देश में आजादी की लड़ाई पहली बार संगठित होकर 1857 में लड़ी गयी़ देश आजादी के लिए जब करवट लेना शुरू किया था,उससे पहले झारखंड के जंगलों में आजादी की आग लग चुकी थी़ झारखंडी वीर योद्धा के दिलों में धधकती आजादी का जुनून अंग्रेजों पर भारी पड़ रहा था़ वीर नायक अपनी माटी के लिए संघर्ष कर रहे थे.
देश में सिपाही विद्रोह से पहले झारखंड में 1783 में तिलका मांझी का विद्रोह, 1795 में चेरो आंदोलन, 1798 में चुआड़ आंदोलन और 1831 में कोल विद्रोह ने साम्राज्यवादी ताकतों को झकझोर कर रख दिया था. झारखंडी की मिट्टी वीर योद्धाओं से रक्तरंजित हो चुकी थी़ इस आंदोलन में झारखंडी वीरांगनाओं की भूमिका और संघर्ष की कहानी अप्रितम है.
फूलो व झानो, संताल विद्रोह-1855:
1855 के संताल विद्रोह के नायक के रूप में ग्राम प्रधान चुनु मुर्मू और सुगी देलही मुरमू की संतान, चार भाई सिदो, कान्हू, चांद भैरव के साथ-साथ उनकी दो बहनें फूलो व झानो का नाम सम्मान से लिया जाता है. लोक कथाओं में कहा जाता है कि फूलो और झानो ने तड़के बरहेट में अंग्रेजों की छावनी में घुस कर तलवार से 21 अंग्रेज सिपाहियों की उस समय हत्या कर दी थी, जब वे गहरी नींद में थे. जब वे पकड़ी गयीं, तो उन्हें नीम के पेड़ पर फांसी दी गयी थी.
1828-1832 का लरका आंदोलन:
1857 की क्रांति से पहले ही वीर बुधू भगत ने गांववालों की गरीबी, भुखमरी के साथ-साथ उन पर जमींदार, साहुकार, महाजनों की बर्बरता को देखी थी. इसके और अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने रांची के आसपास संघर्ष की शुरुआत की, जो बाद में काफी व्यापक हुआ. वीर बुधू भगत के बेटे हलधर व गिरधर के साथ साथ उनकी बेटियां रुनिया और झुनिया ने भी उनका साथ दिया था. शहीद हुईं. वीर बुधु भगत ने अपनी बेटियों को भी युद्धकला में पारंगत किया था.
खड़िया विद्रोह 1880
तेलंगा खड़िया, कम उम्र में ही अपनी पत्नी रत्नी खड़िया के साथ अंग्रेजों का मुकाबला करने लगे थे. रत्नी भी गांव की बैठकों में तेलंगा खड़िया के साथ जाती थीं. वह मानती थीं कि महिलाओं को भी पुरुषों के साथ मिल कर अंग्रेजों का सामना करना होगा. तेलंगा खड़िया जगह-जगह अपनी पत्नी की मदद से जोड़ी पंचायत का गठन कर अपने अनुयायियों की फौज तैयार कर रहे थे. तेलंगा खड़िया की हत्या के बाद भी रत्नी ने जोड़ी पंचायत का काम जारी रखा था.
14वीं सदी, रोहतासगढ़ पर मुगलों का आक्रमण :
कहा जाता है कि 14वीं सदी में रोहतासगढ़ (रुइदासगढ़) में आदिवासी राजा रुईदास का शासन था. प्रजा खुशहाल थी. सरहुल के दिन जब लोग नाच-गान में मस्त और मदहोश थे, मुगल शासकों ने आक्रमण कर दिया. मुगलों को जानकारी मिली थी कि इस दिन पुरुष लड़ने की स्थिति में नहीं होंगे. ऐसे समय में राजा की दो बेटियों सिनगी दई और कइली दई ने उरांव महिलाओं को एकजुट किया और पुरुष वेश धारण कर, हथियार लेकर मुगल सैनिकों से भिड़ गयीं. मुगल सैनिक उनके कड़े प्रतिकार से घबरा कर लौट गये.
दूसरे साल भी सरहुल के दिन मुगल सेना ने आक्रमण किया. इस बीच सिनगी दई, कइली दई और सहयोगी महिलाओं ने युद्ध कला के बारे में काफी कुछ जान-समझ लिया था. अपने युद्ध कौशल से उन्होंने दूसरी बार मुगलों को परास्त किया. मुगल सेना ने तीसरे साल फिर हमला किया और इस बार भी उरांव महिलाओं ने मुगलों को करारी शिकस्त दी. लगातार तीन बार परास्त मुगलों ने चौथे हमले की तैयारी के सिलसिले में रुइदासगढ़ की सेना की जानकारी हासिल करने के लिए गुप्तचर भेजे. उन्हें पता चला कि जिनसे वे लगातार पराजित हो रहे हैं, वे पुरुषों वेश में उरांव स्त्रियां हैं. इसके बाद मुगलों ने रणनीति बदली व सरहुल के बजाय तब हमला किया, जब महिलाएं खेतों में काम कर रही थीं.
