World Tribal Day: नये झारखंड के निर्माण की जरूरत
World Tribal Day: आदिवासी किसानों के परंपरागत अधिकार सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, खूंटकट्टी अधिकार, विलकिन्सन रूल, पेसा कानून और पांचवीं अनुसूची में प्रावधान अधिकारों को कुचला जा रहा है.
दयामनी बरला
World Tribal Day: विश्व आदिवासी दिवस पर झारखंड के ज्वलंत मुद्दों पर चिंतन करने की जरूरत है. पिछले दिनों लोकसभा सदन के बाद झारखंड विधानसभा में संतालपरगना के साहेबगंज की डेमोग्राफी बदलने का मुद्दा उठा. यह बहुत अच्छा रहा कि इसी बहाने सत्ता और विपक्ष आदिवासी समुदाय के ज्वलंत मुद्दे पर बोल रहा है.
जल-जंगल-जमीन-पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासी समूह हमेशा इसे रोकने के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं. चिंता जाहिर करते रहे हैं कि कथित विकास से हो रहा विस्थापन, जंगल-जमीन की गैरकानूनी लूट, आदिवासी जमीन पर जबरन कब्जे से आदिवासी बड़ी संख्या में विस्थापित होते जा रहे हैं. खेती की जमीन कम होती जा रही है. प्रकृति, पर्यावरण, जंगल-जमीन, नदी-झील झरना अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं.
विस्थापित आदिवासी-मूलवासी बेरोजगारों की संख्या राज्य में दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. सामुदायिक जीवनशैली और पहचान भी हाशिये पर ठेल दी गयी है. नौजवान रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में राज्य से बाहर पलायन करने को मजबूर हैं. वहीं, दूसरी ओर नौकरी करने, व्यवसाय करने, मजदूरी करने बाहर से भारी संख्या में लोग आ रहे हैं. स्थानीय आदिवासी-मूलवासी आबादी कम होती जा रही है और बाहर से आयी आबादी बढ़ती जा रही है. झारखंड की बदलती डेमोग्राफी पर भी चिंतन की जरूरत है.
1800 के दशक में आदिवासी इलाके में जब अंग्रेज शासकों व जमींदारों द्वारा आदिवासियों की स्वशासन व्यवस्था पर चारों तरफ से हमला हो रहा था, तब बिरसा मुंंडा ने कहा था- “देखो, हमारी धरती धूल की तरह उड़ी चली जा रही है.” आज वैश्विक पूंजी बाजार में आदिवासी-मूलवासी, दलित, मजदूरों, किसानों के जंगल, जमीन सहित प्राकृतिक धरोहरों पर कार्पोरेट शक्तियों का हमला तेज होता जा रहा है.
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आदिवासी किसानों के परंपरागत अधिकार सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, खूंटकट्टी अधिकार, विलकिन्सन रूल, पेसा कानून और पांचवीं अनुसूची में प्रावधान अधिकारों को कुचला जा रहा है. देश की कल्याणकारी सरकार ने आदिवासी, दलित, किसानों एवं मजदूरों के संवैधानिक अधिकारों में बहुत सारे संशोधन पूंजीपति घरानों के हित में कर दिये हैं.
देश की आर्थिक नीति, विश्व बैंक और कॉरपोरेट घरानों के दिशा-निर्देंशों एवं कल्याणकारी राष्ट्र एवं राज्य की बदलती भूमिका ने देश के आदिवासी, मूलवासी किसानों, दलितों के परंपरागत संवैधानिक अधिकार को हाशिये पर ला दिया है. सरकार निजी पूंजी को तेजी से बढ़ावा दे रही है. इसके लिए भूमि स्वामित्व के रिकॉर्ड एवं पंजीयन व्यवस्था को अपने अनुरूप करके भूमि की खरीद-बिक्री को बढ़ावा देना सरकार अपनी प्राथमिकता मानती है.
इसके लिए पार्सल मैप बनाया जा रहा हैै, साथ ही डिजिटल रिकॉॅर्ड रखने की व्यवस्था की जा रही है. इसमें भूमि के मालिकाना का रिकॉर्ड भी अपडेट किया जाता है. इसके साथ ही संपत्ति कर/टैक्स एवं भूमि के लेन-देन का रिकॉर्ड बनाया जाना है, ताकि सरकार रीयल स्टेट, देशी-विदेशी कंपनी, जिसे भी जमीन चाहिए, आसानी से उपलब्ध किया जा सके.
ग्लोबल पूंजी बाजार की व्यवस्था ने भोजन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य को मुनाफा के केंद्र के रूप में विकसित किया. जिंदगी की इन मूलभूत जरूरतों को निजी पूंजी स्वामित्व के हवाले सरकार ने कर दिया है. इसके लिए दो बातों की आवश्यकता थी, पहली- देश के लोकतंत्र एवं लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को समाप्त करना, तथा बाजार में राज्य के हस्तक्षेप को समाप्त करना. दूसरी- प्राकृतिक संसाधनों, जंगल, जमीन, पानी, और खनिज पर कब्जा करना. इसका मूल उद्देश्य है राष्ट्र् और राज्य की संप्रभुता को समाप्त करना और बाजार की पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत करना.
लोकतंत्रिक व्यवस्था अलोकतांत्रिक हो गयी है. संविधान द्वारा प्रदत्त अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े समुदाय के सामुदायिक अधिकारों को खारिज कर कॉरपोरेट के हाथों सौंपा जा रहा है. 2015-16 में तत्कालीन राज्य सरकार ने राज्य के 24 जिलों के गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, जंगल-झाड़ी भूमि, नदी-नाला, झरना, खेल मैदान, सरना, मसना, अखड़ा, चरागाह सहित गांव के सामुदायिक संपत्ति/भूमि के प्लॉटों को चुन-चुन कर भूमि बैंक में डाल दिया.
इस बैंक के जरिये सरकार निवेशकों को राज्य में आकर्षित करना चाहता है. निवेशकों को जमीन हस्तांतरित करने में किसी तरह की कठिनाई न हो, इसके लिए सिंगल विंडो सिस्टम बनाया गया. जमीन की डिजिटल व्यवस्था ने राज्य के आदिवासी, मूलवासी किसानों के जमीन के रिकॉर्ड में छेड़छाड़ कर अपने जमीन से रैयतों को बेदखल किया जा रहा है.
जमीन के गलत डिजिटल अपडेट होने के कारण अपने जमीन का मालगुजारी रसीद नहीं कटवा पा रहे हैं. इस व्यवस्था ने आदिवासी, मूलवासी, दलित किसानों को परेशान कर दिया है. झारखंड अलग राज्य बने 24 साल हो गये. झारखंड एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है, जहां भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिखता है.
इससे बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता जनसंघर्ष को तेज करना और उसके आधार पर एक नयी जन-राजनीतिक बहस का निर्माण करना है. आदिवासी-मूलवासी, दलित समुदाय के संगठित शक्ति की सामुदायिक ताकत की ओर पूरी दुनिया देख रही है, जो सिदो-कान्हू, फूलो-झानो, सिंदराय-बिंदराय मानकी, तेलंगा खड़िया, वीर बुधु भगत, बिरसा मुंंडा, माकी मुंंडा और जतरा टाना भगत के शहादती संघर्ष में छिपा हुआ है.
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