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World Tribal Day: मुखर होती आदिवासी समाज की आवाज

World Tribal Day: 13 सितंबर 2007 को 'आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र’ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंगीकृत किया. पूरे विश्व में लगभग 47 करोड़ आदिवासी हैं.

डॉ अभय सागर मिंज

World Tribal Day: 9 अगस्त 1982 को प्रथम बार संयुक्त राष्ट्र संघ के एकनॉमिक एंड सोशल काउंसिल ने आदिवासियों से संबंधित एक कार्यकारी समूह का गठन किया, जिसे वर्किंग ग्रूप ऑन इंडिजीनस पॉप्युलेशन कहा गया.

1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा गठित आदिवासियों से संबंधित कार्यकारी समूह ने आदिवासियों के अधिकार के घोषणा पत्र का एक प्रारंभिक ड्राफ्ट, ‘अल्पसंख्यकों के भेदभाव और संरक्षण पर रोकथाम के लिए गठित उप-आयोग को प्रस्तुत किया था. और यहीं यह निर्णय लिया गया कि पूरे विश्व में 9 अगस्त को आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जायेगा.

13 सितंबर 2007 को, लगभग 25 वर्षों के अथक परिश्रम और सतत संघर्ष के पश्चात ‘आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र’ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंगीकृत कर लिया. पूरे विश्व में लगभग 47 करोड़ आदिवासी हैं.

अमूमन अनेक आदिवासी मुद्दों पर चर्चा अपने समकक्ष विश्व के अनेक देशों से आये आदिवासी मित्रों से होती थी. एक बड़ा आम प्रश्न होता था कि आपने अपने देश में ‘आदिवासी दिवस’ को किस प्रकार मनाया? इस प्रश्न को अब लगभग दो दशक होने को आये हैं. और आज ठोस रूप से कह सकता हूं कि आदिवासियों की आवाज और पहचान अब ‘मुखर’ हुई है. वैश्विक स्तर पर भी अब पूरे विश्व के आदिवासी ऐतिहासिक रूप से संगठित हुए हैं.

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बीते दशक के शुरुआत से आदिवासियों की राजनैतिक पहचान को एक नया आयाम मिला है. संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक घटक इकाइयों में आदिवासी आवाज प्रखर हुई है. जलवायु परिवर्तन, संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास प्रक्रिया 2030, आदिवासी ही जल जंगल पृथ्वी को बचा सकते हैं, यह अवधारणाएं बहुत तेजी से विकसित हुईं. मौखिक परंपरा पर जीवित यह आबादी, आज विश्व के अस्तित्व के लिए एक विकल्प के रूप में उभर रही हैं. उनके जीवन शैली, सोच, आदिवासियत को अब वृहद् समाज अध्ययन कर रहा है और उसके ज्ञान को व्यावहारिक रूप से अपनाने का प्रयास कर रहा है.

बड़े राष्ट्रीय राजनैतिक दल अब ‘आदिवासी’ संबोधन को आत्मसात कर रहे हैं. राजनैतिक दल इस संगठित समूह की महत्ता भी भली भांति समझ रहे हैं. अभी 2021 की जनगणना बाकी है, लेकिन यदि हम 2001 और 2011 की जनगणना की विकास दर का गहन अध्ययन करें तो बड़ी रोचक बात उभर कर सामने आती है. 2001 की जनगणना में भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 8.43 करोड़ थी. 2011 में यह 10.45 करोड़ हो गयी. यहां 23% की सरल वृद्धि दर हमें देखने को मिलती है.

अन्य घटकों को यदि हम छोड़ दें और यही 23% की वृद्धि दर 2021 की जनगणना में लगायें तो यह जनसंख्या 12.50 करोड़ के आस पास होगी. मेरा अनुमान है कि यह आंकड़ा भी न्यूनतम है. पश्चिमी भारत के आदिवासी समुदाय बीते दशक में अधिक सचेत हुए हैं.

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विशेषकर राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र के अलावा मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय में ‘आदिवासियत’ के प्रति अधिक जाग्रत हुईं हैं. ऐसे में वो जन भी इस जनसंख्या में जुड़ेंगे जो पहले स्वयं को आदिवासी कहने में झिझकते थे. बीते दशक और वर्तमान में स्वयं को आदिवासी दर्ज कराने में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. विभिन्न राजनैतिक दल भी अब समझते हैं कि आदिवासी समुदाय एक निर्णायक वोट बैंक है. आश्चर्य नहीं होगा यदि यह जनसंख्या 2021 में 14 करोड़ के आंकड़े को छू ले.

आज आदिवासी समाज सचेत है. वह अनेक मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. हर क्षेत्र में उनका प्रवेश हो रहा है. देश के अग्रणी श्रेणी के नेता अब आदिवासी बनाम वनवासी जैसे ‘तर्क’ पर जोर डाल रहे हैं. अब वे आदिवासियों के हितैषी के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाह रहे हैं.