पहाड़िया विद्रोह 1772- 1789:
वासवी किड़ो की पुस्तक ‘भारत की क्रांतिकारी आदिवासी औरतें’ के अनुसार, जब पहाड़िया विद्रोह शुरू हुआ, तब इसमें पहाड़िया महिलाओं ने भी अहम भूमिका निभायी. इनमें शहीद जिउरी पहाड़िन की चर्चा है, पर उनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. इस विद्रोह में वह सक्रिय रही थीं और अंग्रेजों के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया था. 1781- 82 में पाकुड़ अनुमंडल में महेशपुर की रानी सर्वेश्वरी ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था, जिसमें आसपास के पहाड़िया सरदारों ने भी मदद की थी.
पहाड़िया जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ लंबा संघर्ष कर उन्हें यह इलाका छोड़ने पर मजबूर किया. इसमें शहादत देने वालों में बहुत सारी महिलाएं भी थीं. बटकुरी गांव की देवमनी उर्फ वधनी ने जन्ना उरांव के असहयोग और सत्याग्रह की मुहिम को जिंदा रखा था. सिंहभूम के कोल विद्रोह में बहुत सी महिलाएं भी मारी गयीं, लेकिन उनके नामों का पता नहीं चल पाया है.
बिरसा मुंडा आंदोलन 1872-1901:
कुमार सुरेश सिंह ने ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन 1872- 1901’ में 24 की दिसंबर 1899 को सरवदा मिशन पर तीर चलाने, गोदाम में आग लगाने, ईसाइयों पर हमले के बाद उपजी परिस्थितियों की चर्चा करते हुए बिरसा मुंडा के अनुयायी सरदार गया मुंडा की पत्नी माकी और परिवार के अन्य महिलाओं की वीरता के बारे में भी बताया है. उन घटनाओं की जांच के क्रम में चार जनवरी को पुलिस जब तजना नदी की ओर गयी, तब विद्रोहियों ने पुलिस वालों पर हमला कर दिया.
गया मुंडा और उनके बेटे ने एक कांस्टेबल को मार डाला. विद्रोहियों ने एक और कांस्टेबल को भी मार डाला था. छह जनवरी को रांची के डिप्टी कमिश्नर स्ट्रीटफील्ड, गया मुंडा को पकड़ने के लिए दलबल के साथ एतकाडीह में उसके घर गये. डिप्टी कमिश्नर स्ट्रीटफील्ड के विवरण के अनुसार: घर के बाहर कोई नहीं था. जब एक पुलिसवाला घर में घुसा, तो तुरंत ही बचाओ…! बचाओ…! की आवाज लगाते हुए बाहर भाग आया.
घर में गया मुंडा, आठ-नौ महिलाएं व बच्चे थे. जब डिप्टी कमिश्नर ने परिवार के लोगों को आदेश दिया कि वे आत्मसमर्पण कर दें, तब गया मुंडा ने कहा था कि घर उसका है और पुलिस को उसके अंदर आने का अधिकार नहीं है. उस समय एक दारोगा घर की बाहरी दीवार के पास खड़ा था. उसे लक्ष्य कर घर से एक कुल्हाड़ी फेंकी गयी. पगड़ी पर लगने के कारण दारोगा गिर पड़ा. उसे ज्यादा चोट नहीं लगी. जब पुलिस ने लोगों को घर से बाहर निकालने के लिए उसमें आग लगा दी,
तब परिवार के सदस्यों को बाहर निकलना पड़ा. गया मुंडा के हाथ में तलवार थी. वहीं, उसकी पत्नी माकी के हाथ में लाठी थी. दो पुत्रवधुओं में से एक के पास दौली और दूसरी के हाथ में टांगी थी, वहीं बेटी धीगी के हाथ में लाठी, नागे के हाथ में तलवार और लेंबू के हाथ में टांगी थी. बेटा कुल्हाड़ी के साथ और 14 साल का पोता तीर-धनुष के साथ था. डिप्टी कमिश्नर ने गया मुंडा को तीन गोलियां मारीं. इसके जब डिप्टी कमिश्नर और गया मुंडा गुत्थम-गुत्था थे, तब माकी उन पर लाठी से प्रहार कर रही थी. उसने ही दारोगा को कुल्हाड़ी फेंक कर मारी थी. स्ट्रीटफील्ड ने लिखा है कि हर औरत ने अपने हथियार छीने जाने से पूर्व जमकर लड़ाई लड़ी. यह बता देना जरूरी है कि लड़नेवाली औरतों में से कम से कम दो अपने बायें हाथ में छोटे-छोटे बच्चे लिए हुई थीं और दाहिने से कुल्हाड़ी भांज रही थीं.