Varanasi News: होली का पर्व उत्साह- आनन्द- उमंग का पर्व है. सारी बुराईयों को होलिका दहन में जलाकर आनन्द के रंग में रंग जाने का नाम ही होली है. होली बसन्त ऋतु का मुख्य पर्व है. यह जीवन में उल्लास और आनन्द का पर्व है, क्योंकि इसके बिना जीवन वीरान है. इसका होना नितांत आवश्यक है. यह जीवन का आवश्यक अंग हैं. इस पर्व में सभी जड़ चेतन- पुष्पित झंकृत पल्लवित होने लगती हैं. सभी आनन्द से गदगद हो जाते हैं. यह सनातनी व्यवस्था का सनातनी जीवन पद्धति का अभिन्न अंग है.
पण्डित पवन त्रिपाठी ने बताया कि, सभी पुराणों में इसकी चर्चा की गई है. होली और होलिका से संबंधित एक कथा प्रचलित है, जिसे नारद पुराण से लिया गया है. इस कथा में बताया गया है कि कैसे बुराई पर अच्छाई की जीत होती है. कैसे भक्त प्रहलाद हर कष्टों से छुटकारा पाकर नरसिंह भगवान का आशीर्वाद पाता है.
नारद पुराण के अनुसार, आदिकाल में हिरण्यकश्यप नामक एक राक्षस था. वह किसी देवी-देवता को ना मानकर खुद को ही भगवान मानता था. वह चाहता था कि हर कोई उसकी पूजा करे. इसी कारण उसके राज्य में हर कोई दैत्यराज हिरण्यकश्यप की ही पूजा करते थे, लेकिन राक्षस हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का सबसे बड़ा भक्त था. दैत्यराज के लिए उसका पुत्र ही सबसे बड़डा शत्रु बनता जा रहा था, क्योंकि वह सोचता था कि अगर घर का पुत्र की मेरी पूजा नहीं करेगा तो किसी दूसरे से क्या अपेक्षा रखेंगे.
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दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने त्रस्त होकर अपने पुत्र को कष्ट देने शुरू कर दिया. थक हार के हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से मदद की गुहार लगाई, जिसे भगवान शंकर से ऐसा वरदान मिला था जिसके अनुसार आग उसे जला नहीं सकती थी. इसके बाद दोनों से मिलकर तय किया कि प्रहलाद को आग में जलाकर खत्म किया जाए. इसी कारण होलिका प्रहलाद को अपनी गोदी में बिठाकर आग में बैठ गई, लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से होलिका जल गई और प्रहलाद की जान बच गई. इस बात से हिरण्यकश्यप काफी दुखी हुआ. इसी कारण हर साल चैत्र मास की पूर्णिमा को अग्नि जलाकर होलिका दहन का आयोजन किया जाता है.
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होलिका दहन का वैज्ञानिक रूप से भी विशेष महत्व है. दरअसल इस फाल्गुन मास में जो नई फसल उगती है उसकी आहुति भी दी जाती हैं, क्योंकि शरद ऋतु का गमन हो रहा है और ग्रीष्म ऋतु का आरम्भ हो रहा है. यह संधिकाल है. ऐसे में प्रलोक परम्परा के अनुसार शरीर में सरसों का पिसा उबटन लगाते हैं. इससे निकले अवशेष को होलिका की अग्नि में डालकर दहन करते हैं. इसके पीछे अभिप्राय यह होता है कि शरीर का जो ताप होता है वह इस विकार के रूप में होलिका दहन में नष्ट हो जाए.
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होलिका दहन का पर्व 17 मार्च को पड़ रहा है. इस दिन पूर्णिमा दिन में 1 बजकर 15 मिनट पर लगेगी. पूर्णिमा में ही प्रदोषकाल में रात्रि में होलिका दहन करने का निर्णय लिया जाता है, क्योंकि इसमें विशेष रुप से ध्यान देना है कि चतुर्दशी में होलिका का दाह न हो न ही प्रतिपदा में होलिका का दाह हो. होलिका दहन भद्रा में नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसबार पूर्णिमा के साथ भद्रा भी लग जा रही हैं दिन में एक बजकर के दो मिनट से लेकर रात्रि में 12 बजकर 57 मिनट तक भद्रा रहेगा. यानी कि इस समय के बाद ही होलिका दहन होगा. होलिका दहन से उठती लपटों को देखकर हम यह तय कर लेते हैं कि वर्ष कैसा जाएगा. यदि लौ दक्षिण दिशा की तरफ़ जाती हैं तो निश्चित रूप से राष्ट्र पर विपत्ति आने का यह संकेत हैं.
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होलिका दहन के दूसरे दिन रंगोत्सव होली का त्योहार मनाया जाता है. होली खेलने के रंग की परंपरा प्रतिपदा तिथि में होनी चाहिए. यह पहली तिथि होनी चाहिए महीने की मगर इस बार ऐसा नहीं हो रहा है क्योंकि दूसरे दिन ही यानी कि 18 मार्च को पूर्णिमा दिन में 12 बजकर 52 मिनट तक रहेगी यानी सूर्योदय में पूर्णिमा ही रहेगी. इसलिए देश में होली का पर्व 19 मार्च को सूर्योदय में मनाया जाएगा, लेकिन काशीवासी अपनी लोक परम्परा को कायम रखते हुए इस पर्व को 18 मार्च को मनाएंगे. अन्य जगह यह पर्व 19 मार्च को मनाया जाएगा.
रिपोर्ट- विपिन सिंह