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भाषा के बारे आदिवासी नजरिया

प्रकृति भेदभाव से रहित है. शब्द और गीत आदिवासी समूह ने चिड़ियों से सीखा है. प्रकृति के लय में आदिवासी समूह ने अपने गीत बांधे हैं. ये समूह अपनी भाषा के प्रति बेहद सजग प्रतीत होता है. यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि आदिवासी परंपरा में गीतों का अभ्यास उनकी भाषा को मर्यादित करता है.

डॉ पार्वती तिर्की

भाषा का निर्माण मनुष्य की सबसे रचनात्मक निर्मिति है. भाषा व्यक्ति के व्यवहार तथा व्यक्तित्व को निर्धारित करती है और भाषा ही कई बार मनुष्य के व्यवहारों को नियमित भी करती है. भाषा के व्यवहार में गड़बड़ी व्यक्ति-समाज के मानसिक तथा सामाजिक बुनावट के गुण-दोषों को अभिव्यक्त करता है. भारत के कई आदिवासी समूह ‘गीत’ को भाषा मानते हैं. गीतों के संदर्भ में आदिवासी पुरखों ने कहा है कि गीत मनुष्य के जीवन को अनुशासित करता है. गीत वह भाषा है जो मनुष्य को सहजता का पाठ सिखलाती है. आदिवासी समाज में नृत्य और गीत एक साथ चलते हैं. जहां गीत, वहां नृत्य. यहांं नृत्य और गीत भिन्न अर्थ में प्रयुक्त है.

कुड़ुख (उरांव) आदिवासियों की भाषा में एक कहावत है – “एकना दिम तोकना, कत्था दिम डण्डी” अर्थात् चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है. बाल्यावस्था में हर व्यक्ति बोलना और चलना सीखता है. एक बालक जब बोलना सीखता है, तब उसके साथ ही वह गीत की कला सीखता है. ठीक वैसे ही कोई बालक चलना सीखते हुए ही नृत्य की कला भी सीखता है. आदिवासी अर्थकोश अनुसार नृत्य करना चलने जितना सहज होता है, गीत गाना बोलने जितना सहज होता है.

अतः गीत और नृत्य मनुष्य को सहजता सिखलाती है. आदिवासियों का जीवन सहज है, क्योंकि वे गीत गाते हैं. आदिवासियों की भाषा में गाली-गलौज, नस्लभेद, रंगभेद जैसी चीज़ें नहीं दिखलाई पड़ती. इसे अधिक स्पष्ट तरह से समझने के लिए अखड़ा की ओर रुख़ किया जा सकता है. गीत – नृत्य का स्रोत ‘अखड़ा’ है. आदिवासियों की सामाजिक व्यवस्था में ‘अखड़ा’ विशिष्ट इकाई है. यह सामुदायिकता द्वारा निर्मित व्यवस्था है. सामुदायिकता अर्थात् व्यक्तियों के साझा सहयोग से निर्मित है. अखड़ा में समूह के हर व्यक्ति की सहभागिता होती है. हर व्यक्ति अखड़ा में नृत्य करता है.

अखड़ा ज़मीन से सटी वह समतल भूमि होती, जहाँ पर खड़ा होते हुए हर व्यक्ति समान होता. यह अखड़ा पूरे गांव का केंद्र है और आदिवासी समाज का भी केंद्र है. यह अखड़ा खुले आसमान के नीचे होता है, जिसका विस्तार अनंत तक होता है. हर गांव के केंद्र में एक अखड़ा होता है, जहां हर व्यक्ति एक-दूसरे का हाथ थाम सकता है और समान होने का विश्वास दिला सकता है. यहां व्यक्तिसमूह सहज भाव में अपने कदमों को खेलाते हुए नृत्य करते हैं.

यह प्रकृति का नियम है कि जन्म और मृत्यु हर जीव से होकर गुजरती है. अतः सभी जीव समान हैं. समूह का हर व्यक्ति समान है. अखड़ा प्रकृति से प्रेरित है. अखड़ा समता का मूल्य सिखाती है. आदिवासी समूह ने ये मूल्य अखड़ा में निरंतर गीत और नृत्य के अभ्यास से पाया है.

आदिवासी समूह का हर व्यक्ति गीतकार है, रचनाकार है. आदिवासी समूह में कोई भी व्यक्ति खराब या अच्छा गीतकार नहीं हो सकता. यदि वह कुछ हो सकता है तो वह गीतकार हो सकता है. यहां से आदिवासी समूह ने सामूहिकता सीखा. भाषा में मर्यादा भी उन्होंने गीतों से ही पाया है. गीत गाना संवाद स्थापित करने जैसी सहज प्रक्रिया है. जैसे चिड़िया अपनी भाषा में चूं-चूं ढेंचू-ढेंचू… के माध्यम बातचीत करते हैं. मनुष्य का बोलना या गाना बिल्कुल ऐसा ही है.

