रंजीव, लखनऊ. आजमगढ़ लोकसभा सीट के उपचुनाव (Azamgarh By Election 2022) में भारतीय जनता पार्टी ने फिर एक बार भोजपुरी संगीत और सिनेमा जगत के लोकप्रिय चेहरे दिनेश लाल यादव निरहुआ (Dinesh Lal Yadav) को उतारा है. निरहुआ के लिए यह उपचुनाव निजी प्रतिष्ठा से जुड़ा चुनावी मुकाबला है क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में इसी सीट पर वे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से करीब 3 लाख वोटों के भारी-भरकम अंतर से हार गये थे.
विधानसभा चुनाव से पहले योगी के समर्थन में निरहुआ ने गीत जारी किया था जिसके बोल थे – “अईहें 22 में योगी जी, फिर से 27 में योगी जी…” गाने में उनकी जो ख्वाहिश थी वह तो पूरी हो गयी और योगी 2022 में फिर से आ गये. देखना दिलचस्प होगा कि अब खुद निरहुआ 22 में आजमगढ़ से सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंच पाते हैं या नहीं. इन दिनों उनके गीत के हवाले से आजमगढ़ में स्थानीय लोग चुनावी चर्चा के दौरान यह कहते हुए चुटकी ले रहे हैं कि, 22 में निरहुआ अईहें कि फिर हार के जईहें!
दरअसल इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यदि उपचुनाव में उनको जीत न मिली तो उन सिर्फ उनके राजनीतिक भविष्य पर ही सवाल खड़े होने लगेंगे बल्कि उनकी लोकप्रियता पर भी प्रभाव पड़ना तय माना जा रहा है. यह तय है कि आजमगढ़ से जिसकी भी जीत होगी उसकी सांसदी भले ही सिर्फ 2 साल की, यानी 2024 के लोकसभा चुनाव तक ही रहेगी, लेकिन इस चुनावी संग्राम ने उत्तर प्रदेश के सभी प्रमुख सियासी दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी है.
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के लिए यह सीट सपा के ही खाते में बनाए रखना प्रतिष्ठा का सवाल है क्योंकि यह सीट उनके इस्तीफे से खाली हुई है. इसके अतिरिक्त सपा पर यह अतिरिक्त दबाव भी है कि विधानसभा चुनावों में आजमगढ़ जिले की सभी 10 सीटों पर जीत हासिल करने का सिलसिला लोकसभा सीट के उपचुनाव में भी जीत के जरिए जारी रहे. सपा ने अभी तक आजमगढ़ से अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा नहीं की है लेकिन माना जा रहा है कि वह दलित बिरादरी के सुशील आनंद को उम्मीदवार बनाकर अपने पक्ष में मुस्लिम-यादव-दलित गठबंधन कायम कर सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखना चाहती है. सुशील आनंद जिले के बड़े राजनीतिक परिवार से संबंध रखते हैं और उनके पिता बलिहारी बाबू बामसेफ के संस्थापक संस्थापकों में शामिल थे. दलितों पर उनका अच्छा प्रभाव माना जाता रहा है.
इसी तरह भाजपा के रणनीतिकारों के लिए भी यह उपचुनाव बड़ी प्रतिष्ठा का सवाल है. विधानसभा चुनाव में दोबारा सरकार बनाने की कामयाबी के बावजूद आजमगढ़ में सपा से बुरी तरह मात खाने का हिसाब लोकसभा सीट के उपचुनाव में बराबर करने का भाजपा के दिग्गजों के सामने अवसर है. निरहुआ को ही फिर टिकट देकर ओबीसी समीकरण साधने का अपना चुनावी रणनीति का सिलसिला भाजपा ने जारी रखा है. बताया जा रहा है कि प्रत्याशी के तौर पर निरहुआ तो फिर उतारने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बड़ी भूमिका रही है. ऐसे में यह तय है कि उपचुनाव में प्रचार का मोर्चा भी वह संभालेंगे. लिहाजा उनके खुद के लिए भी बड़ी प्रतिष्ठा का सवाल होगा कि आजमगढ़ की सीट वे समाजवादी पार्टी से छीन कर भाजपा के खाते में डालें.
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ऐसी ही प्रतिष्ठा बसपा प्रमुख मायावती की भी जुड़ी हुई है. विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद उनके लिए जरूरी है कि वे बसपा को कामयाबी दिला कर पार्टी की प्रासंगिकता बनाये रखने का संदेश दें. इस सीट को दलित-मुस्लिम गठबंधन बना कर जीतने की रणनीति के तहत उन्होंने मुस्लिम समुदाय के गुड्डू जमाली को प्रत्याशी बनाया है जो दो बार आजमगढ़ जिले की मुबारकपुर विधानसभा सीट से विधायक भी रह चुके हैं. इतना ही नहीं, वे एक बार आजमगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़कर करीब ढाई लाख वोट भी पा चुके हैं.
मायावती की रणनीति यह है कि मुस्लिम प्रत्याशी उतारकर आजमगढ़ में बड़ी संख्या में उपस्थित मुस्लिम वोटरों के बड़े हिस्से को सपा से तोड़ते हुए दलित-मुस्लिम गठजोड़ के जरिए इस सीट पर कब्जा जमाया जाए. मायावती की रणनीति उनकी अपनी प्रतिष्ठा से भी जुड़ी है क्योंकि यदि यह सीट बसपा ने जीत ली तो बसपा की सियासी प्रासंगिकता फिर से बहाल होने में मदद मिलेगी. आजमगढ़ में कोई कसर न छोड़ने के लिए ही मायावती ने रामपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला किया है. आजमगढ़ में करीब 19 लाख मतदाता हैं. जिनमें करीब साढ़े तीन लाख यादव व तीन-तीन लाख मुस्लिम और दलित वोटर हैं। बाकी अन्य जाति के हैं. दलित वोटरों में ज्यादा संख्या मायावती के कोर वोटर जाटवों की है.
(लेखक राजनीतिक मामलों के जानकार हैं. लेख में उनके निजी विचार हैं)