UP Politics: मुस्लिम मतदाताओं पर सियासी दलों की निगाह, सपा-बसपा-कांग्रेस के बाद भाजपा भी जुटी साधने में..
लोकसभा चुनाव में अभी डेढ़ साल का वक्त बाकी है. लेकिन, सियासी तानाबाना अभी से बुना जाने लगा है. सियासत में एक कहावत है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचने वाले रास्ते को बीजेपी इन दिनों दुरुस्त करने में जुटी है.
Bareilly: उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं. यूपी के साथ- साथ देश की सियासत भी इन्हीं के चारों तरफ घूमती है. कोई मुस्लिमों का डर दिखाकर मतदाताओं को अपने पक्ष में कर वोट लेता है, तो कोई मुस्लिमों को सियासी पार्टियों का खौफ दिखाकर मुस्लिम मतदाताओं को साध लेता है. मगर, कुछ वर्ष पूर्व आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक सियासी फुटबाल बनने वाले मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी बदतर हो गई है.
5.50 करोड़ से अधिक हो गई है मुसलमानों की संख्या
उत्तर प्रदेश में 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमान 3,84,83,967 यानी (20.26%) है. 22 करोड़ की आबादी वाले यूपी में 11 वर्ष बाद मुसलमानों की संख्या बढ़कर 5.50 करोड़ से अधिक हो गई है. इसीलिए देश में मुस्लिम उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक है. नगर निकाय चुनाव से पहले सपा, बसपा और कांग्रेस के बाद भाजपा भी मुस्लिमों को साधने की कोशिश में जुटी है. क्योंकि, नगर निकायों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या काफी है.
143 विधानसभा सीटों पर मुसलमानों का प्रभाव
इसके एक वर्ष बाद लोकसभा चुनाव है. उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 143 सीट पर मुस्लिम अपना असर रखते हैं. इनमें से 70 सीटों पर मुस्लिम आबादी 20-30 फीसदी के बीच है, जबकि 73 सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान 30 प्रतिशत से अधिक हैं. मगर, बड़ी संख्या में यूपी के मुस्लिम मतदाता सपा के साथ रहते हैं. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में करीब 90 फीसद मुस्लिम मतदाता सपा के साथ था. इसको साधने की कोशिश में बसपा भी लगी है. बीएसपी चीफ मायावती मुस्लिमों के साधने के लिए उनके पक्ष में बयानबाजी कर रही हैं, तो वहीं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के मुरादाबाद से सांसद डॉ. एसटी हसन को लोकसभा में पार्टी का नेता नियुक्त किया है.
सपा ने चला ये दांव
एक तरफ जहां बीजेपी मुसलमानों को एकजुट करने में लगी है, तो वहीं दूसरी तरफ सपा ने एसटी हसन को ये जम्मेदारी सौंपकर बड़ा दांव खेला है. ऐसा माना जा रहा है कि सपा को 2024 के चुनाव में इसका फायदा मिल सकता है. सांसद डॉ. एसटी हसन सपा के दिग्गज नेता आजम खां के करीब माने जाते हैं. हसन पहली बार मुरादाबाद से सांसद हैं. इससे पहले वो चुनाव यहीं से लड़े थे, लेकिन हार गए. डॉ. एसटी हसन मुरादाबाद के मेयर भी रहे हैं. उधर कांग्रेस भी मुसलमानों को साधने में लगी है, लेकिन, अब भाजपा ने मुसलमानों को जोड़ने का अभियान चलाया है. पसमांदा सम्मेलन के माध्यम से पिछड़े मुस्लिमों को साधा जा रहा है. उनको निकाय में टिकट देने की भी तैयारी भी है.
भाजपा पसमांदा पॉलिटिक्स से मुस्लिमों में बना रही है पैठ
लोकसभा चुनाव में अभी डेढ़ साल का वक्त बाकी है. लेकिन, सियासी तानाबाना अभी से बुना जाने लगा है. सियासत में एक कहावत है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचने वाले रास्ते को बीजेपी इन दिनों दुरुस्त करने में जुटी है. ऐसे में विपक्ष के मजबूत वोट बैंक माने जाने वाले मुस्लिम समाज के बीच बीजेपी अपनी जगह बनाने की कवायद कर रही है. लेकिन, उसकी नजर पसमांदा मुसलमानों पर है. यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि बीजेपी मुसलमान विरोधी नहीं है, बल्कि वह खुले दिल से इस समुदाय को गले लगाने के लिए तैयार है.
2012 में 69 मुस्लिम विधायक
साल 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में 69 मुस्लिम जीत दर्ज कर विधानसभा पहुंचे थे. यह उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की सबसे बड़ी संख्या थी. तकरीबन 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी में हिस्सेदारी 20 फीसद से अधिक है. लेकिन, 403 सदस्यों वाली विधान सभा में 2017 में संख्या घटकर 24 रह गई थी. 2017 में 19 सीट जीतने वाली बसपा के 5 विधायक मुस्लिम थे, तो वहीं 54 सीट जीतने वाले सपा-कांग्रेस गठबंधन में 19 मुस्लिम थे.इसमें 17 सपा के और 2 कांग्रेस पार्टी के थे.
भाजपा गठबंधन दल ने एक प्रत्याशी को दिया था टिकट
2022 के चुनाव में गठबंधन के 34 मुस्लिम प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की. बीजेपी गठबंधन में अपना दल ने रामपुर में एक मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट दिया था, जो उसके कुल विधायकों का करीब एक तिहाई है. सपा गठबंधन ने 63 और बसपा ने 86 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे. कांग्रेस ने भी करीब 60 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट दिया.
ऐसी स्थिति में है मुस्लिम मतदाता
मुस्लिम मतदाताओं की चुप्पी केवल समाज तक सीमित नहीं है. राजनीतिक दल भी इनके मुद्दों को लेकर काफी समय से खामोश नजर आए हैं. इसे हिंदू वोटों के प्रति-ध्रुवीकरण को रोकने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है.गैर भाजपा दलों का भी इस समुदाय को कई मुद्दों पर खुलकर सपोर्ट नहीं मिला. मुस्लिम नेता मुहम्मद आजम खां और उनके कुनबे, विधायक नाहिद हसन, इरफान सोलंकी, शहजिल इस्लाम, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद आदि मुस्लिम नेताओं पर कार्रवाई का शिकंजा कसा हुआ है. लेकिन, इनके दल भी साथ नहीं आए. इसमें सीएए का विरोध भी शामिल है.
घोषणापत्र में समुदाय विशेष से वादा नहीं
यह भी देखने को आया है कि सपा ने चुनाव में कितने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, यह बताने से भी बचती नजर आई. मुस्लिमों का वोट लेने वाले एक दल ने चुनाव में मुस्लिमों से दूरी बनाने के निर्देश दिए थे. इसलिए प्रत्याशियों ने भी दूरी बना ली थी. दूसरी तरफ बसपा प्रमुख मायावती ने अपना ध्यान दलित-मुस्लिम से दलित-ब्राह्मण के मुद्दों पर मोड़ लिया. किसी भी बड़े विपक्षी दल ने अपने घोषणापत्र में समुदाय विशेष से कोई वादा नहीं किया था.
विधानसभा चुनाव मुस्लिम विधायक
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1951-52 (41)
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1957 (37)
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1962 (30)
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1967 (23)
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1969 (29)
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1974 (25)
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1977 ( 49)
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1991 (17)
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1993 (28)
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1996 (38)
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2002 (64)
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2007 (54)
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2012 (68)
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2017 (24)
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2022 (34)
रिपोर्ट- मुहम्मद साजिद, बरेली