jharkhand@18: कौशल तो पूरे गांव में है, विकास नहीं
झारखंड स्थापना के 18 साल पूरे हो गये. हम युवा झारखंड की कुछ कहानियां लेकर आपके सामने आये हैं. इन कहानियों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि युवा झारखंड किस दिशा में आगे बढ़ रहा है. झारखंड स्थापना दिवस पर शुरू हुई सीरीज की यह 15वीं कड़ी है. इस कड़ी में पढ़ें पंकज कुमार […]
झारखंड स्थापना के 18 साल पूरे हो गये. हम युवा झारखंड की कुछ कहानियां लेकर आपके सामने आये हैं. इन कहानियों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि युवा झारखंड किस दिशा में आगे बढ़ रहा है. झारखंड स्थापना दिवस पर शुरू हुई सीरीज की यह 15वीं कड़ी है. इस कड़ी में पढ़ें पंकज कुमार पाठक के द्वारा लिखी झारखंड के एक ऐसे गांव की कहानी जो कौशल से भरपूर है लेकिन विकास से दूर….
मिट्टी से पीढ़ियां गढ़ने वाले किसान आज अपने ही रोजगार में संकट से घिरे हैं. हम झारखंड के उन गांवों तक इस कड़ी के माध्यम से आपको पहुंचाना चाहते हैं ताकि आप समझ सकें कि झारखंड का विकास सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहना चाहिए. इन गांवों तक भी योजनाएं, कौशल विकास के कार्यक्रम पहुंचेंगे तब बदलेगी हमारे झारखंड की तस्वीर …
शहर में कुम्हार नये प्रयोग कर रहे हैं. घड़ा व सुराही में अब प्लास्टिक के नल नजर आने लगे हैं. मिट्टी की नयी-नयी मूर्तियां बाजार में आने लगी हैं. घर सजाने वाले मिट्टी के सामान की मांग भी अच्छी खासी है. गांव के कुम्हार शहर की नब्ज अबतक नहीं पकड़ सके. अबतक मिट्टी के घर की छत के लिए खपरैल व मांदर (वादक) के लिए ढांचा बनाने तक ही सीमित हैं. गांव के कुम्हारों का हाल समझना हो, तो सिमडेगा जिले से लगभग 36 किमी दूर केरसई प्रखंड की किनकेल पंचायत में कुम्हारों के एक छोटे से गांव कुम्हार टोली में आइये. यहां की नयी पीढ़ी गांव की मिट्टी छोड़ शहरों में खाक छान रही है. इस गांव में युवा दिखेंगे ही नहीं. मुंबई, हरियाणा, अंडमान जैसी जगहों पर आपको इस गांव के लोग जरूर नजर आ जायेंगे. कुम्हारों का गांव आज इस हालत में पहुंचा कैसे.
कुम्हार टोली गांव ने कई पीढ़ियों को मिट्टी का काम करते देखा है, लेकिन अब गांव की तस्वीर बदलने लगी है. जिन घरों में दिन की शुरुआत मिट्टी के चाक के साथ होती थी, वहां से अब चाक गायब होने लगे हैं. बदलते बाजार के रंग ने चाक के घूमने की तेज गति कम कर दी है. चीनी मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ी, तो गांव सिर्फ नाम का कुम्हार टोली रह गया. लगभग 50 घरों के इस गांव में अब कुछ ही लोगों के हाथ-पांव मिट्टी में सने दिखते हैं.
मिट्टी के काम ने पीढ़ियां संवारी है
इस गांव में ज्यादातर घरों में मिट्टी का काम होता था. जयराम राणा, शालीग्राम राणा जैसे कई परिवार इसी से अपनी जीविका चलाते थे. जयराम के तीन बेटे हैं. जगेश्वर राणा, राजकुमार राणा, मनीष राणा और शालीग्राम. शालीग्राम कहते हैं कि हमने इसी काम से बच्चों को पढ़ाया. मेरे चार बेटे हैं रामविलास, देवकरण, शंकर और तेजू राणा. बड़े बेटे रामविलास प्राइवेट स्कूल में शिक्षक हैं और एलआइसी का काम करते हैं. ज्यादातर वक्त वह गांव से दूर रहते हैं. उनके बच्चे भी पढ़-लिख गये हैं. एक को नौकरी मिल गयी है, बाकी के तीनों बेटे गांव में रहते हैं, लेकिन मिट्टी का काम कोई नहीं करता. हमारे पास खेत हैं और एक छोटी सी दुकान है. उसी से गुजारा चलता है. मिट्टी के काम में मेहनत तो पहले से ज्यादा है, लेकिन पैसे नहीं हैं. दिनभर काम करने के बाद आपको सिर्फ 100 रुपये मिलेंगे. अब मिट्टी के लिए भी दूर जाना पड़ता है. साधारण मिट्टी से तो बर्तन बनेंगे नहीं. मेरा सबसे छोटा बेटा यहां काम न होने के कारण बड़े शहरों में गया था. वहां कई साल रहा, फिर वापस लौट आया. हमारे गांव में, घरों में काम होता, तो यहां के अधिकतर बच्चे दूसरे शहरों में नहीं होते.
