रांची : झारखंड का सरायकेला राजघराना राजनीतिक रूप से काफी सशक्त रहा है. आजादी के बाद हुए चुनावों में सरायकेला राजवंश प्रभावी रहा. 1951 में हुए विधानसभा चुनाव में सरायकेला से राजा समर्थित गणतंत्र परिषद के प्रत्याशी मिहिर कवि सरायकेला के पहले विधायक बने.
इसके बाद 1957 में सरायकेला राजा आदित्य प्रताप सिंहदेव खुद चुनाव लड़े और विधायक चुने गये. वह कुल वोटों का 52 प्रतिशत से अधिक लाकर चुनाव जीते थे. 1962 में उनके बड़े पुत्र टिकैत नृपेंद्र नारायण सिंहदेव सरायकेला से चुनाव लड़े. उन्होंने करीब 2000 वोटों के अंतर से झारखंड पार्टी के निकटतम प्रतिद्वंद्वी को चुनाव में हराया था.
राजा के दूसरे पुत्र राजेंद्र नारायण सिंहदेव को पटना राजपरिवार के महाराजा पृथ्वीराज सिंहदेव ने गोद लिया था. 1957 में वह गणतंत्र परिषद प्रत्याशी के रूप में ओड़िशा के तितलागढ़ से विधायक बने. तब से लेकर 1974 के चुनाव तक राजेंद्र नारायण सिंहदेव सभी विधानसभा चुनाव लड़े और जीते. वह सदन में विपक्ष के नेता रहे. 1967 में स्वतंत्र पार्टी का विधायक रहते हुए उन्होंने ओड़िशा जन कांग्रेस के साथ मिली-जुली सरकार बनायी और प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. श्री सिंहदेव 1971 तक ओड़िशा के मुख्यमंत्री रहे. इधर, सरायकेला में राजपरिवार कमजोर पड़ रहा था. टिकैत नृपेंद्र नारायण सिंहदेव 1967 का चुनाव हार गये. सरायकेला से भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी आरपी षाड़ंगी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की. लेकिन, दो साल बाद ही हुए उपचुनाव में षाड़ंगी भी हार गये.
उनको राजा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार बनबिहारी महतो ने हराया. 1972 के चुनाव में महाराजा के नाती सत्यभानु सिंहदेव कांग्रेस के टिकट पर सरायकेला से चुनाव लड़े. वह केवल 299 वोटों से जीते. यह अब तक सरायकेला विधानसभा चुनाव में सबसे कम वोट से जीतने का रिकार्ड है. 1977 के चुनावों के पूर्व हुए परिसीमन में सरायकेला सीट को सामान्य से हटा कर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया. इसके बाद सरायकेला राजपरिवार के सदस्यों ने वर्तमान झारखंड के क्षेत्र से कभी चुनाव नहीं लड़ा.