World Tribal Day: झारखंड के इन आदिवासियों ने मनवाया है लोहा, इतिहास के पन्नों में दर्ज है नाम

हम विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखंड के कुछ ऐसे ट्राइबल्स की बात करेंगे जिन्होंने देश में अपनी अलग पहचान बनायी और इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज कराया.

By Sameer Oraon | August 8, 2023 2:59 PM

आदिवासी समाज की तस्वीर आज बदल रही है, हर क्षेत्र में जनजातियों की भागीदारी बढ़ती जा रही है. चाहे वो खेल का क्षेत्र हो या फिर साहित्य की. देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हो या फिर ओलंपियन सलीमा टेटे, ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिसने साबित किया है कि आज आदिवासी किसी से कम नहीं. इनमें से कई लोग तो इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है. ऐसे में आज हम विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखंड के कुछ ऐसे ट्राइबल्स की बात करेंगे जिन्होंने देश में अपनी अलग पहचान बनायी और इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज कराया.

अलबर्ट एक्का

अलबर्ट एक्का का जन्म गुमला के जारी में 27 दिसंबर 1942 को हुआ था. अलबर्ट ने प्रारंभिक पढ़ाई गांव के ही सीसी पतराटोली व मिडिल स्कूल की पढ़ाई भिखमपुर स्कूल से की. घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रहने के कारण वे आगे की पढ़ाई नहीं कर सके. गांव में ही अपने पिता के साथ खेतीबारी का काम करते थे. इस दौरान अलबर्ट ने दो वर्षो तक नौकरी की तलाश भी की. लेकिल उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिली. अंततः उसकी मंजिल भारतीय सेना में मिली. अलबर्ट ने अपनी बहादुरी का लोहा 1971 के भारत-पाक युद्ध में मनवाया. जब उन्होंने पाकिस्तान को उनके घर में घुसकर उनके बंकर को नष्ट कर दिया. भले ही वे इस युद्ध में शहीद हो गये थे लेकिन उससे पहले उन्होंने कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था.

सुमराय टेटे

सुमराय टेटे का जन्म सिमडेगा जिले में 15 नवंबर 1979 को हुआ था. बचपन से उनकी रूचि हॉकी के तरफ थी. और अपने इसी कड़ी मेहनत के दम पर उन्होंने साल 1995 में भारतीय सीनियर हॉकी टीम अपनी जगह बनायी. लगातार शानदार प्रदर्शन के दम पर बाद में उन्हें भारतीय सीनियर हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया. इस उपलब्धि को हासिल करने वाली वो पहली आदिवासी महिला थी. साल 2017 में “ध्यानचंद अवार्ड” से सम्मानित किया गया था. उपलब्धियों की बात करें तो साल 2002 मैनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण, 2002 जोहांसबर्ग चैंपियंस ट्रॉफी कांस्य, 2002 बुसान एशियाड 2003 सिंगापुर एमआइए हॉकी चैंपियनशिप स्वर्ण, 2003 हैदराबाद एफ्रो-एशियाई खेलमें स्वर्ण, 2004 नयी दिल्ली एशिया कप का स्वर्ण, 2006 मेलबोर्न कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक अपने नाम किया.

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निवेदिता डांग

निवेदिता डांग ने साहित्य के क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ा है. राजधानी रांची की निवेदिता को इसी साल मार्च में एशिया का सबसे बड़ा पुरस्कार गोल्डन बुक अवार्ड से नवाजा गया है. उन्हें ये सम्मान विंग्स पब्लिकेशन इंटरनेशनल की ओर से दुबई में दिया गया था. उनकी इस किताब को अंग्रेजी लिट्रेरी की कैटेगिरी में रखी गयी थी. बता दें कि इससे पहले निवेदिता को लेखन के लिए कई अन्य सम्मान मिल चुका है.

सिमोन उरांव

सिमोन उरांव को लोग वाटर मैन के नाम से भी जानते हैं. उन्होंने ग्रामीणों को कृषि कार्य के लिए वर्षा पर बहुत निर्भर नहीं रहने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने इसके बांध बनाने का उपाय सुझाया. बाद में उन्होंने क्षेत्र में 5 चेक डैम निर्माण में बड़ी भूमिका निभायी. जल संचयन के क्षेत्र में उनके इस शानदार कार्य के लिए पद्मश्री से भी नवाजा गया.

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दीपाली अमृत

दीपाली अमृत रांची रेल मंडल में झारखंड की पहली महिला लोको पायलट हैं. वो कांके की रहने वाली है. दीपाली ने अपनी पढाई बीएसएल हाई स्कूल बोकारो से की. उसके बाद डिप्लोमा करने के लिए वह रांची चली आयी. महिला पालिटेक्निक से 1999 में डिप्लोमा ट्रेन चालक बनने के लिए प्रयासरत रही. आज उनकी मेहनत रंग लायी और वह ट्रेन चला रही है. हालांकि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत असिस्टेंट लोको पायलट के रूप में की.