अपनी ही मिट्टी से दूर जा रही नयी पीढ़ी
इसी गांव के रहने वाले जयराम राणा कहते हैं मेरे तीन बेटे हैं. दोनों बाहर काम करते हैं. साल में सिर्फ एक या दो बार घर आते हैं. पहले हम सभी मिल कर मिट्टी के सामान बनाते थे. सप्ताह में दो दिन यहां बाजार लगता है. मंगलवार और शुक्रवार को बाजार में बेच आते थे. धीरे-धीरे सामान बिकने कम होने लगे. स्टील और प्लास्टिक के बर्तन की मांग बढ़ गयी, तो हमारे मिट्टी के बर्तन की मांग कम हो गयी. घर चलाना मुश्किल हो गया. मेरे बेटे अंडमान चले गये. साल में एक बार घर लौटते हैं. कभी-कभी उन्हें वापस लौटने में एक साल से ज्यादा का वक्त लग जाता है. राजकुमार राणा इनके सबसे छोटे बेटे हैं. मिट्टी के सामान की मांग कम होने पर कहते हैं, किसे अपने गांव को छोड़कर बाहर रहना अच्छा लगेगा, लेकिन हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है. घर चलाने के लिए पैसे चाहिए और पैसे गांव में नहीं हैं, लिहाजा बाहर जाना मजबूरी है.
खेती-बारी छोड़ कर नहीं जा सकते बाहर : रामदेव राणा
रामदेव राणा भी सालों से यह काम कर रहे हैं. रामदेव कहते हैं कि पहले इस गांव के ज्यादातर घरों में यह काम होता था. अब दो या तीन घरों में ही होता है. अब कुम्हार टोली में सिर्फ दो या तीन घरों में मिट्टी का काम होता है. आज के बच्चे ये काम नहीं करना चाहते. उनके पास शहरों में अधिक पैसे में मजदूरी करने का रास्ता है. हमारे पास तो वह भी नहीं है. हम घर, खेत छोड़कर नहीं जा सकते.
जीतोड़ मेहनत, लेकिन मजदूरी मेहनत की आधी भी नहीं
मंगलु राणा के बेटे हरि राणा भी यही काम कर रहे हैं. करमा पर्व को लेकर उन्होंने मांदर का सांचा बनाया है. वह कहते हैं कि मिट्टी का काम सीजनल है. गरमी में कुछ घड़े बिकते हैं और दीपावली में दीये. इसके अलावा कोई काम नहीं है. मांदर का सांचा सिर्फ 250 रुपये में बिकता है. इसे बनाने में तीन से चार घंटे का वक्त लगता है. इसे दो हिस्सों में बनाना होता है. मिट्टी लाने और उसे तैयार करने में अलग वक्त लगता है. यह काम अकेले नहीं हो सकता. दो-तीन लोगों का साथ चाहिए. मिट्टी लाओ, मिट्टी तैयार करो, बर्तन बनाओ, धूप में सुखाओ. इसके बाद उसे पकाओ. इतनी मेहनत के बाद निराशा होती है, जब बाजार से सामान वापस लाना पड़ता है.
कौशल तो पूरे गांव में है विकास नहीं है
गांव की कई महिलाएं भी इस पेशे से जुड़ी थीं. अब महिला समूह बनाकर कई तरह का काम कर रही हैं. प्रिया देवी राजकुमार राणा की पत्नी हैं. इसी गांव की बसंती देवी सहिया से जुड़ी हैं. प्रिया कहती हैं गांव में महिलाएं तो किसी तरह काम कर रही हैं, लेकिन पुरुषों के लिए काम नहीं है. मेरे पति बाहर काम करते हैं. गांव में रोजगार मिलता, तो उन्हें बाहर कमाने नहीं जाना पड़ता. बसंती कहती हैं कि सरकार कौशल विकास पर जोर दे रही है. हमारे गांव में मिट्टी का सामान बनाने का कौशल पीढ़ियों से है. अगर हमें सही बाजार और सामान की उचित कीमत मिले, तो हम आगे बढ़ सकते हैं. राज्य सरकार अगर इस तरफ ध्यान देगी, तो कुम्हारों की टोली सिर्फ नाम की टोली नहीं रहेगी. यहां के कई बेहतरीन सामान दूसरी जगहों पर अच्छी कीमत में बेचे जा सकते हैं. धीरे-धीरे पीढ़ियों का कौशल खत्म हो रहा है.