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इस बार कठिन है डगर अखिलेश यादव की

लखनऊ : वर्ष 2012 में 15 मार्च को जब 38 वर्ष की उम्र में अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री बने थे, तो लोगों को उनसे काफी उम्मीदें थीं. आम लोगों को यह उम्मीद थी कि एक युवा मुख्यमंत्री बना है, तो प्रदेश का विकास निश्चित तौर करेगा और प्रदेश […]

लखनऊ : वर्ष 2012 में 15 मार्च को जब 38 वर्ष की उम्र में अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री बने थे, तो लोगों को उनसे काफी उम्मीदें थीं. आम लोगों को यह उम्मीद थी कि एक युवा मुख्यमंत्री बना है, तो प्रदेश का विकास निश्चित तौर करेगा और प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति में आमूच-चूल बदलाव लायेगा. लेकिन लोगों ने जिस उम्मीद के साथ अखिलेश यादव को प्रदेश की बागडोर सौंपी थी, वह पूरी नहीं हो पायी. अब जबकि वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है, परिस्थितियां और समीकरण बताते हैं कि अखिलेश यादव के लिए इस बार अपनी कुर्सी बचा पाना टेढ़ी खीर साबित होगा.

अखिलेश सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी

अखिलेश सरकार प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति को सुधार नहीं सकी और कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनसे लोगों में निराशा है. पिछले साल अक्तूबर महीने में बदायूं में दो बहनों की लाश संदिग्ध अवस्था में पायी गयी थी. इस घटना ने अखिलेश सरकार की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा दिया. मुजफ्फरनगर दंगे के कारण भी अखिलेश सरकार परेशानी में आयी, फिर दादरी कांड और करैना पलायन भी सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती है. सपा के वोट बैंक में यादव और मुसलमान हैं. यादव के नौ प्रतिशत वोटर तो कहीं नहीं जायेंगे लेकिन 18 प्रतिशत मुसलमानों का पार्टी से मोह भंग हुआ है.

बहन मायावती के साथ भाजपा और कांग्रेस भी है तैयार

दलितों के वोट की मल्लिका मायावती इस बार पूरी तरह से सपा को सत्ताच्युत करने के लिए तैयार हैं. वहीं भाजपा अमित शाह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश को अपने पाले में करने की जुगत भिड़ा रही है. वह चाहती है किसी तरह अगड़ों का वोट उसके खाते में आ जाये साथ ही अति पिछड़े वर्ग के वोटर पर भी वह नजर जमाये है. हालांकि सीएम कौन होगा इसपर भाजपा ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं.

वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने ब्राह्मण वोटर को लुभाने के लिए शीला दीक्षित को ‘सीएम कैंडिडेट’ घोषित कर दिया है. शीला दीक्षित सबसे ज्यादा नुकसान बहन मायावती को पहुंचाने वालीं हैं. क्योंकि मायावती की सोशल इंजीनिरिंग में ब्राह्मणों की अहम भूमिका है, जो शीला दीक्षित के आने से कांग्रेस के साथ आ सकता है. अखिलेश के लिए जो सकारात्मक बात दिखती है वो है अमर सिंह की सपा में वापसी. अमर सिंह एक बार फिर मुलायम सिंह के साथ हैं और राज्यसभा पहुंच चुके हैं. ऐसी उम्मीद जतायी जा रही है कि विपरीत परिस्थिति में अमर सिंह कांग्रेस और सपा को एक साथ ला सकते हैं. यह एक तरीका हो सकता है अखिलेश की कुर्सी बचाने का. लेकिन फिलहाल तो वो परेशानी में ही दिख रहे हैं.

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