रेलवे ठेकेदारी में दबंगों का रहा है वर्चस्व

चक्रधरपुर : चक्रधरपुर रेलवे में खरबों रुपये की ठेकेदारी होती है. हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर झारसुगुड़ा से सालगाजुड़ी तक चक्रधरपुर रेलमंडल फैला हुआ है. इस पूरे रेल मंडल में कोई भी काम होता है तो उसका टेंडर चक्रधरपुर से ही होता है. इस ठेकेदारी में बड़े-बड़े रंगबाजों की ’डफली’ प्रारंभ से ही बजती रही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 10, 2016 7:00 AM

चक्रधरपुर : चक्रधरपुर रेलवे में खरबों रुपये की ठेकेदारी होती है. हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर झारसुगुड़ा से सालगाजुड़ी तक चक्रधरपुर रेलमंडल फैला हुआ है. इस पूरे रेल मंडल में कोई भी काम होता है तो उसका टेंडर चक्रधरपुर से ही होता है. इस ठेकेदारी में बड़े-बड़े रंगबाजों की ’डफली’ प्रारंभ से ही बजती रही है. लेकिन कभी भी खून-खराबे का मामला सामने नहीं आया था. हर बार ’सेटिंग’ का फॉर्मूला अपना कर ही टेंडर को बांटा जाता था.

यह पहला मौका है जब बलराम सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी गयी है. हालांकि बम फेंकने, डराने धमकाने के कई मामले पहले भी सामने आये हैं. लेकिन चक्रधरपुर में हत्या का यह मामला पहला है. समझा जाता है कि बलराम सिंह ’सेटिंग’ सिस्टम के खिलाफ जा कर टेंडर हासिल की होगी या फिर कोशिश की होगी, जिस कारण उसकी हत्या कर दी गयी है. देखा जाता है कि चक्रधरपुर रेलवे में ठेकेदार इस कदर हावी हैं कि उनकी ही

तूती ऑफिस में बोली जाती है. रेलवे के किसी अफसर से काम निकलवाना हो तो सबसे मजबूत पैरवी ठेकेदारों की ही होती है. पेटी कांट्रेक्ट भी ठेकेदारों की कमाई का एक अहम जरिया है. रेलवे में पंजीकृत बड़े ठेकेदार काम अपने नाम से ले लेते हैं और छोटे व मंझौले ठेकेदारों को पेटी में अर्थात एक तयशुदा कमीशन राशि लेकर काम सौंप दिया जाता है. इससे बैठे बिठाये तिजोरी में पैसे आते रहते हैं. बलराम भी बेगूसराय से आकर इस तरह के काम कर रहे थे. उसका बाहरी होना भी हत्या का एक अहम कारण माना जा रहा है. क्योंकि कुछ लोगों ने हत्यारों को भागते हुए यह कहते भी सुना कि रेलवे की ठेकेदारी स्थानीय लोग ही करेंगे, कोई बाहरी नहीं.

रेलवे में ठेकेदारी प्रथा प्रारंभ होने के बाद दिवंगत सांसद विजय सिंह सोय का वर्चस्व रहा करता था. उनके कार्यकाल में रेलवे के ठेकेदार उनके घर में हाजिरी बजाया करते थे. किसे कौन सा टेंडर डालना है और किसे नहीं, यह विजय सिंह सोय ही तय करते थे. कौन काम कब और कैसे करेगा, किसे काम देना है और किसे नहीं यह सब विजय सिंह सोय ही तय किया करते थे.
यह सिलसिला काफी जमाने तक चलता रहा. स्थिति यह थी कि ठेकेदार को टेंडर के पेपर खरीदने से पहले विजय सिंह सोय से इजाजत लेनी पड़ती थी. यदि कोई उसके आदेश के खिलाफ जाता तो उसकी हाजिरी सोय के दरबार में लगती थी. उनके जमाने से ही ’सेटिंग’ का सिस्टम शुरू हुआ और अब तक चलता आ रहा था. टेंडर डालने से पहले ही सब सेटिंग हो जाती थी. इसलिए सोय जिसे जो काम आवंटित करते थे, वही उसमें टेंडर डालता था,
किसी दूसरे की मजाल नहीं कि टेंडर पेपर डाल दे. 10 अप्रैल 2000 को विजय सिंह सोय की हत्या होने के बाद सियासत के मैदान में या फिर दबंगता के क्षेत्र में जिस किसी ने भी नाम कमाया या कदम रखा, उनका रूख रेलवे की ठेकेदारी की तरफ जरूर गया. सबों ने केवल सेटिंग सिस्टम से ही काम निकाला. यदि कभी किसी टेंडर पर विवाद होता तो उस वक्त के जो ’आका’ होते थे, वह समाधान निकालते थे. केवल ’सेटिंग’ के नाम पर ही लाखों करोड़ों रुपये की कमाई होती थी.

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