Thakur Roshan Singh उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर दिया था.महात्मा गांधी ने अंग्रेजी हुकूमत की बगावत में असहयोग आंदोलन चला रखा था. देशभर नौजवान उस आंदोलन को कामयाब बनाने को सब कुछ लुटा रहे थे.
ब्रिटिश हुकूमत से सीधे-सीधे मोर्चा लेने वाले लाखों हिंदुस्तानी लड़के (नौजवान) आंदोलन के चलते हिंदुस्तानी जेलों में ठूंसे जा चुके थे, तो वहीं ठूंसे जा रहे थे. हिंदुस्तान के गर्म मिजाज बहादुरों की उसी बेतहाशा भीड़ में दिलेर रोशन सिंह भी थे.इसकी रोंगटे खड़ी कर देने वाली हसरतों, और जिंदादिली की बातें उसकी मौत के 95 वर्ष बाद अब भी कायम हैं. गुलाम भारत की आजादी के भूखे 35 वर्ष के बहादुर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की दिलेरी की कहानी लोगों की अब भी जुबानी है. ठाकुर रोशन सिंह ने उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक अंग्रेज पुलिस कर्मी की बंदूक छीनकर वहां मौजूद भीड़ के ऊपर ही गोलियां झोंक दी थीं.
उस जुर्म की सजा मुकर्रर की गई. दो साल का सश्रम यानि ब-मशक्कत कारावास. बरेली सेंट्रल जेल में सजा काटी.इसके बाद घर वापसी हुई. इसके बाद सन् 1924 में ठाकुर रोशन सिंह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन से जुड़ गए. वह रिपब्लिकन एसोसियेशन के कर्णधार थे. युवा क्रांतिकारी शाहजहांपुर के पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र नाथ लाहिरी से हिंदुस्तान की आजादी के दीवाने थे. काले इरादों वाली गोरों की ब्रिटिश हुकूमत के दुश्मन थे.
क्रांतिकारी रोशन सिंह को इलाहाबाद की मलाका जेल (वर्तमान में स्वरूप रानी अस्पताल) में फांसी दी गई थी.उस दौरान फाटक पर हज़ारों की संख्या में लोग रोशन सिंह के अन्तिम दर्शन करने व उनकी अन्त्येष्टि में शामिल होने को एकत्र हुए.जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाये वहां उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया “रोशन सिंह! अमर रहें”.
क्रांतिकारी रोशन सिंह ने 06 दिसम्बर 1927 को इलाहाबाद स्थित मलाका (नैनी) जेल की काल-कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था. इसमें इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होने की बात लिखी थी. ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मोहब्बत (प्रेम) का बदला दें, आप मेरे लिये रंज (खेद) हरगिज (बिल्कुल) न करें. मेरी मौत खुशी का बाइस (कारण) होगी. दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है. दुनिया में बदफैली (पाप) करके अपने को बदनाम न करे और मरते वक्त ईश्वर को याद करें.यही दो बातें होनी चाहिये. ईश्वर की कृपा से मेरे साथ ये दोनों बातें हैं. इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है. दो वर्ष से बाल-बच्चों से अलग रहा हूं. इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला. इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही. मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिन्दगी जीने के लिये जा रहा हूं. हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है. उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की”.पत्र समाप्त करने के पश्चात उसके अन्त में उन्होंने अपना यह शेर भी लिखा था “जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन,वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं”
क्रांतिकारी रोशन सिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन क्रांतिकारी धारा वाले उत्साही नवयुवकों का संगठन था. लेकिन संगठन के पास पैसे की कमी थी. इस कमी को दूर करने के लिये आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का रास्ता अपनाया गया और वह रास्ता था डकैती का. इस कार्य को पार्टी की ओर से एक्शन नाम दिया गया. एक्शन के नाम पर पहली डकैती पीलीभीत जिले के एक बमरौली गांव में 25 दिसम्बर 1924 को क्रिस्मस के दिन खण्डसारी बल्देव प्रसाद के यहां डाली गई. इस पहली डकैती में 4 हजार रुपये और कुछ सोने-चांदी के जे़वरात क्रान्तिकारियों के हाथ लगे. मगर, मोहनलाल पहलवान नाम का एक आदमी, जिसने डकैतों को ललकारा था, रोशन सिंह की रायफल से निकली एक ही गोली में ढेर हो गया. सिर्फ मोहनलाल की मौत ही रोशन सिंह की फांसी की सजा का कारण बनी.
रिपोर्ट : मुहम्मद साजिद