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पश्चिम बंगाल से क्यों गुम हो रही ग्रेटर झारखंड की आवाज? लोकसभा चुनाव में भी नहीं बन पा रहा मुद्दा

पश्चिम बंगाल से ग्रेटर झारखंड की आवाज गुम हो रही है. लोकसभा चुनाव 2024 में भी ये मुद्दा नहीं बन पा रहा है. पहले ये मांग काफी जोर पकड़ती थी. ये पुरानी मांग अब गायब हो गयी है.

खड़गपुर, जितेश बोरकर: पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर, झाड़ग्राम, बांकुड़ा और पुरुलिया जिलों को मिलाकर ग्रेटर झारखंड की पुरानी मांग लोकसभा चुनाव 2024 में सिरे से गायब है. साल 2000 में अलग झारखंड राज्य के गठन के सालों बाद तक यह मांग राजनीतिक तापमान बढ़ाती रही, परंतु सियासत में अब यह आवाज गुम होती जा रही है. आइए जानते हैं क्या हैं इसके कारण…

इस लोकसभा चुनाव में गुम है ग्रेटर झारखंड की आवाज
लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल के भीतर इस बार ग्रेटर झारखंड की आवाज गुम है. पश्चिम मेदिनीपुर, झाड़ग्राम, बांकुड़ा और पुरुलिया जिलों को मिलाकर ग्रेटर झारखंड बनाने के बड़े पैरोकार रहे झारखंड में घाटशिला के विधायक रहे सूर्य़ सिंह झारग्राम से लोकसभा चुनाव लड़ रहैं पर ग्रेटर झारखंड का मुद्दा उठाने से परहेज कर रहे हैं. इससे इतर वे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनाने की योजना को ही हवा दे रहे हैं. ग्रेटर झारखंड के लिए कभी संताल नेता नरेन हांसदा की संस्था झारखंड पार्टी भी बहुत मुखर हुआ करती थी. लेकिन, अब वह खुद ही यहां अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है.

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चुन्नी बाला हांसदा राजनीति से कोसों दूर
पूर्व विधायक व झारखंड पार्टी की नेता रहीं चुन्नी बाला हांसदा और उनके पति तथा पार्टी के फाउंडर स्वर्गीय नरेन हांसदा की बेटी बीरबाहा हांसदा अब खुद ही तृणमूल की नेता हैं. वह राज्य की मंत्री भी हैं. चुन्नी बाला हांसदा खुद राजनीति के मैदान से अब कोसों दूर हैं. अब राजनीतिक नुकसान के डर से ये नेता ग्रेटर झारखंड की बात करने की भी जरूरत नहीं समझते. लोकसभा चुनाव के दौरान भी ऐसे नेतागण ग्रेटर झारखंड का मुद्दा उछालने का साहस नहीं दिखा पा रहे. उल्लेखनीय है कि झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाके को ग्रेटर झारखंड का हिस्सा बताया जाता था.

ग्रेटर झारखंड की परिकल्पना में ये थे शामिल
ग्रेटर झारखंड की परिकल्पना में छोटानागपुर और संतालपरगना के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों की सीमा से सटे आदिवासी बहुल इलाके शुमार थे. जिन इलाकों को जोड़ कर ग्रेटर झारखंड का ताना-बाना बुना जाता था, उसमें बंगाल के मिदनापुर (अब उत्तर व दक्षिण में विभक्त), पुरुलिया और बांकुड़ा, ओडिशा के मयूरभंज, क्योंझर, संबलपुर और सुंदरगढ़ तथा छत्तीसगढ़ के सरगुजा और रायगढ़ जिले भी शामिल थे. पर, जैसा कि ऊपर कहा गया है, मुख्य रूप से बदलते हालात और राजनीति के साथ धीरे-धीरे यह मांग मंद पड़ गयी. आज बिहार से पृथक हुए झारखंड को 24 वर्ष पूरे होने को हैं. पर, अब शायद ही कोई इसकी चर्चा करता है. स्मरणीय है कि अलग राज्य (झारखंड) के आंदोलन के आरंभ में आंदोलनकारी नेता और संगठनों द्वारा ग्रेटर झारखंड पर ही ज्यादा बल दिया जा रहा था. 1989 में आंदोलन के उग्र होने पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने एक समिति गठित की थी. समिति ने ग्रेटर झारखंड की परिकल्पना को मानते हुए अपनी एक रिपोर्ट भी दी थी, पर उसका कोई ठोस सुफल सामने नहीं आ सका. व्यवहार के स्तर पर ग्रेटर झारखंड की अवधारणा स्वीकार्य नहीं हो पायी. तब तर्क दिया गया कि एक राज्य का विभाजन तकनीकी दृष्टिकोण से संभव है, लेकिन कई राज्यों को मिला कर एक वृहत्तर झारखंड के निर्माण में तरह-तरह की दिक्कतें आयेंगी. बाद में संभवत: इस तर्क और इसके प्रभाव को समझते हुए ग्रेटर झारखंड के आंदोलनकारियों ने अपने स्वर में थोड़ा बदलाव कर लिया. वे कई राज्यों के आदिवासी बहुल इलाकों को मिलाने की जगह छोटानागपुर और संताल परगना के क्षेत्रों को मिला कर एक अलग झारखंड की मांग पर अपना ध्यान केंद्रित करने लगे.

ग्रेटर झारखंड पर ज्यादा बल
अलग राज्य (झारखंड) के आंदोलन के आरंभ में ग्रेटर झारखंड पर ज्यादा बल दिया जा रहा था, यह सर्वविदित है. इस मामले में पहली सफलता झारखंड स्वायत्तशासी परिषद के तौर पर मिली. पर, आगे चल कर 15 नवंबर 2000 को तत्कालीन केंद्रीय सरकार ने बिहार से अलग झारखंड राज्य के गठन को मान्यता दे दी. झारखंड आंदोलन के दौरान सक्रिय रहे पूर्व विधायक और झारखंड पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष सूर्य सिंह बेसरा कहते हैं कि वृहत्तर झारखंड की परिकल्पना आंदोलन के क्रम में हुई थी. झारखंड आंदोलन से जुड़े दुलु किस्कू, जगन बेसरा, सपन हांसदा और मांगरु मांडी आदि कहना है कि झारखंड को एक क्षेत्र की बजाय सांस्कृतिक इकाई के तौर पर देखा जाना चाहिए. इनकी समझ में इस मकसद को प्राप्त करने के लिए नये सिरे से आंदोलन की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए. ये कहते हैं कि नये आंदोलन के क्रम में आर्थिक नाकेबंदी, रेल और रास्ता रोको जैसे कार्यक्रम चलाये जाने होंगे. इससे आंदोलन से जुड़े लोग फिर से सक्रिय और एकत्रित होकर ग्रेटर झारखंड की मांग को नयी आवाज दे सकेंगे. ऐसा होने पर ही संभव है कि ग्रेटर झारखंड की मांग कभी पूरी हो जाये.

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