Varanasi News: आज संत कबीर की जयंती है. इसे संत कबीर का 624वां प्राकट्य दिवस भी कहा जा रहा है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ज्येष्ठ मास पूर्णिमा को कबीर जंयती के रूप में हर साल मनाया जाता है. संत कबीर निर्गुण भक्ति काव्यधारा के प्रसिद्ध कवि हैं. संत कबीर ने अपने दोहों में ईश्वर का चित्रण प्रेमी के रूप में किया है. खुद को प्रेमिका बताया है. कबीर के 624वें प्राकट्य उत्सव पर वाराणासी में कबीरपंथियों का जमावड़ा लगा. 14 जून ज्येष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर सुबह 9 बजे से 11 बजे तक शोभायात्रा निकाली गई. कबीर प्राकट्य धाम लहरतारा स्थित स्मारक विकास समिति के प्रांगण में कबीरपंथियों की भीड़ इक्कठी रही.
रविवार को राजस्थान गुजरात हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, बिहार से आए श्रद्धालुओं ने पंजीकरण कराया. इस मौके पर कबीर वाणी और साखी के पदों का गायन किया गया. महोत्सव में आए श्रद्धालुओं ने भजन, सत्संग सुना और कबीर के बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लिया. प्रबंधक संतोष दास ने बताया कि कार्यक्रम दो सत्रों में आयोजित किया गया है. पहला सत्र 9 से 12 और दूसरा शाम 7 से 10 बजे तक आयोजित है. इसमें कबीर वाणी पर चर्चा और प्रवचन शामिल है. 14 जून ज्येष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर सुबह 9 बजे से 11 बजे तक शोभायात्रा निकाली जाएगी. रात आठ बजे से आनंद चौका आरती अर्धनाम करेंगे. संत कबीर प्राकट्य स्थली के मुख्य द्वारा के दोनों ओर सजावटी सामान से लेकर खिलौने और महिलाओं के शृंगार के सामान की दुकानें सज गई.
संत कबीर को कबीर दास या कबीर साहेब के नाम से भी जाना जाता है. उनकी जयंती इस साल 14 जून को मनाई गई. उनका जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन हुआ था. यही वजह है कि हर वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ही उनकी जयंती मनाई जाती है. कबीरदास भक्तिकाल के प्रमुख कवि थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज की बुराइयों को दूर करने में लगा दिया. दोहे के रूप में उनकी रचनाएं आज भी गायी जाती हैं. कबीर दास जी का जन्म काशी में 1398 में हुआ था जबकि उनका निधन 1518 में मगहर में हुआ था. कहा जाता है कि कबीर दास ने मृत्यु के समय भी लोगों को चमत्कार दिखाया था. कबीर दास को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्म के लोग मानते थे. ऐसे में जब उनकी मृत्यु हुई तो दोनों धर्म के लोग उनका अंतिम संस्कार करने के लिए आपस में विवाद करने लगे. कहा जाता है इस विवाद के बीच जब उनके मृत शरीर से चादर हटाई गई, तो वहां फूलों का ढेर मिला. इसके बाद दोनों धर्म के लोगों ने उन फूलों का बंटवारा कर लिया और अपने-अपने अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया.
रिपोर्ट : विपिन सिंह