हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भाषा, संस्कृति, परंपरा और देशज ज्ञान का अमृत्व प्रकृति पूजक आदिवासी ही देश को देते हैं. भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत आदिवासियत में समाहित है. इन्होंने प्रकृति के साथ झूमना और गाना सीखा है और इसके सच्चे प्रहरी हैं. भारत का पारंपरिक ज्ञान संसार इनके बिना अपूर्ण है. धरती के आदि रहवासी यानी आदिवासियों ने हमें लय संग जीना सिखाया है. लोक गायन और संगीत इनके पारंपरिक वाद्ययंत्रों से सुरमयी है. इनकी कलाकारी, कारीगीरी और पारंपरिक लोककला ने देश को सजाया-संवारा है. इनका सामाजिक ताना-बाना सौहार्द और समरसता का पाठ पढ़ाता है. इनकी पारंपरिक चिकित्सा पद्धति निरोग समाज की धरोहर है. आदिवासी संस्कृति और पारंपरिक देशज ज्ञान से आज के आदिवासी युवा सराबोर हैं और पारंपरिक विरासत के वाहक बने हैं. आदिवासी दिवस पर प्रभात खबर की प्रस्तुति ऐसे ही सांस्कृतिक योद्धाओं को समर्पित है.
मर्सी मंजुला बिलुंग को रूगड़ा के अचार से मिली पहचान
डिबडीह की मर्सी मंजुला बिलुंग झारखंड की फेमस सब्जी रूगड़ा का अचार बना कर देश भर में पहुंचा रही हैं. पहली बार जब उन्होंने इसे बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर किया, तो एक दिन में हजारों लाइक्स आये और ऑर्डर मिलने लगे. इन्हें झारखंड ट्रेडिशनल फूड एक्सपोजर अवार्ड मिल चुका है. इसके अलावा झारखंडी कुदरूम, कांदा, फुटकल, करौंदा सहित अन्य चीजों का भी अचार बनाती हैं. इसे काफी पसंद किया जा रहा है. रूगड़ा का अचार सबसे ज्यादा प्रचलित है. उन्होंने बताया कि रूगड़ा का अचार बना कर सोशल मीडिया पर शेयर करने के बाद से दिल्ली, मुंबई, ओडिशा, चेन्नई, तमिलनाडू, राजस्थान, कोलकाता, विशाखापट्टनम, गुजरात, गोवा, बेंगलुरु व सिल्लीगुड़ी सहित अन्य शहरों में 400 ऑर्डर भेज चुके हैं. अब गांव के लोगों से ही रूगड़ा खरीद कर अचार तैयार कर रहे हैं. अभी घर से ही यह काम कर रहे हैं. कोशिश है कि झारखंडी व्यंजनों को देश-विदेश में पहचान मिले.
ट्राइबल फूड को पहचान दिला रहे सुरेंद्र उरांव
ओरमांझी से लगभग 12 किलोमीटर दूर तिरला गांव के सुरेंद्र उरांव झारखंडी व्यंजनों को पहचान दिलाने में लगे हैं. उन्होंने कोरोना काल में अपने गांव जाकर गुलगुला व नॉनवेज बना कर बेचना शुरू किया. इसके लिए गांव में ही पहाड़ पर साफ-सफाई कर लोगों के बैठने के लिए जगह बनायी. धीरे-धीरे इन्होंने जंगल में उगनेवाले फुटकल साग, कटई साग, पेलको साग, कंदा साग, चाकोड साग, कुरथी दाल, धंधरा दाल, ढेकी चावल, मडुवा रोटी व आम-कटहल का आचार बनाकर बेचना शुरू किया. झारखंडी फूड के दीवाने अब दूर-दूर से इनके पास आते हैं. लोगों की भीड़ को देखते हुए पहाड़ की चोटी पर पुआल का शेड बना कर टेबल-कुर्सी की व्यवस्था की गयी. घर से खाना बनाकर पहाड़ पर लाया जाता है. सुरेंद्र बताते हैं कि एक हजार रुपये से काम शुरू किया था. झारखंड के वैसे व्यंजन बनते हैं, जो केवल जंगलों में ही मिलते हैं. घर पर पत्नी और परिवार के सदस्य मिलकर खाना बनाते हैं. खाना खाने दूर-दूर से युवा, अधिकारी व नेता पहुंचते हैं. यहां सखुआ पत्ता के दोना में खाना परोसा जाता है. पहाड़ पर बैठकर झारखंडी व्यंजन खाने का मजा की कुछ और है.
केशवंती के चाकोड सूप की खुशबू के सब हैं दीवाने
दसमाइल (तुपुदाना) निवासी की केशवंती सामंत झारखंड ट्राइबल फूड को बढ़ावा दे रही हैं. उनके बनाये धुस्का, बड़ा, मड़ुआ रोटी, छिलका रोटी, गुलगुला, चाकोड सूप, मड़ुआ लड्डू की खुशबू का हर कोई दीवाना है. पूरे देश में झारखंडी व्यंजनों का स्वाद फैला रही हैं. केशवंती ट्राइफेड की ओर से दिल्ली में आयोजित आदि महोत्सव में भी झारखंडी व्यंजनों की खुशबू बिखेर चुकी हैं. साथ ही उनकी नव विहान महिला समिति से जुड़ी महिलाएं अचार, पापड़, जूट बैग और ड्राइ फ्लावर भी बनाती हैं. उन्हें रोजगार का बेहतर अवसर मिल रहा है. केशवंती कहती हैं : आदिवासी महिलाओं के लिए कई सरकारी योजनाएं चलायी जा रही हैं. आदिवासी महिलाओं में हुनर है, लेकिन बेहतर मंच नहीं मिलने से उनकी प्रतिभाएं निखर नहीं पाती हैं. सरकार को महिलाओं को बिना परेशानी के सीधा मंच देने की जरूरत है. मुझे आदि महोत्सव तक जाने का अवसर मिला, जिससे पहचान बनी. अब लोग झारखंडी व्यंजनों को काफी चाव से खा रहे हैं. आदिवासियों की पहचान उनकी कला, संस्कृति, व्यंजन और रहन-सहन के लिए है.