विश्व आदिवासी दिवस 2020 : आदि परंपराओं के संवाहकों को नमन, पूरा विश्व इनका ऋणी, पढ़ें मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का विशेष आलेख

21 वीं सदी का दौर है, हर ओर विकास की बात की जा रही है. मानव सभ्यताओं को जीवित रखने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं. ऐसे में सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण की सूई हमारे आदिवासी समाज की ओर घूम ही जाती है. उसकी वजह भी है क्योंकि हर आदि परंपराओं का सृजन और उस संस्कृति को जीवित रखने में इस समुदाय का संपूर्ण विश्व सदैव ऋणी रहेगा.

By Prabhat Khabar News Desk | August 9, 2020 10:57 AM

जोहार… विश्व आदिवासी दिवस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का संदेश….

21 वीं सदी का दौर है, हर ओर विकास की बात की जा रही है. मानव सभ्यताओं को जीवित रखने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं. ऐसे में सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण की सूई हमारे आदिवासी समाज की ओर घूम ही जाती है. उसकी वजह भी है क्योंकि हर आदि परंपराओं का सृजन और उस संस्कृति को जीवित रखने में इस समुदाय का संपूर्ण विश्व सदैव ऋणी रहेगा.

कई सदियों तक बुनियादी सुविधाओं के घोर अभाव के बावजूद प्रकृति की इबादत करना और उसके संरक्षण के विभिन्न आयामों को गढ़ने में आदिवासी समुदाय की भूमिका विश्व में अनुकरणीय रही है. भौतिकतावादी युग में संस्कृति और अनूठी परंपराओं के साथ सामंजस्य बैठा पाना आज भी एक चुनौती है.

खासकर उदारीकरण के दौर में जिन क्षेत्रों में यह समुदाय निवास करता है, उन क्षेत्रों के खनिज संपदा को सदियों से जिन्होंने संरक्षित रखा है, वहां अगर कुछ नापाक मंसूबे संस्कृति का छिद्रान्वेषण करेंगे तो टीस तो उठेगी ही. इसके बाद भी आज यह समुदाय अपनी समृद्धशाली परंपराओं एवं जीवनशैली को संरक्षित करने के लिए अपने संघर्ष और सहनशीलता की वजह से नये आयाम गढ़ रहा है, यह हमारे लिए हर्ष की बात है.

आदिवासियों की स्वर्णिम गाथा रही है :

हमारे आदिवासी समाज की कृतियां और गाथाएं विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर बतायी जानेवाली सुक्तियां नहीं हैं, बल्कि पूरे विश्व समुदाय के लिए ऐसी प्रेरक घोषणाएं हैं, जिनके माध्यम से हर दिन नये जीवन का प्रारंभ कर सकते हैं. हमारे राज्य झारखंड के आदिवासी समुदाय के संघर्ष की स्वर्णिम गाथाएं स्वतंत्रता आंदोलन की गवाह रही हैं. जमाखोरी,सूदखोरी और महाजनी प्रथा के खिलाफ संताल की लड़ाई को भला कौन भूल सकता है.

साथ ही बिरसा के वंशजों की बिरसाईत के अंश आज भी काल के कपाल पर साफ दिखायी देते हैं. भला उन वीरों को कौन भूल सकता है, जिन्होंने 1831 के कोल विद्रोह में स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फूंका था, उन हूल उलगुलान के क्रांति नायकों के बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है, जिन्होंने अपने हौसले से दंभी अंग्रेजों का खून सुखा दिया था. हम भगवान बिरसा के सदैव ऋणी रहेंगे, जिन्होंने युवावस्था में ही उलिहातु और आसपास के आदिवासी समुदाय के युवाओं के साथ डुंबारी पहाड़ पर अंग्रेजों से लोहा लिया था. ये आंदोलन इस बात का सबूत हैं कि हम संघर्षशील रहे हैं और हमारी रगों में आंदोलन का रक्त बहता है.

आदिवासी अपनी परंपरा को लेकर चलते हैं :

आदिवासी समुदाय एक ऐसा समूह है, जो अपनी परंपरा-संस्कृति को अपने सीने से लगा कर सदैव चलता रहा है. हड़प्पा संस्कृति और मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाये गये बर्तन में आज भी आदिवासी समुदाय के लोग खाना खाते हैं. पर आज आदिवासी समुदायों के गिरते जीवन स्तर पर भी हमें चिंतन करने की आवश्यकता है. देश में 1951 ईस्वी तक लगभग 30 से 35% आदिवासी हुआ करते थे, आज आदिवासियों की संख्या मात्र 26% रह गयी है.

यह अपने आप में एक बहुत ही गंभीर विषय है कि आखिर आदिवासी समुदाय के लोगों की संख्या कैसे घटी? इस पर शोध और चिंतन नितांत आवश्यक है.

ग्लोबल वार्मिंग में आदिवासी समुदाय की भूमिका अहम :

आज पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंतित है. प्रकृति के बदलाव के वजह से जो परिस्थिति उत्पन्न हुई है यह काफी चिंतनीय है. प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखने में आदिवासी समुदाय की भूमिका सबसे अहम रही है और आगे भी रहेगी. ग्लोबल वार्मिंग जैसी चीजों से बचाव आदिवासी समाज से बेहतर और कोई नहीं कर सकता है.

