रांची. शास्त्रीय संगीत को सीखने की कोई उम्र नहीं है. इसे हर उम्र में सीखा जा सकता है. अगर कोई व्यक्ति इसे सुनकर, समझ कर और धैर्य रखकर सीखेंगे, तो शास्त्रीय संगीत में पारंगत होना आसान है. शास्त्रीय संगीत को सीखने से पहले उसका साधक बनना जरूरी है. ये बातें मंगलवार को सितार वादक गौरव मजूमदार ने कहीं. वह तीसरी बार रांची में अपनी सितार प्रस्तुति के लिए पहुंचे हैं. स्पिक मैके झारखंड चैप्टर की ओर से 24 से 26 अप्रैल तक रांची के सात केंद्रों पर सितार वादन कार्यक्रम किया जायेगा. कार्यक्रम की शुरुआत 24 अप्रैल को सुबह आठ बजे से जेवीएम श्यामली से होगी. इसी दिन दोपहर 12 बजे जीडी गोयनका पब्लिक स्कूल और शाम सात बजे टॉरियन वर्ल्ड स्कूल में संगीत संध्या का आयोजन होगा. फिर 25 अप्रैल को सुरेंद्रनाथ सेंटेनरी स्कूल, बिरसा शिक्षा निकेतन धुर्वा और उषा मार्टिन यूनिवर्सिटी में गौरव अपनी संगीतमय प्रस्तुति देंगे. वहीं, सितार संगम कार्यक्रम का समापन 26 अप्रैल को फिरायालाल स्कूल में प्रस्तुति के साथ होगा. सितार संगम में गौरव मजूमदार का मंच पर साथ देने इलाहबाद यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक सह संगीत ज्ञाता डॉ विनोद कुमार मिश्रा पहुंचेंगे.
30 वर्षों में संगीत नहीं, उसका माध्यम बदला
गौरव मजूमदार ने बातचीत के क्रम में कहा कि संगीत से जुड़कर अब 30 वर्ष बीत चुके है. इन तीन दशक में संगीत नहीं बदला, बल्कि उसका माध्यम बदला है. समाज का एक खास वर्ग है, जो शास्त्रीय संगीत को निरंतर यानी पीढ़ी-दर-पीढ़ी साथ लेकर आगे बढ़ा रहा है. इन लोगों में ही गुरु-शिष्य की आदरणीय परंपरा जीवित है. वहीं अन्य वर्ग शास्त्रीय संगीत और उसकी प्रसिद्धि से आज भी परिचित नहीं हैं. शास्त्रीय संगीत को लगातार सुनकर नहीं सीखा जा सकता. सीखने के लिए गुरु की शरण में जगह बनानी होगी.
पंडित रवि शंकर ने बतौर गुरु सर पर हाथ रखा
गौरव ने बताया कि वह चार वर्ष से संगीत सीख रहे हैं. शुरुआत में वोकल सीखा और 12 वर्षों तक वायलीन बजाया. इलाहबाद यूनिवर्सिटी में उनकी मुलाकात पंडित रवि शंकर से हुई. उनके सितार वादन से प्रभावित होकर इसे सीखने का मन बनाया. गौरव कहते है कि पंडित रवि शंकर ने बतौर गुरु सर पर हाथ रखा और प्रशिक्षण के लिए दिल्ली आने को कहा. सात वर्ष तक उनके घर पर रहकर संगीत सीखा. मैहर घराने में गुरु के आदेश पर कला संगत में आगे बढ़ा. इससे सितार वादन ही रोजी-रोटी बन गयी. गौरव कहते हैं कि गुरु पंडित रवि शंकर का सान्निध्य नहीं मिला होता. तो राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पहचान नहीं मिलती. 1980 में स्पिक मैके से जुड़े और 1993 से लगातार देशभर में प्रस्तुति दे रहे हैं.