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World Tribal Day: आदिवासी हैं, और हमेशा रहेंगे

World Tribal Day: देशज लोगों का अपनी जमीन के साथ एक विशेष संबंध होता है उनके लिए जमीन सिर्फ उपज लेने के काम आने वाली वस्तु ही नहीं बल्कि यह उनके लिए आध्यात्मिक स्रोत भी है.

By Mithilesh Jha | August 9, 2024 8:19 AM

डॉ संजय बाड़ा

World Tribal Day|आस्ट्रेलिया के आदिवासी लोगों का एक प्रसिद्ध नारा है “ऑलवेज वाज, ऑलवेज विल बी एबओरिजनल लैंड” जिसका हिंदी में अर्थ है, “भूमि हमेशा से आदिवासियों की रही है और यह हमेशा रहेगी.“ यह वाक्य दुनिया भर के आदिवासियों के भूमि के साथ उनके निकटतम संबंध को प्रतिबिंबित करता है.

भूमि आदिवासी जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है. बाहर से देखने से ऐसा लगता है कि भूमि सिर्फ कृषि एवं आवास जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ही तो करता है, पर एक आदिवासी ही जानता है कि उसके लिए भूमि के मायने कहीं व्यापक हैं, जहां उनके पूर्वजों की हड्डी उस मिट्टी में मिली है, जहां उसने आरंभ में चलना, गिरना, नाचना, खेती करना और मिट्टी में मिल जाना सीखा है.

देशज लोगों का अपनी जमीन के साथ एक विशेष संबंध होता है उनके लिए जमीन सिर्फ उपज लेने के काम आने वाली वस्तु ही नहीं बल्कि यह उनके लिए आध्यात्मिक स्रोत भी है. परंपरागत भूमि उनके लिए पूर्वजों की समाधि, वंश गोत्र का मूल स्थल तथा उनकी धार्मिक पद्धति के अंतर्गत आवश्यक अन्य पवित्र कृत्यों के रूप में महत्वपूर्ण सांकेतिक तथा भावनात्मक अर्थ रखती है.

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एक पुस्तक में उद्धृत एक पंक्ति एक पीवीटीजी समूह के मुखिया की आदिवासियों के अनूठी जीवन पद्धति को सामने रखने का बेहतरीन प्रयास है. वे कहते हैं “मेरी जमीन मेरी रीढ़ की हड्डी है….. मैं स्वयं को सुखी समझता हूं, स्वयं पर गर्व करता हूं और मुझे अपने रंग पर जरा भी शर्मिंदगी नहीं है क्योंकि मेरे पास अभी तक जमीन है.

मैं नाच सकता हूं, गा सकता हूं, जैसा कि मेरे पुरखों ने किया था, मेरी जमीन मेरी नींव है. मैं तभी तक खड़ा रह सकता हूं, जी सकता हूं, काम कर सकता हूं, जब तक मेरे पैरों के नीचे कोई सख्त एवं मजबूत चीज हो. जमीन के बिना हम संसार के निकृष्ट लोग होंगे.” उपरोक्त उक्ति भूमि के साथ आदिवासियों के संबंध को चरितार्थ करती है.

आदिवासी परंपरा में भूमि के साथ उनके निकटतम संबंध के अनेक उदाहरण हैं. मुंडा परंपरा में ससान-दिरि का विशेष महत्व है. ससानदिरि वह स्थान होता है, जहां एक किलि या वंश के मृतकों की अस्थियां दफनायी जाती हैं. इसमें अनेक पाषाण खंड गाड़े हुए होते है. इन पाषाण खंडों के नीचे मृतक की अस्थियां परिवार के अनुसार रखी जाती हैं. कई शताब्दियों से पूर्वज अपने मृतकों की अस्थियां ससान में गाड़ते रहे हैं.

यदि किसी परिवार के किसी व्यक्ति का बाहर निधन हो जाता है तो वहां अंतिम संस्कार करने के उपरांत उसकी अस्थियां गांव में लायी जाती है तथा उसे ससानदिरि के नीचे दफना दी जाती है. पारिवारिक संपत्ति में अधिकार प्रमाणित करने के लिए ससानदिरि में अस्थि का दफनाया जाना एक मान्य साक्ष्य है क्योंकि एक खूंट या भूइहर के लोगों के अलावा किसी अन्य की अस्थियां ससान में नहीं दफनाई जा सकती.

एक दूसरा उदाहरण सरना स्थल है, यह सरना स्थल गांव का पवित्रतम स्थान होता है, जो साल वृक्षों का समूह या कुंज से घिरा हुआ होता है. इन वृक्षों पर एक क्षेत्रीय कल्याणकारी बोंगा का निवास होता है. उसी तरह से अखड़ा, जाहेरथान, देशाउली, मसना, हातु, घोटुल, गीतिओडा, डीह, तोरंग, धुमकुड़िया, बुरु एवं बीर आदि पवित्र, धार्मिक एवं सामाजिक स्थल हैं, जिसे किसी एक जगह से दूसरे जगह स्थांतरित नहीं किया जा सकता है.

आदिवासी परंपराओं में पवित्रतम स्थल का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरना स्थल को किसी अन्य उपासनालयों की भांति यहां से वहां न ले जाया जा सकता है, न ही उसकी प्रकृति किसी प्रकार से बदली जा सकती है. यहां ध्यान देने योग्य बात है कि किसी परियोजना, सड़क या विकास कार्यों के नाम पर गांव या खेतों को यहां से वहां स्थानांतरण करने की बात होती है, परंतु किसी परियोजना निर्माण के पूर्व यह विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए कि आदिवासियों के पूर्वज, देवता, सामुदायिक स्थल आदि का स्थानांतरण नहीं किया जा सकता है, और यदि ऐसा होता है तो इसका तात्पर्य है आदिवासी संस्कृति की अनदेखी कर उनकी संस्कृति का समूल नाश करना.

वैश्विक बाजार एवं कंपनियों ने लगातार स्थानीय लोगों पर अपने रिवाजों को थोपा है. इसने आदिवासियों के समक्ष कई जटिल समस्याएं भी उत्पन्न कर दी हैं, जो इनके जीवन में व्यवधान उत्पन्न कर रही हैं. विस्थापन और अस्मिता का सवाल उनकी मुख्य समस्याएं हैं.

9 अगस्त आदिवासियों के विषय में पूरे विश्व को स्मरण दिलाने का अवसर है कि आदिवासी है और हमेशा रहेंगे. हर समुदाय प्रकृति का ऋणी है. आदिवासी संस्कृति एवं परंपरा हमें एक ऐसी व्यवस्था अपनाने को प्रोत्साहित करती है, जो प्रकृति के नियमों का पालन कर सतत विकास की दिशा में आगे बढ़े. भले ही आज विषम परिस्थितियों में दुनिया के अलग अलग भागों में वे अपने अस्तित्व, संस्कृति एवं अधिकारों के रक्षार्थ संघर्ष कर रहे हो, परंतु यह भी सत्य है कि उनके पूर्वजों ने उन्हें संघर्ष का मार्ग दिखाया है.

(लेखक जीएलए कॉलेज, मेदिनीनगर में इतिहास विभाग के सहायक प्राध्यापक हैं)

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