मैं भी आदिवासी समाज से आता हूं मेरे मन में भी बहुत संवेदनाएं हैं :

मैं भी इसी आदिवासी समाज से आता हूं मेरे मन में भी बहुत संवेदनाएं हैं.आदिवासी परंपरा संस्कृति को अच्छा रखने के लिए सरकार भी इस समुदाय के साथ निरंतर कंधे से कंधा मिलाकर चलेगी.शायद यही वजह है कि सरकार ने अपने पहले कैबिनेट में ही अपना मंशा जाहिर कर दी थी. पत्थलगढ़ी आंदोलन के दौरान झूठे मुकदमें को वापस लिये गये. आदिवासियों को रोजगार सृजन जैसे कृषि, पशुपालन से जोड़ने पर सरकार का ध्यान है. वहीं वन अधिकार कानून के तहत वनों में रहनेवाले लोगों को न केवल अधिकार दिया जा रहा है बल्कि आजीविका के लिए वनोत्पाद में भी उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है. इसका फायदा आदिवासी और मूलवासी दोनों को होगा.

विश्व आदिवासी दिवस के दिन सार्वजनिक अवकाश की व्यवस्था :

आदिवासी हितों की कोरी बकवास करनेवालों के लिए भी हम प्रेरणादायक है, जिनकी भ्रामक बातों के बावजूद हमारा अपनी संस्कृति पर भरोसा कायम है. आदिवासी समाज उनके लिए एक मजबूत स्तंभ की तरह हैं, एक प्रेरणा स्रोत हैं जो विपरीत परिस्थितियों में हिम्मत खो देते हैं. उत्कृष्ट जीवनशैली, सादगीभरा जीवन और प्रकृति से स्नेह से जिनकी पहचान होती है, हम उस जलधारा के संवाहक हैं जो तमाम झंझावातों के बाद भी अविरल, निश्चल होकर जंगल की पगडंडियों से बह रही है.

आदिवासी समुदाय के संघर्ष की गाथाओं को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 1993 में महसूस किया जिसे यू. एन. डब्ल्यू. जी. ई. पी. के 11 वें अधिवेशन में आदिवासी अधिकार घोषणा पत्र के रूप में मान्यता दी गयी. इसके उपरांत 1994 को यूएनओ ने जेनेवा महासभा में सर्वसम्मति से नौ अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस ( इंटरनेशनल डे ऑफ द वर्ल्ड इंडिजिनस पीपुल) मनाये जाने का निर्णय लिया गया.

विश्व आदिवासी दिवस के आयोजन के पीछे सोच थी कि उनकी परंपराओं, भाषा, संस्कृति और स्वशासन के उद्देश्यों की परिकल्पना को साकार किया जा सके. सवाल यह भी है बीते 26 सालों में आदिवासी समुदाय ने तरक्की के कितने पायदान तय किये? सवाल यह भी है कि क्या उन विषयों को मुकाम हासिल हुआ जिन बिंदुओं को आदिवासी घोषणा पत्र के प्रारूप में समाहित किया गया था? इसका जवाब जरा मुश्किल है, फिर भी कहा जा सकता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी सामुदायिक विकास की कुछ लकीरों को हमने हासिल किया है. झारखंड सरकार ने इसे वृहत स्तर पर आयोजित करने का निर्णय लिया है. पहली कड़ी में झारखंड में विश्व आदिवासी दिन के दिन यानी नौ अगस्त को सार्वजनिक अवकाश घोषणा सरकार ने कर दी है.

सौभाग्यशाली हैं कि झारखंड वनों से और खनिजों से भरा प्रदेश है :

जल-जंगल जमीन संरक्षण की परिकल्पना आदिवासी समाज की जड़ों में है.हम सौभाग्यशाली हैं कि झारखंड 29.2 फीसदी वन क्षेत्र से आच्छादित है. साथ ही खनिज संपदा के मामले में हम पूरे विश्व में अग्रिम स्थान रखते हैं. जल-जंगल और जमीन से आदिवासियों का अस्तित्व जुड़ा है. इन संसाधनों के संरक्षण को लेकर आदिवासी लंबे समय से संघर्ष करते आ रहे हैं.

यही वजह है कि वर्तमान परिवेश में आदिवासी दर्शन को विश्व स्तर पर मान्यता मिल रही है. मनुष्यता, धरती और प्रकृति को बचाने के लिए आदिवासी जीवन दर्शन ही सबसे सटीक और सार्थक है. शुद्ध हवा, पानी, पर्यावरण हर मनुष्य के लिए जरूरी है और यह दर्शन इस बात को रेखांकित करता है कि लोगों को प्रकृति का सम्मान करना होगा, प्रकृति की ओर लौटना होगा.