जल जंगल जमीन की सतही एवं छद्म लड़ाई लड़ने के लिए, आदिवासियों के साथ दिखने के लिए आतुर हैं. वर्तमान में आदिवासी समाज में भी लेखनी मजबूती के साथ उभर रही है. अब लोग बात कर रहे हैं, मुद्दों पर चर्चा हो रही है. ‘नेटिव राइटर्स’ इस मौखिक परंपरा वाले समाज की आवाज बन रहे हैं.

‘द पोलिटकल लाइफ ऑफ मेमोरी’ के लेखक डॉ राहुल रंजन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक में लिखा है कि ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के पास आवाज नहीं है, हम वृहद् समाज के लोगों के पास उन आवाजों को सुनने की शायद श्रुति तंत्र ही नहीं है. वर्तमान परिस्थिति में अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि धीमे गति से ही सही, यह श्रुति तंत्र अब विकसित हो रही है.

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भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा के हाथों से हथकड़ी पिछले दशक में हटा दी गयी, जो आजादी का संकेत है. लेकिन राहुल अपने शोध में लिखते हैं कि, एक साक्षात्कार के दौरान, आदिवासियों ने कहा था- हथकड़ी तो हटा दिये हो, लेकिन वर्तमान में झारखंड क्या सच में विषम परिस्थितियों से आजाद हो गया है?

आदिवासी पारंपरिक न्याय व्यवस्था को हम अनेक नामों से जानते हैं. उरांव समुदाय में यह पड़हा के नाम से जाना जाता है, मुंडाओं में इसे मानकी व्यवस्था, संतालों में परगना से जाना जाता है. यह व्यवस्था आदिवासियों में बहुत ही प्रभावी था. भारतीय संविधान में भी इनकी मान्यता है. आज विश्व की अग्रणी संस्थाएं इनका तुलनात्मक अध्ययन कर रहीं हैं.

पारंपरिक न्याय व्यवस्था, अनेक मायनों में प्रजातंत्र की गूढ़ परिभाषा को सही में जीती है. लोगों का, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए बनाया गया तंत्र. कठिन से कठिन मामले का निष्पादन समाज स्वयं करने में सक्षम था. आज यह धूमिल हो रही है.

इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद, आदिवासी समाज राष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाया है. इनका मूल कारण सांस्कृतिक विविधता है. यह सांस्कृतिक विविधता पुनः अनेक विभाजक कारकों को जन्म देती है. आदिवासियों के बीच राजनैतिक चेतना में एक नयी ऊर्जा का संचालन तो हुआ है, लेकिन एक दिशा की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है. और यदि जहां कहीं भी आदिवासी समूह राजनैतिक रूप से मुखर हुईं हैं, वो कहीं ना कहीं वृहद् राजनैतिक पार्टियों की कठपुतली बनी हुईं हैं.

राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर एक स्पष्ट एकता की घोर कमी है, और इसे पाटना अति आवश्यक है. यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि आदिवासी समाज में अभी भी पोलिटिकल बार्गेनिंग पॉवर नहीं है. और यह इसलिए ऐसा है क्योंकि, राजनैतिक दलों को इसका एहसास है कि आप छोटे छोटे दलों में स्वयं बंटे हुए हो. राजनैतिक दल निश्चित ही अब आपकी महत्ता को समझते हैं, पर आपको अभी इतनी गंभीरता से नहीं लेते हैं. अभय खाखा ने राजनैतिक पार्टियों के संदर्भ में लिखा था- “क्या आदिवासी, आप सब के लिये मात्र आंकड़े हैं?”

हाल के चुनाव में, अनेक राजनैतिक पार्टियों ने आदिवासियों को लुभाने का प्रयास किया. लेकिन जिस तत्परता से उन्हें आदिवासी समुदाय को साथ लेकर चलना था, वैसा उन्होंने नहीं किया. एक राष्ट्रीय पार्टी को लगा कि आदिवासी समुदाय तो स्वतः साथ हैं, तो अधिक परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है. लेकिन ऐसा नहीं है. अब आदिवासी समाज बहुत कुछ समझने लगा है. आप उनके साथ ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ वाला व्यवहार नहीं रख सकते. इस प्रकार के नजरिए से आप उनकी ‘पसंद’ नहीं ‘मजबूरी’ बन रहे हैं.

स्पष्ट एकता की कमी अनेक कारणों से है. बाहरी कारक और आंतरिक कारक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं. ऐसे अनेक आंतरिक छद्म नेतृत्व आपको आदिवासी समाज में मिल जायेंगे जो बड़े राजनीतिक दल के लिए कार्य करते हैं, लेकिन समाज के हित से उन्हें कोई विशेष सरोकार नहीं है. ऐसे लोगों को पहचानने की आवश्यकता है, नहीं तो बहुत देर हो जाएगी. आदिवासी क्रांतियां 1832, 1855 और 1857 शायद उपरोक्त कारणों से ही विफल हुई थी, क्योंकि आधी लड़ाई ‘अपनों’ से थी, जो दूसरी ओर थे.

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मु्खर्जी विश्वविद्यालय, रांची में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)

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