Election Special Report : पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है मिर्जापुर

उत्तर प्रदेश से पंकज कुमार पाठक की रिपोर्ट सिर्फ राजनीतिक या व्यापारिक दृष्टि से ही मिर्जापुर की पहचान नहीं है. मिर्जापुर की पहचान पर्यटन स्थल के रूप में भी है. मिर्जापुर में विंध्याचल धाम प्रमुख धर्मस्थलों में एक है. इसके साथ ही सीता कुंड, भैरव मंदिर, मोती तालाब, टंडा जलप्रपात, तारकेश्वर महादेव, चुनार किला, महात्रिकोण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 30, 2019 8:44 PM

उत्तर प्रदेश से पंकज कुमार पाठक की रिपोर्ट

सिर्फ राजनीतिक या व्यापारिक दृष्टि से ही मिर्जापुर की पहचान नहीं है. मिर्जापुर की पहचान पर्यटन स्थल के रूप में भी है. मिर्जापुर में विंध्याचल धाम प्रमुख धर्मस्थलों में एक है. इसके साथ ही सीता कुंड, भैरव मंदिर, मोती तालाब, टंडा जलप्रपात, तारकेश्वर महादेव, चुनार किला, महात्रिकोण महादेव समेत कई धार्मिक और पर्यटकों के लिए प्राकृतिक स्थल हैं, जो मिर्जापुर को दूसरे जिलों से अलग करते हैं.

मां विंध्यवासिनी
मां विंध्यवासिनी जागृत शक्तिपीठ है. मान्यता है कि इसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा. देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है यह. विंध्याचल में मां विंध्यवासिनी ही पूर्णपीठ है.

त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं. विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं. कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है. चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यहां पूरी दुनिया से श्रद्धालु जुटते हैं.

नवरात्र में महानिशा पूजन का भी अपना महत्व है. यहां अष्टमी तिथि पर वाममार्गी तथा दक्षिण मार्गी तांत्रिकों का जमावड़ा रहता है. आधी रात के बाद रोंगटे खड़े कर देने वाली पूजा शुरू होती है. ऐसा माना जाता है कि तांत्रिक यहां अपनी तंत्र विद्या सिद्ध करते हैं. कहा जाता है कि नवरात्र के दिनों में मां मन्दिर की पताका पर वास करती हैं ताकि किसी वजह से मंदिर में न पहुंच पाने वालों को भी मां के सूक्ष्म रूप के दर्शन हो जाएं. नवरात्र के दिनों में इतनी भीड़ होती है कि अधिसंख्य लोग मां की पताका के दर्शन करके ही खुद को धन्य मानते हैं. कहते हैं कि सच्चे दिल से यहां की गई मां की पूजा कभी बेकार नहीं जाती. हर रोज यहां हजारों लोग मत्था टेकते हैं और देवी मां का पूजन जय मां विंध्यवासिनी के उद्घोष के साथ करते हैं.

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मां के इस धाम में त्रिकोण यात्रा का विशेष महत्व होता है जिसमें लघु और वृहद त्रिकोण यात्रा की जाती है. लघु त्रिकोण यात्रा में एक मंदिर परिसर में मां के 3 रूपों के दर्शन होते हैं, वहीं दूसरी ओर वृहद त्रिकोण यात्रा में तीन अलग-अलग रूपों में मां विंध्यवासिनी, मां महाकाली व मां अष्टभुजी के दर्शनों का सौभाग्य भक्तों को मिलता है.

वृहद त्रिकोण यात्रा में मां महाकाली के दर्शनों के बाद अगला पड़ाव आता मां अष्टभुजी का, जहां आठ भुजाओं वाले रूपों में करती हैं अपने भक्तों का कल्याण. कहते हैं इस मंदिर में दर्शन करने के बाद ही भक्तों की बृहद त्रिकोण यात्रा पूर्ण होती है.

तारकेश्वर महादेव मंदिर
विन्ध्याचल के पूर्व में तारकेश्‍वर महादेव का वर्णन पुराण में मिलता है. मान्यता है कि तराक नामक असुर ने मंदिर के समीप एक कुण्ड खोदा था. भगवान शिव ने तराक का वध इसलिए इस स्थान को तारकेश्‍वर महादेव भी कहा जाता है. कुण्ड के समीप काफी सारे शिवलिंग स्थित है. पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तारकेश्‍वर के पश्चिम दिशा की ओर एक कुण्ड का खोदा था और भगवान शिव के मंदिर का निर्माण किया था. तारकेश्‍वर को देवी लक्ष्मी का निवास स्थल भी माना जाता है. देवी लक्ष्मी यहां अन्य रूप में देवी सरस्वती के साथ वैष्णवी रूप में निवास करती हैं.

सबसे पुरानी जामा मस्जिद
वासलीगंज स्थित शहर की सबसे पुरानी जामा मस्जिद का निर्माण गंगाबाई ने 1810 में कराया था. वर्ष 1910 में वक्फ बोर्ड में मस्जिद का पंजीकरण कराया गया था. मुगल वास्तु शिल्प में बनी इस मस्जिद में तीन गुंबद, दो मीनार और बुर्जियों के अलावा रौशन बुर्जियां भी हैं. सौ साल पहले की मस्जिदों में प्रवेश द्वार और अंदर के द्वार पर दरवाजे नहीं लगाये जाते थे. मस्जिद की सारी चीजें अंदर रखी रहती थीं. जो भी अंदर जाता था, उनका इस्तेमाल कर सकता था.

जामा मस्जिद का भी यही हाल था, इनमें दरवाजे नहीं लगे थे. लेकिन तकरीबन चालीस साल पहले इनमें दरवाजे लगा दिये गए, ताकि अंदर रखी चीजों की हिफाजत हो सके.

चुनार का किला
मिर्जापुर के चुनार में यह किला स्थित है. कैमूर पर्वत की उत्तरी दिशा में स्थित यह किला गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर बसा है. एक समय इस किले को हिंदू शक्ति का केंद्र माना जाता था. आज भी इस किले में हिंदू काल के भवनों के अवशेष मौजूद हैं. इस किलेको आदि-विक्रमादित्य का बनवाया था. इस किले में भर्तृहरि मंदिर है, जिसमें उनकी समाधि है. सम्राट विक्रमादित्य के बाद इस किले पर 1141 से 1191 ई. तक पृथ्वीराज चौहान, 1198 में शहाबुद्दीन गौरी, 1333 से स्वामीराज, 1445 से जौनपुर के मुहम्मदशाह शर्की, 1512 से सिकन्दर शाह लोदी, 1529 से बाबर, 1530 से शेरशाहसूरी और 1536 से हुमायूं आदि शासकों का अाधिपत्य रहा है. शेरशाह सूरी से हुए युद्ध में हुमायूं ने इसी किले में शरण ली थी.

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