ओलंपियन सलीमा टेटे

भारतीय हॉकी टीम की खिलाड़ी सलीमा टेटे को आज कौन नहीं जानता है. जब खेल के मैदान में अपनी हॉकी स्टिक लेकर विपक्षी खेमे में सेंध मारती है तो सभी पस्त हो जाते हैं. उनके खेल की तारीफ खुद प्रधानमंत्री पीएम मोदी ने की थी. भारतीय टीम में उनका चयन साल 2016 में पहली बार जूनियर महिला हॉकी टीम के लिए किया गया था. उनके शानदार प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें उसी वर्ष अंडर 18 एशिया कप के लिए जूनियर भारतीय महिला टीम की उपकप्तान बनाया गया था. साल 2021 में उन्हें टोक्यो ओलंपिक के लिए चुना गया था.

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झारखंड की विनीता सोरेन

विनीता सोरेन एवरेस्ट फतह करने वाली पहली आदिवासी युवती है. वह सरायकेला-खरसावां जिले की पहाड़पुर गांव की रहने वाली है. विनीता ने साल 2012 में एवरेस्ट फतह करने का कारनामा किया था. उनके साथ मेघलाल महतो और राजेंद्र सिंह भी थे. उनकी टीम में शामिल लोगों ने शिखर पर चढ़ने के लिए सबसे कठिन रास्ता का चयन किया था. बता दें कि माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने वालों में शामिल चार भारतीयों में तीन झारखंड के हैं.

विनीता संघर्ष ने अपने संघर्ष को प्रभात खबर के साथ भी साझा किया था. उनका कहना था कि पिता पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते थे, लेकिन मैंने तो करियर के रूप में एवरेस्ट को चुन लिया था. एडवेंचर के लिए कई जरूरी सामान चाहिए होते हैं. सुविधाएं कम थीं, लेकिन एवरेस्ट तक पहुंचने का जुनून उससे ज्यादा था. साल 2004 में मैं अपनी गुरु बछेंद्री पाल से मिली थी. उन्होंने हिम्मत दी. इसके अलावा टाटा ने भरोसा जताया.

यहां तक पहुंचने से पहले मैंने ट्रेनिंग ली. बेसिक और एडवांस कोर्स किया था. इसके बाद एवरेस्ट फतह का सपना पूरा करने के लिए निकल पड़ी थी. उन्होंने अपनी परेशानियों को साझा करते हुआ कहा था कि वहां ऑक्सीजन की भारी कमी होती है. कम से कम सुविधा में रहना पड़ता है. हर कदम जिंदगी और मौत के बीच है. मैंने गांव में रहकर देखा है, वहां तकलीफ बहुत है. गांव की एक लड़की ऐसा रास्ता चुने, जो कठिन हो, तो लोग टोकते हैं, रोकते हैं. मुझे बाहर की आवाजों से फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन घरवाले भी जब मेरे फैसले पर सवाल करते थे, तो निरुतर हो जाती थी.

भगवान बिरसा मुंडा

भगवान बिरसा मुंडा को कौन नहीं जानता है. देश के लिए बलिदान और आदिवासियों को जागरूक करने के कारण इन्हें लोग धरती आबा भी कहते हैं. उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को खूंटी जिले के उलिहातू गांव में हुआ था. मिशनरियों के प्रवचनों का उन पर काफी प्रभाव पड़ा था और वे वैष्णव वक्ता की शिक्षाओं से प्रभावित हुए और पवित्रता को उच्च प्राथमिकता दी. वह बांसुरी बजाने में निपुण थे और कद्दू से बने एक वाद्य यंत्र अपने साथ रखते थे. बिरसा मुंडा ने अपने आंदोलन की शुरुआत 1895 में की थी. जिसके कारण उसे जेल में डाल दिया गया था. दंगों के आरोपी होने के कारण उन्हें दोषी ठहराया गया. उन्हें दो साल जेल की सजा भी मिली. 1897 में उन्हें जेल से रिहा किया गया था. 9 जून 1900 उनका निधन हो गया था.

सिद्दो कान्हू

संताल हूल क्रांति की अगुवाई में सिद्दो कान्हू, चांद और भैरव नाम के चार आदिवासी भाइयों ने की थी. इनकी बहनें फूलो और झानों ने भी आंदोलन में काफी सहयोग किया था. इनका जन्म भोगनाडीह में ही चुन्नी मुर्मू और सुबी हांसदा के घर में हुआ था. इस घऱ में दो बेटियों ने भी जन्म लिया. जिनका नाम रखा गया फूलो और झानो था. इन सबकी जन्मतिथि को लेकर कोई स्पष्ट एतिहासिक जानकारी नहीं है. हालांकि कई जगह उल्लेख मिलता है कि इन सबका जन्म सन् 1820 ईस्वी से लेकर 1835 ईस्वी के बीच हुआ. कहा जाता है कि इसके आंदोलन से अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल गयी थीं.

26 जुलाई 1855 को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी गयी लेकिन इस आंदोलन ने औपनिवेशिक शासन को नीति में बड़ा बदलाव करने को मजबूर कर दिया था. इस दिन को आदिवासी समाज पूरे उल्लास से मनाता है और अपने वीर सिद्धू, कान्हू और चांद-भैरव को याद करता है. सिद्धू-कान्हू के नाम से झारखंड में एक विश्वविद्यालय भी 1996 में शुरू किया गया था. इस वीरता के सम्मान में 2002 में भारतीय डाक विभाग ने डाक टिकट भी जारी किया था.

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