बोलना अथवा गीत गाना सहज – स्वाभाविक प्रक्रिया है. इसी सहजता द्वारा मानव समूह मनुष्यता के मूल्यों तक पहुंच पाता है. इस प्रकार सहजता, समता, सहभागिता का उत्स अखड़ा है. पुरखा आदिवासी भाषाओं में भाषाई भेदभाव, ऊंच-नीच जैसी चीज़ें भी दिखाई नहीं पड़ती है. अन्य भाषाओं में गोरा-काला, वाइट-ब्लैक जिन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, कई बार ये शब्द एक नस्लीय भाव का अर्थ लिए प्रतीत होते हैं.

जो उस भाषा-समाज को ही प्रतिरूपत करता है. पूर्व के समय में ‘गोरा’ रंग कई समाज में श्रेष्ठ माना गया है और काला रंग भेदभाव का शिकार रहा है. इन चीजों से कई चीजें निर्धारित होती हैं. ये विभिन्न भाषाओं में मुहावरों/वाक्यों/अर्थों का निर्धारण करते हैं. इसे सामान्य जीवन के उदाहरणों से समझा जा सकता है.

जैसे काला रंग अपने आप में बुरा नहीं होता है. लेकिन सामान्य अर्थों में वाक्य प्रयोग करते समय व्यक्ति कह देता है कि मन साफ रखो, मन काला नहीं होना चाहिए. यहां काला का अर्थ ‘बुरा’ ध्वनित होता है. जैसे एक वाक्य है – ‘दिस इज नोट फेयर’, जिसका सामान्य अर्थ ‘यह उचित नहीं’ है. क्या ठीक न होना ‘इज नोट फेयर’ ही हो सकता है? फेयर ही क्यों? ‘दिस इज नोट ब्लैक’ के मुहावरे/वाक्य ‘ठीक ना होने’ के लिए क्यों नहीं बने? यह ‘कुछ ठीक नहीं’, ‘कुछ बुरा है’, ‘कुछ सही नहीं है’ जैसी बातों के लिए काला – ब्लैक जैसे शब्दों का प्रयोग मनुष्य की मानसिकता को ही इंगित करता है. इन मुहावरों/वाक्यों/अर्थों का प्रचलन आज भी दिखाई पड़ता है. कई बार हमारी समझ वहां तक नहीं पहुंच पाती और हम गलती से भाषा में ऐसा प्रयोग कर डालते हैं. इससे बचा जाना चाहिए, इसपर सोचा जाना चाहिए.

आदिवासी सबके प्रति समभाव रखते हैं. आदिवासी जीवन की भाषाओं से यह सीखा जा सकता है. शब्दों का निरपेक्ष और सहज प्रयोग आदिम भाषाओं में मिलता है. पुरखा आदिवासी भाषाओं, कहन, मुहावरों, वाक्यों में ऐसा प्रयोग नहीं मिलता है. रंगों के साथ ऐसा कोई भेद नहीं है, यहाँ शब्दों के अर्थ अलग तरह से निर्मित किए गए हैं. जैसे गीत गाना बोलना है. बोलना गीत गाने जैसा है. सबकुछ एक सहज प्रक्रिया है. एक सहज प्रक्रिया द्वारा शब्द निर्मित हुए. जिस प्रकार यहां कोई भी अच्छा या बुरा गीतकार नहीं हो सकता, मात्र गीतकार हो सकता.

ठीक ऐसे ही आदिवासी समूह के शब्दों का अर्थ मनुष्य की विकृत मानसिकता से ग्रसित नहीं है. चूंकि उनके भाषा की प्रथम नियामक प्रकृति है. प्रकृति भेदभाव से रहित है. शब्द और गीत आदिवासी समूह ने चिड़ियों से सीखा है. प्रकृति के लय में आदिवासी समूह ने अपने गीत बांधे हैं. ये समूह अपनी भाषा के प्रति बेहद सजग प्रतीत होता है. यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि आदिवासी परंपरा में गीतों का अभ्यास उनकी भाषा को मर्यादित करता है और नृत्य का अभ्यास उनकी क्रियाओं की मर्यादा है. यह यकीनन अनुकरणीय है. आदिवासी समूह की जीवन पद्धति से यह सीखा जा सकता है.

(सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, राम लखन सिंह यादव कॉलेज, रांची )

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