झारखंड की धरती 32 जनजातियों से रची बसी है. इनमें असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरबा, मालपहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया और सबर जैसी आदिम जनजाति भी शामिल है. इन सभी जनजातियों की समृद्ध सभ्यता, परंपरा, कला संस्कृति और भाषा का वजूद और पहचान किसी न किसी वजह से खतरे में है. इनकी सभ्यता संस्कृति को समृद्ध बनाने के लिए सरकार पूरी तरह प्रतिबद्ध है. उनकी दशा और अवस्था सुधारने के लिए कई कदम उठाये गये हैं.विस्तृत योजना बन रही है ताकि अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए आदिवासी आधुनिक दुनिया से भी तालमेल बिठाये रखे.

एक तरफ जहां संस्कृति और परंपराओं के संवाहक आदिवासी समाज ने पूरी दुनिया को सीख दी है. वहीं दूसरी ओर खेल के विभिन्न क्षेत्रों में इस समाज के खिलाड़ियों ने एक खास मुकाम हासिल किया है. प्रतिस्पर्द्धा के दौर में चुनौतियों से दो चार होना इनकी नियति रही, शायद ये ही वजह है कि कई कीर्तिमान झारखंड के आदिवासी समाज के बच्चों ने खेल जगत में स्थापित किये हैं. ग्रामीण परिवेश, सीमित संसाधन के बावजूद आदिवासी महिलाओं ने खेल के क्षेत्र में झारखंड का मान बढ़ाया.

हेलेन सोय, अलमा गुड़िया, दीनमणि सोय, मसिरा सुरीन, पुष्पा प्रधान, सावित्री पूर्ति, सुमराय टेटे, असुंता लकड़ा सहित अन्य खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश व राज्य को गौरवान्वित किया है. जनजाति भाषा और साहित्य के क्षेत्र में पद्मश्री डॉक्टर रामदयाल मुंडा, पर्यावरण संरक्षण के लिये पद्मश्री श्री सिमोन उरांव, कला संस्कृति के क्षेत्र में श्री मुकुंद नायक को सम्मान मिलना इस बात का सबूत है कि तरक्की के उत्तुंग शिखर को स्पर्श करनेवाला विश्व आज भी परंपराओं और संस्कृति का सम्मान करना जानता है और उसकी खूबियों से वाकिफ है.

बेशक आज हम विश्व आदिवासी दिवस मना रहे हैं लेकिन आदिवासी समाज की सभ्यता और परंपराओं को इतिहास के पन्नों में नहीं समेटा जा सकता है क्योंकि इतिहास के पन्ने वक्त के मिजाज से बदलते रहे हैं. लेकिन बिरसा के वंशजों के बिरसाइत का इतिहास ऐसे पत्थरों पर उकेरा गया दस्तावेज है जिसे वक्त के थपेड़े भी नहीं मिटा सकते हैं. झारखंड की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान और इसके स्थल महोत्सव जुड़े संस्थानों को प्राथमिकता के साथ बढ़ावा दिया जाये ताकि आदिवासी जीवनशैली क्षैतिज्यमय हो ,पुनः आह्लादित हो सके. इस क्रम में राज्य सरकार शहीदों के गांव को भी पर्यटक स्थल के रूप में विकसित कर रही है. संताल परगना के भोगनाडीह और खूंटी के उलीहातू से इसका शुभारंभ जल्द होगा.

झारखंड को एक संपन्न और खुशहाल राज्य बनाने का संकल्प :

इस दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि झारखंड को देश का सबसे संपन्न, समृद्ध और खुशहाल राज्य बनायेंगे. एक ऐसा राज्य जहां आदिवासियों का संपूर्ण विकास और उनके अधिकार और संवैधानिक सुरक्षा का निर्वहन पूर्ण दायित्व के साथ हो. वर्तमान सरकार जन आकांक्षाओं पर आधारित विकास के लिए प्रतिबद्ध है.

राज्य की तरक्की के केंद्र में झारखंड की मूल चेतना के साथ समावेशी विकास की अवधारणा ही रहेगी. आदिवासियों का विकास उनकी जरूरतों और उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप होगा. आदिवासियों की खुशहाली को ध्यान में रखते हुए विकास के कार्यक्रम शुरू किये गये हैं. जंगलों में रहनेवाले आदिवासियों और मूलवासियों को उनके अधिकार से आच्छादित किया जायेगा.

अतःआज मूल चेतना का विकास, संस्कृतियों में समाहित विचार और मूलाधिकारों की विवेचनाओं में समग्रता, निरंतर प्रकृति के साथ विकसित झारखंड की परिकल्पना को साकार करने का दिवस है. अंतर चेतना में पंरपराओं की संस्तुतियों को धरोहर समझ आगे बढ़ें, समभाव के दर्शनशास्त्र को जीवनशैली का हिस्सा बनायें और आदि परंपराओं के संवाहकों को सम्मान मिले. अधिकारों के लिए समाज याचक न बने, इसके प्रयास निरंतर करने होंगे ताकि जीवन में अविराम प्रगति बनी रहे.एकबार पुन: विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं, जोहार. विश्व आदिवासी दिवस आदि परंपराओं के संवाहकों को नमन.

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