World Tribal Day: इन आदिवासियों ने जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ी थी जंग

विश्व आदिवासी दिवस कल पूरे भारते में धूमधाम से मनाया जाएगा. कई राज्यों में इसे लेकर तमाम तरह के आयोजनों का आगाज हो रहा है. ऐसे में हमें उन आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानना जरूरी है जिनका आजादी की लड़ाई में खास योगदान था.

By Sameer Oraon | August 8, 2022 2:42 PM

रांची: 9 अगस्त को पूरे भारत में विश्व आदिवासी दिवस धूमधाम से मनाया जाएगा. कई राज्यों में इसे लेकर रंगारंग सास्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है. झारखंड की राजधानी रांची में भी दो दिवसीय जनजातीय महोत्सव का आयोजन होने जा रहा है. तो वहीं पूर्व खादी एवं ग्रामोद्योग राज्य मंत्री गोलमा देवी ने राजस्थान में हो रहे विश्व आदिवासी दिवस के कार्यक्रम में आने के लिए बकायदा के कई गांवों में पीले चावल बांटकर कार्यक्रम में आने के लिए अनुरोध किया है.

दरअसल तरह के आयोजन का मुख्य उद्देश्य दुनिया की स्वदेशी आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनकी रक्षा करना है तथा उन योगदानों को स्वीकार करना है जो स्वदेशी लोग वैश्विक मुद्दों जैसे पर्यावरण संरक्षण हेतु करते हैं. औधोगिकरण के नाम पर आज भले ही लोग वन संसाधनों का दोहन कर रहे हैं लेकिन आदिवासी समाज इसकी रक्षा के लिए सदियों से प्रयासरत है. इस सुमदाय के लिए जल, जंगल और ज़मीन सर्वोपरि है. इसकी रक्षा के लिए वो अंग्रेजों से भिड़ गये थे. ऐसे में आज के उन आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानना बेहद जरूरी है जिनके प्रयास से अंग्रेजी हुकूमत कांप गयी थी.

सिदो कान्हू मुर्मू

30 जून को संताल हूल दिवस मनाया जाता है. जिसका केंद्र झारखंड का संताल परगना था, 1855-56 में वीर सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हुआ था. जल, जंगल जमीन और आदिवासी अस्मिता की रक्षा के लिए संताल जनजाति के प्रतिरोध की यह सबसे बड़ी घटना थी. इसके पीछे तीन कारक रहे- पहला, जल, जंगल और जमीन पर हक का सवाल, दूसरा, ब्रिटिश हुकूमत की लगान वसूलने की नीति और इसके लिए उसके द्वारा बहाल जमींदारों की नीयत तथा तीसरा, महाजनों का शोषण. इन तीनों कारकों को पुलिस, न्याय और प्रशासन में बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण ने और घना कर दिया. लिहाजा, बार-बार विद्रोह हुए और एक-दो को छोड़ कर हर बार संतालों ने हुकूमत को झुकाया, नीति व व्यवस्था में सुधार और बदलाव करने के लिए मजबूर किया.

बिरसा मुंडा

1895 में बिरसा ने अंग्रेजों द्वारा लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का एलान किया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. यह सिर्फ विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.

उस समय ब्रिटिश शासकों और जमींदारों के शोषण से आदिवासी समाज झुलस रहा था. बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना शुरू किया- सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक, जिसके तहत उन्होंने आदिवासी समाज को अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से बाहर निकालने पर काम किया. वर्ष 1895 से 1900 के बीच मुंडा आदिवासियों ने बिरसा के नेतृत्व में छापामार लड़ाई द्वारा अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था

तिलका मांझी

बिहार के सुल्तानगंज के तिलकपुर गांव में 11 फरवरी, 1750 को जन्मे जनजातीय समुदाय के तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी माना जाता है. दरअसल तिलका ने अंग्रेज और उनके पिट्ठू शोषकों को प्रकृति, भूमि, जंगल और उनके जनजातीय समुदाय के साथ क्रूरता से पेश आते देखा था. इसी शोषण को देखते हुए तिलका ने लोगों को संगठित कर प्रेरित करना शुरू किया. अंततः 28 वर्षीय तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने 1778 में रामगढ़ कैंट में तैनात पंजाब रेजिमेंट पर ही हमला कर दिया. आक्रोशित उग्र आदिवासियों के सामने प्रशिक्षित सैनिक भी नहीं टिक पाये और अंग्रेजों को कैंट छोड़ कर भागना पड़ा.

जतरा उरांव

जतरा उरांव का जन्म वर्तमान गुमला जिला के बिशुनपुर प्रखंड के चिंगारी गांव में 1888 में हुआ था. जतरा उरांव ने 1914 में आदिवासी समाज में पशु- बलि, मांस भक्षण, जीव हत्या, शराब सेवन आदि दुर्गुणों को छोड़ कर सात्विक जीवन यापन करने का अभियान छेड़ा. उन्होंने भूत-प्रेत जैसे अंधविश्वासों के खिलाफ सात्विक एवं निडर जीवन की नयी शैली का सूत्रपात किया। उस शैली से शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने की नयी दृष्टि आदिवासी समाज में पनपने लगी. तब आंदोलन का राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट होने लगा.

सात्विक जीवन के लिए एक नये पंथ पर चलने वाले हजारों आदिवासी जैसे सामंतों, साहुकारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संगठित ‘अहिंसक सेना’ के सदस्य हो गये. जतरा भगत के नेतृत्व में ऐलान हुआ- माल गुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टैक्स नहीं देंगे. बाद में ये आंदोलन टाना भगत आंदोलन’ के रूप में सुर्खियों में आ गया. आंदोलन के मूल चरित्र और नीति को समझने में असमर्थ अंग्रेज सरकार ने घबराकर जतरा उरांव को 1914 में गिरफ्तार कर लिया. उन्हें डेढ़ साल की सजा दी गयी. जेल से छूटने के बाद जतरा उरांव का अचानक देहांत हो गया लेकिन टाना भगत आंदोलन अपनी अहिंसक नीति के कारण निरंतर विकसित होते हुए महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया

Next Article

Exit mobile version