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यादों में बसे रहेंगे स्वतंत्रता सेनानी धनंजय बाबू

धनंजय महतो के निधन से स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम युग का एक अध्याय समाप्त हो गया, लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी नीमडीह/चांडिल : धनंजय बाबू का जन्म आठ अगस्त 1919 में गुंडा गांव में मां रातुलि देवी के यहां हुआ. पिता क्षेत्रमोहन महतो किसान थे. धनंजय बाबू बचपन से ही शिक्षा में मेधावी रहे. प्राथमिक […]

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धनंजय महतो के निधन से स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम युग का एक अध्याय समाप्त हो गया, लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी

नीमडीह/चांडिल : धनंजय बाबू का जन्म आठ अगस्त 1919 में गुंडा गांव में मां रातुलि देवी के यहां हुआ. पिता क्षेत्रमोहन महतो किसान थे. धनंजय बाबू बचपन से ही शिक्षा में मेधावी रहे. प्राथमिक शिक्षा गांव के प्राथमिक विद्यालय पूरा किया.

इसके बाद उन्हें उच्च शिक्षा के लिए पिता ने पुरुलिया जिला के हुड़ा थाना अंर्तगत लखनपुर उच्च माध्यमिक विद्यालय में दाखिला कराया. मृदुभाषी धनंजय बाबू अपने सहपाठी एवं भारतवासियों के लिए सहृदय थे, परंतु फिरंगी शासन के काला कानून के खिलाफ दहाड़ने वाले शेर थे.

स्वतंत्रता आंदोलन में दिया था योगदान

स्कूली जीवन में प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी भीम चंद्र महतो ने उन्हें देश भक्ति की दीक्षा देकर स्वतंत्रता संग्राम का पाठ पढ़ाया. धनंजय बाबू 1935 से 16 वर्ष की उम्र में स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े. वे अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ तत्कालीन मानभूम जिला के हुड़ा,पोनचा,बांधवान,बराबाजार,पुरुलिया आदि विशाल क्षेत्र में देशवासियों के मन में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन छेड़ने के लिए जनजागरण अभियान चलाया.

1936 के अप्रैल महीने की तपती धूप में विदेशी सामानों के बहिष्कार हेतु पुरुलिया शहर में जुलूस निकालने के क्रम में ब्रिटिश पुलिस के शिकार हुए. हाथ और सिर में गहरी चोटें आयी थीं. लेकिन, वे दोगुने उत्साह से स्वंतत्रता संग्राम में भागीदारी निभाने लगे.

सितंबर 1942 में भीम चंद्र महतो व धनंजय महतो के नेतृत्व में 19 क्रांतिकारी के दल ने बराबाजार थाना को आग लगा दिया. इस आरोप में धनंजय बाबू तीन अक्तूबर 1942 से 17 अप्रैल 1943 तक पुरुलिया जेल में बंद रहे. महान स्वंतत्रता सेनानी स्वर्गीय बासंती राय के साथ भी वे आंदोलन में शामिल रहे.

1943 के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के रामगढ़ स्थित नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित महाधिवेशन में धनंजय महतो अपने दर्जनों साथियों के साथ पटमदा से रामगढ़ तक पैदल यात्रा करते हुए पहुंचे थे.

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