Rath Yatra : यहां भगवान को मौसीबाड़ी पहुंचने में लग जाते हैं दो दिन…

शचिंद्र कुमार दाश सरायकेला : प्रभु जगन्नाथ को कलयुग में जगत के पालनहार श्रीहरि विष्णु का अवतार माना जाता है. प्रभु जगन्नाथ साल में एक बार रथ पर सवार होकर भक्तों को दर्शन देते हुए अपने जन्मस्थान गुंडिचा जाते हैं. इसे रथ यात्रा, गुंडिचा यात्रा या घोष यात्रा कहा जाता है. गुरुवार को इस वर्ष […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 4, 2019 12:10 PM
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शचिंद्र कुमार दाश

सरायकेला : प्रभु जगन्नाथ को कलयुग में जगत के पालनहार श्रीहरि विष्णु का अवतार माना जाता है. प्रभु जगन्नाथ साल में एक बार रथ पर सवार होकर भक्तों को दर्शन देते हुए अपने जन्मस्थान गुंडिचा जाते हैं. इसे रथ यात्रा, गुंडिचा यात्रा या घोष यात्रा कहा जाता है. गुरुवार को इस वर्ष प्रभु जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र व बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर मौसीबाड़ी गुंडिचा मंदिर के लिए चल पड़े हैं. 12 जुलाई को भाई-बहन के साथ श्रीमंदिर लौटेंगे.

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मान्यता है कि श्री जगन्नाथ की रथ यात्रा विभिन्न धर्म, जाति, लिंग के बीच सामंजस्य स्थापित करता है. रथ यात्रा ही एकमात्र ऐसा समय होता है, जब सारे भेद मिट जाते हैं. सभी एक समान होते हैं. श्री जगन्नाथ की वार्षिक रथ यात्रा प्रभु के प्रति भक्त की आस्था, मान्यता व परंपराओं की यात्रा है.

रथ यात्रा के दौरान आस्था की डोर खींचने के लिए भक्त साल भर का इंतजार करते हैं. मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया तिथि को आयोजित होने वाली रथ यात्रा की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. रथ यात्रा का प्रसंग स्कंदपुराण, पद्मपुराण, पुरुषोत्तम माहात्म्य, बृहद्भागवतामृत में भी वर्णित है. शास्त्रों और पुराणों में भी रथ यात्रा के महत्व को स्वीकार किया गया है.

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स्कंदपुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करते हुए गुंडिचा मंदिर तक जाता है, वह सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को प्राप्त करता है. जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा देवी के दर्शन करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है. रथ यात्रा एक ऐसा पर्व है, जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख-दुख में सहभागी होते हैं.

जीवंत हो जाती है उत्कलीय परंपरा

रथ यात्रा में न सिर्फ भक्तों की भक्ति तो दिखाई देती ही है, राजवाड़े के समय से चली आ रही समृद्ध उत्कलीय परंपरा भी जीवंत हो उठती है. मान्यता है कि रथ यात्र एकमात्र ऐसा मौका होता है, जब प्रभु स्वयं भक्तों को दर्शन देने के लिए श्रीमंदिर से निकलते हैं. यह भी कहा जाता है कि रथ पर सवार प्रभु जगन्नाथ के दर्शन से ही सारे पाप कट जाते हैं.

सरायकेला-खरसावां की रथ यात्रा की विशेषता

यूं तो ओड़िशा के पुरी में आयोजित होने वाला रथ यात्रा विश्व विख्यात है, लेकिन सरायकेला-खरसावां में श्रीजगन्नाथ रथ यात्र की भी अलग ही विशेषता है. यहां भी ओड़िशा के प्रसिद्ध जगन्नाथ पुरी की तर्ज पर पारंपरिक रूप से रथ यात्रा निकलती है. पुरी में आयोजित होने वाले हर रस्म को यहां भी पूरा किया जाता है. ओड़िया संस्कृति की विशाल परंपराओं को अपने में समेटे सरायकेला-खरसावां जिला में ढाई सौ साल से भी अधिक समय से रथ यात्रा का आयोजन हो रहा है.

सदियों पुरानी परंपरा दिखती है

रथ यात्रा के दौरान सदियों पुरानी परंपरा देखती है. यात्रा के समय विग्रहों को मंदिर से रथ तक पहुंचाने के समय राजा सड़क पर चंदन छिड़ककर वहां झाड़ू लगाते हैं. इस परंपरा को छेरा-पोहड़ा कहा जाता है. इसी रस्म के बाद रथ यात्रा की शुरुआत होती है. साथ ही रथ के आगे भक्तों की टोली भजन-कीर्तन करते हुए आगे बढ़ती है.

जिला में कई जगह होता है रथ यात्रा का आयोजन

सरायकेला-खरसावां के अलावा खरसावां के हरिभंजा, बंदोहौलर, गालुडीह, दलाईकेला, जोजोकुड़मा, सरायकेला, सीनी, चांडिल, रघुनाथपुर व गम्हरिया में भी भक्ति भाव से रथ यात्रा निकलती है. हरिभंजा में जमींदार नर्मदेश्वर सिंहदेव के समय शुरू हुई रथ यात्रा करीब ढ़ाई सौ साल पुरानी है. ओड़िशा के बोलांगीर से आये कीर्तन व घंटवाली दल हरिभंजा में आकर्षण का केंद्र होते हैं.

यहां में अलग-अलग इलाकों से भारी संख्या में लोग रथ यात्रा देखने पहुंचते हैं. सरायकेला में रथ यात्रा के मौके पर नौ दिनों तक मेला लगता है. खरसावां में भी रथ यात्रा राजा-राजवाड़े के समय से चली आ रही परंपरा के अनुसार निकलती है. चांडिल में पुरी की तर्ज पर तीन अलग-अलग रथों पर सवार होकर प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र व देवी सुभद्रा गुंडिचा मंदिर पहुंचते हैं.

सरायकेला में दो दिन का सफर तय कर प्रभु जगन्नाथ गुंडिचा मंदिर पहुंचते हैं, जबकि अन्य स्थानों पर एक दिन में ही प्रभु जगन्नाथ मौसीबाड़ी पहुंच जाते हैं. रथ यात्रा के बाद प्रभु जगन्नाथ एक सप्ताह तक अपनी मौसी के घर रहेंगे. इसके बाद श्रीमंदिर लौट आयेंगे.

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