Ayodhya पर ऐतिहासिक फैसले के 2 साल : यहां पढ़ें मामले से जुड़ा हुआ 491 साल का पूरा इतिहास
यूसी पांडे की याचिका पर फैजाबाद के जिला जज केएम पांडेय ने 1 फरवरी 1986 को हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत देते हुए ढांचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया.
नई दिल्ली : अयोध्या की रामजन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को दो साल पूरे हो गए हैं. आज 9 नवंबर के दिन ही सर्वोच्च अदालत का ऐतिहासिक फैसला इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया. अपने ऐतिहासिक फैसले में इस बात का जिक्र किया था कि ‘मंदिर गिराकर मस्जिद बनाने का पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट में कोई जिक्र नहीं है, लेकिन अंग्रेजों के समय 18वीं सदी तक यहां नमाज होने का कोई सबूत नहीं मिलता है.’ इसके साथ ही, आपको बता दें कि दो साल पहले के ऐतिहासिक फैसले से 491 साल पुराने विवाद का पटाक्षेप हो गया. आइए जानते हैं कि रामजन्मभूमि से जुड़े 491 साल के इतिहास को…
1520 में मीर बाकी ने बनवाई थी मस्जिद
मीडिया की रिपोर्ट्स के अनुसार, वर्ष 1528 में मुगल बादशाह बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने अयोध्या में विवादित स्थल पर एक मस्जिद का निर्माण कराया था. इसे लेकर हिंदू समुदाय के लोगों ने दावा किया कि वह जगह भगवान राम की जन्मभूमि है और यहां एक प्राचीन मंदिर हुआ करता था. हिंदू पक्षकारों के अनुसार, मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे ही भगवान राम का जन्मस्थली थी. मीर बाकी के बनाए हुए इस मस्जिद में तीन गुंबदें थीं.
1853 में पहली बार हुए सांप्रदायिक दंगे
मीडिया रिपोर्ट्स में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि वर्ष 1853 में अयोध्या में रामजन्मभूमि को लेकर विवादित स्थल के आसपास पहली बार सांप्रदायिक दंगे हुए थे. इन दंगों के बाद वर्ष 1859 में अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित स्थल के आसपास बाड़ लगा दी. मुसलमानों को ढांचे के अंदर और हिंदुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की इजाजत दी गई.
1949 में विवादित स्थल पर लगाया गया ताला
रिपोर्ट्स में बताया गया है कि रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद को लेकर असली विवाद 23 दिसंबर 1949 को तब शुरू हुआ, जब भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं. हिंदुओं का कहना था कि भगवान राम प्रकट हुए हैं, जबकि मुसलमानों का आरोप था कि किसी ने रात में विवादित स्थल पर चुपचाप मूर्तियां रख दीं. इस विवाद के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सरकार ने मूर्तियां हटाने का आदेश दिया, लेकिन जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) केके नायर ने दंगों और हिंदुओं की भावनाओं के भड़कने के डर से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जताई. सरकार ने इसे विवादित ढांचा मानकर ताला लगवा दिया.
1961 में की गई मूर्तियां हटाने की मांग
वर्ष 1950 में फैजाबाद सिविल कोर्ट में दो अर्जी दाखिल की गई. इसमें एक में रामलला की पूजा की इजाजत और दूसरे में विवादित ढांचे में भगवान राम की मूर्ति रखे रहने देने की इजाजत मांगी गई. इसके बाद वर्ष 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने तीसरी अर्जी दाखिल की. वहीं, वर्ष 1961 में उत्तर प्रदेश के सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अदालत में अर्जी दाखिल कर विवादित जगह पर कब्जा दिलाने और वहां मूर्तियां हटाने की मांग की.
1984 में बनी राम मंदिर निर्माण समिति, 1986 में खुला ताला
इसके बाद वर्ष 1984 में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने अयोध्या में विवादित ढांचे की जगह मंदिर बनाने के लिए एक समिति का गठन किया और इसके दो साल बाद वर्ष 1986 में यूसी पांडे की याचिका पर फैजाबाद के जिला जज केएम पांडेय ने 1 फरवरी 1986 को हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत देते हुए ढांचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया.
6 दिसंबर 1992 को ढहा दिया गया विवादित ढांचा
अयोध्या में वर्ष 1986 में विवादित स्थल का ताला खोले जाने करीब 6 साल बाद 6 दिसंबर 1992 को विश्व हिंदू परिषद और और शिवसेना समेत देश के अन्य हिंदू संगठनों के लाखों कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को गिरा दिया. इसके बाद देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़के उठे, जिनमें 2 हजार से ज्यादा लोग मारे गए.
2002 के गोधरा कांड से ऐतिहासिक फैसले तक का सफर
अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के 6 साल बाद वर्ष 2002 में हिंदू कार्यकर्ताओं को लेकर जा रही ट्रेन में गोधरा में आग लगा दी गई, जिसमें 58 लोगों की मौत हो गई. इसकी वजह से गुजरात में हुए दंगे में 2 हजार से ज्यादा लोग मारे गए. इसके 8 साल बाद वर्ष 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा के बीच 3 बराबर-बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया. वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी.
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वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट की अपील की. भाजपा दिग्गज नेताओं पर आपराधिक साजिश के आरोप फिर से बहाल किए गए. 8 मार्च 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा. पैनल को 8 सप्ताह के अंदर कार्यवाही खत्म करने का निर्देश दिया गया और 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया.