रांची, मनोज सिंह: झारखंड में मजदूर नेताओं का राजनीतिक इतिहास भी पुराना रहा है. मजदूर संघर्ष का गढ़ रहने के कारण यहां के मजदूर नेता भी राजनेता बने हैं. मजदूरों की आवाज सदन तक पहुंचायी है. राज्य में मुख्यमंत्री तो केंद्र में मंत्री भी बने हैं. उद्योग और खान-खदान का गढ़ होने के कारण झारखंड में कई मजदूरों को सदन तक भेजा है. आजादी के पहले से यहां के मजदूर हक की लड़ाई लड़ते रहे हैं. खनन और उद्योग बहुल राज्य होने के कारण मजदूर यूनियन भी काफी मजबूत हैं. यहां करीब-करीब सभी दलों की ट्रेड यूनियनें हैं. राष्ट्रीय के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टियों की भी ट्रेड यूनियन है. यूनियन से संबद्ध रहने वाले कई मजदूर नेता संसद में भी मजदूरों की आवाज बने हैं.
मजदूर नेता गोपेश्वर 1984 में जमशेदपुर से जीते चुनाव
जमशेदपुर संसदीय क्षेत्र से मजदूर नेता गोपेश्वर 1984 में चुनाव जीते थे. मूल रूप से सहरसा (बिहार) के रहनेवाले गोपेश्वर 1969 में टेल्को वर्कर्स यूनियन के महासचिव थे. 2008 तक वह टेल्को वर्कर्स यूनियन के महासचिव रहे. वह चार बार इंटरनेशनल लेबर यूनियन के उप नेता थे. धनबाद क्षेत्र में मजदूर नेताओं का प्रभाव रहा धनबाद संसदीय क्षेत्र में कोयला का गढ़ होने के कारण मजदूर नेताओं का प्रभाव ज्यादा रहा है. यहां से पहली बार सासंद बननेवाले प्रकाश चंद्र बोस भी मजदूर यूनियन से जुड़े थे. वह इंडियन माइंस वर्कर्स यूनियन से भी जुड़े थे. उन्होंने दो-दो बार धनबाद का नेतृत्व किया है.
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मजदूर नेता एके राय ने तीन बार जीता चुनाव
यहां से दिग्गज मजदूर नेता एके राय भी तीन बार जीते हैं. श्री राय दो बार मासस और एक बार सीपीआइ की टिकट से जीते थे. श्री राय पहली बार 1977 में जीते थे. इसके बाद 1980 और 1989 में भी धनबाद का नेतृत्व संसद में किया. इसी सीट से इंटक के अध्यक्ष ददई दुबे भी दो बार जीत चुके हैं. ददई दुबे ने इस क्षेत्र का नेतृत्व 2004 में किया था. झामुमो के सुप्रीमो शिबू सोरेन भी मजदूर यूनियन से जुड़े हुए हैं. वह दुमका सीट से आठ बार चुनाव जीते चुके हैं. झारखंड में मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में कोयला मंत्री भी रहे हैं. श्री सोरेन की कोयला क्षेत्र में संघर्ष करनेवाली अपनी यूनियन है. इससे लाखों सदस्य जुड़े हुए हैं. आजसू की टिकट से पहली बार गिरिडीह से जीतनेवाले चंद्र प्रकाश चौधरी भी मजदूर यूनियन से जुड़े हैं. आजसू का भी एक मजदूर संगठन चलता है. कई इलाकों में श्री चौधरी की यूनियन काफी प्रभावी है.
सरकार में श्रम मंत्री बने थे बिंदेश्वरी दुबे
इंटक नेता बिंदेश्वरी दुबे गिरिडीह से 1980 में चुनाव जीते थे. वह केंद्र सरकार में श्रम मंत्री भी थे. श्री दुबे बिहार में मुख्यमंत्री थे. इसी सीट से 1971 में चपलेंदू भट्टाचार्या भी चुनाव जीते थे. श्री भट्टाचार्य एटक से संबद्ध थे. यहीं से दो बार रामदास सिंह भी सांसद रहे. श्री सिंह भी मजदूर नेता थे. हजारीबाग सीट से 1971 और 1984 में चुनाव जीतने वाले दामोदर पांडेय बड़े मजदूर नेता थे. वह इंटक से संबद्ध थे. एक समय बाबू लाल मरांडी की भी एक मजदूर यूनियन थी. इससे संबंद्ध यूनियन सीसीएल और बीसीसीएल में सक्रिय थी.
झारखंड में संघर्ष किया बिहार में जीते
झारखंड वाले इलाके में संघर्ष करनेवाले दो मजदूर नेता बिहार में जाकर चुनाव जीते थे. बड़कागांव से तीन बार विधायक रहे रमेंद्र कुमार बिहार की बेगुसराय सीट से संसद गये थे. श्री कुमार बड़े मजदूर नेता हैं. वह वर्तमान में एटक के अध्यक्ष हैं. एटक के चतुरानन मिश्र भी गिरिडीह से विधायक रहे. बाद में मधुबनी संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व किया था.
ट्रेड यूनियनों के घटते प्रभाव का असर भी राजनीति पर
झारखंड में भी ट्रेड यूनियनों के घटते प्रभाव का असर राजनीति पर दिख रहा है. यूनियनों के लिए सक्रिय रूप से काम करने वाले नेताओं पर दलों का भी भरोसा भी नहीं रहा है. जमशेदपुर सीट से अब मजदूर यूनियन के नेता चुनाव दावेदारी नहीं पेश कर पा रहे हैं. सिंहभूम में भी कई खदान हैं. मजदूरों का संगठन भी है. लेकिन, वहां मजदूर नेताओं को सदन की आवाज बनने का मौका नहीं लगा है. धनबाद और गिरीडीह सीट इस दृष्टिकोण से अभी अलग है. यहां अभी मजदूर नेताओं का दबदबा है. धनबाद सीट पर बड़ी संख्या में कोयलाकर्मी हैं. इस कारण यहां आज भी एटक से संबद्ध ढुल्लू महतो को भाजपा ने टिकट दिया है. वहीं कांग्रेस ने भी दिग्गज मजदूर नेता रहे स्व राजेंद्र सिंह की बहु तथा वर्तमान में इंटक के शीर्ष नेता विधायक अनुप सिंह की पत्नी को मैदान में उतारा है. यही स्थिति गिरिडीह लोकसभा सीट कभी है. यहां से आजसू ने दूसरी बार चंद्र प्रकाश चौधरी को मौका दिया है. झामुमो ने मथुरा महतो पर भरोसा जताया है. दोनों दलों का अपना-अपना श्रमिक संगठन है. जो प्रत्याशियों को जिताने में लगे हैं. इन दो सीटों के अतिरिक्त झारखंड में कोई भी ऐसा सीट नहीं है, जहां मजदूर नेताओं का अब असर रहता है.