसर से मर जाऊंगा. डर इस बात का है कि मरने के बाद मैं भी इन आंकड़ों का एक नंबर मात्र रह जाऊंगा. मेरा नाम भी ऐसी ही किसी फाइल में दर्ज होकर रह जाएगा. यही वजह है, जो मैं कैंसर को अधिसूचित बीमारियों की सूची में डालने की वकालत बार-बार करता हूं. मैं चाहता हूं कैंसर के हर मरीज की ट्रैकिंग हो. उसे दवाईयां मिलें. इलाज मिले. मैंने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जी से मिलकर यही मांग की थी. उन्होंने आश्वस्त भी किया कि उनकी सरकार यह काम जल्दी करेगी. मैंने रांची के सांसद संजय सेठ जी से भी यही मांग की. उन्हें कहा आप प्रधानमंत्री जी से बात कीजिए. वरना आने वाले वक्त में कैंसर और परेशान करने वाला है. मुझे भरोसा है कि वे संसद में यह बात रखेंगे और सरकार कैंसर को लेकर गठित की गई प्रो रामगोपाल यादव की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति की सिफारिशें जल्दी मान लेगी.

यकीन मानिए, कैंसर से लड़ाई में यह कदम क्रांतिकारी साबित होगा. इसके बाद सबसे जरूरी है कैंसर की दवाईयों की कीमत पर नियंत्रण या उनपर सब्सिडी. अंतिम स्टेज के कैंसर मरीजों की टारगेटेट थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी की अधिकांश दवाएं लाखों की कीमत वाली हैं. किसी-किसी दवा की पूरे साल की कीमत एक करोड़ से भी अधिक है. भारत की प्रति व्यक्ति आय के मद्दनेजर क्या आम भारतीय इन दवाईयों को खरीद सकता है. आंकड़े कहते हैं-नहीं. देश के प्रसिद्ध टाटा मेमोरियल हास्पिटल, मुंबई के डाक्टरों के एक शोध आलेख के मुताबिक ऐसी दवाओं को 2 फीसदी से भी कम मरीज अफोर्ड कर पा रहे हैं.

मुझे भी मेरे डाक्टर ने 5 लाख रुपये प्रति माह वाली टारगेटेड थेरेपी बतायी थी, जो मैं नहीं ले सका. क्योंकि मेरे पास उतने पैसे नहीं थे. एक आंकड़े के मुताबिक भारत की सिर्फ 10 फीसदी आबादी ने हेल्थ इंश्योरेंस ले रखा है. इनमें से भी अधिकतर का औसतन कवरेज सिर्फ 4 लाख है. सोचिएगा जरूर कि अगर आपका स्वास्थ्य बीमा पूरे साल में आपको सिर्फ 4 लाख रुपये का कवरेज देता हो, तो महीने के 5, 10 या 15 लाख की दवा आप कैसे खरीद पाएंगे. फिर क्या होगा. आपके सामने अच्छे डाक्टर होंगे, दवाईयां होंगी लेकिन पार्याप्त पैसे नहीं रहने के कारण आप उनका उपयोग नहीं कर पाएंगे. अंततः उचित इलाज के अभाव में मर जाएंगे.

अब थोड़ी चर्चा आयुष्मान योजना की. यह 5 लाख रुपये का कवरेज देता है लेकिन क्या इसमें कैंसर की टारगेटेड थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी की दवाएं शामिल हैं. सरकार को चाहिए कि वह अखबारों में विज्ञापन देकर बताए कि कैंसर के इलाज की कौन-कौन सी दवा उनकी इस योजना के तहत मिल सकती है. फैक्ट यह है कि टारगेटेड और इम्यूनोथेरेपी तो छोड़िए, कीमोथेरेपी की भी कुछ दवाओं की कवरेज आयुष्मान योजना के तहत नहीं है. सभी सरकारी अस्पतालों में कैंसर के विशेषज्ञ डाक्टर तक नहीं हैं. हम जी-20 की मेजबानी का जश्न मना रहे हैं और नयी दवाओं के इस्तेमाल के मामले में हम इन्हीं जी-20 देशों में नीचे से तीसरे अर्थात 18 वें नंबर (ग्लोबल एक्सेस टू न्यू मेडिसीन रिपोर्ट के मुताबिक) पर हैं. इस सूची में भारत से पीछे सिर्फ दक्षिण अफ्रिका और इंडोनेशिया हैं.

क्या यह वक्त नहीं है कैंसर पर सोचने का. इस पर ज्यादा काम करने का. आने वाला साल संसदीय चुनावों का है. मुझे उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी इसपर सोचेंगे. कैंसर भारत में अधिसूचित बीमारियों की लिस्ट में शामिल होगा और सरकार इसके हर मरीज के मुकम्मल इलाज के इंतजामात करेगी. वैसे भी वहीं देश दुनिया का सिरमौर हो सकता है, जो अपने हर नागरिक को रोटी, कपड़ा, मकान और इलाज की गारंटी दे सके.

(लेखक, कैंसर सर्वाइवर हैं और खुद लंग कैंसर के चौथे स्टेज से गुजर रहे हैं.)

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